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- नीले ग्रह पर खुशी की...
पल्लवी विनोद: जियो और जीने दो! कितना आसान है इस सूत्र को अपनाना! क्या वाकई इतना आसान है? इसका उत्तर पूछा जाए तो मैं यही कहूंगी कि यह इतना आसान नहीं है, लेकिन इस सूत्र को हर किसी को अपनाना चाहिए। दरअसल, इस सूत्र में 'जीने दो' से पहले एक शब्द है 'जियो' और हम सबमें से अधिकतर लोग इस सच से अनजान हैं कि जीवन जीने के असल मायने क्या हैं!
हम सब समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार से इस तरह संबद्ध हैं कि उसी में अपना जीवन ढूंढ़ लेते हैं। जब हम जीवन को समझना शुरू करते हैं, तब तक परिवार नामक संस्था ने हमें यह समझा दिया होता है कि हमारे लिए यह सही है और यह गलत। मसलन मैं आठ साल की उम्र में जानती थी कि किसी दूसरे की चीज हमारी नहीं होती। हमारे अंदर उसको पाने की ख्वाहिश भी गलत है।
धीरे-धीरे यही सोच मांसाहार, कलाकार, आधुनिकता के संदर्भ में भी पलने लगी। हमारी जीवन शैली से भिन्न लोगों को देख कर हमारे अंदर अपना निर्णय लेने की भावना का विकास होने लगा। यहां तक कि हम महत्त्वाकांक्षी होने की भावना को भी गलत समझने लगे। हमारे अंदर हमारी संस्कृति के गर्व को इस तरह से रोपित किया गया कि हमारी संस्कृति से इतर क्रियाएं गौण लगने लगीं।
पिता या माता का अपने बच्चों से कहना कि अभी तुम मेरे घर में रह रहे हो तो मेरे हिसाब से रहना होगा- यह भी एक किस्म की मानसिक दुर्बलता या अराजकता ही होती है। घर के मुखिया से अन्य लोगों का डरना क्या आपको असहज नहीं करता? हम धीरे-धीरे उसी असहजता को सही समझने लगते हैं। असल में हम अपने परिवार और परिवेश से जीवन के आरंभिक वर्षों में इतना कुछ सीख लेते हैं कि अपरिहार्य परिस्थितियों के अतिरिक्त जीवनपर्यंत उससे पीछा नहीं छुड़ा पाते। हमें एक रेखा दी गई और उस पर ही चलने को कहा गया। फिर यह भी कहा गया कि इस रेखा से विचलन तुम्हारे चरित्र पर प्रश्न उठाएगा।
हमारे अंतर्मन में इस बात ने इतनी गहरी पैठ बना ली कि हम जब भी इधर-उधर भटकें, एक अपराध बोध से घिरे रहें। उस अपराध बोध ने हमारे मन में अपने मन के रास्ते पर चलने का विश्वास नहीं पनपने दिया और हम वापस उसी रेखा पर लौट आए या कुछ कारणों से लौटना पड़ा। उदाहरण के लिए अगर एक सास बहुत अच्छी सास बनना चाहे तो उसे अपनी पिछली जिंदगी को भूलना पड़ेगा। उसे यह भूलना होगा कि जीवन का ज्यादातर हिस्सा उसने किन परिस्थितियों में खुद को शून्य समझ कर निकाल दिया।
लेकिन प्रायोगिक तौर पर यह इतना आसान नहीं होता। एक व्यक्ति अपने भूत से बाहर आकर इतना उदार नहीं हो पाता कि वह दूसरे के विपरीत कार्य को स्वीकार कर सके। वह हमेशा सामने वाले को सही-गलत के तराजू में तौलता रहता है। उसे हमेशा अपने अतीत और बलिदान का पलड़ा भारी लगता है। बस वहीं से मतभेद और मनभेद की शृंखला का निर्माण शुरू होता है।
सवाल है कि ऐसे में क्या किया जाए! हम परिस्थितियों के वशीभूत होकर जीवन का आनंद कभी नहीं ले सकते। हर नई चीज हमें एक डर और संकोच के साथ मिलती है। कैसे निकलें उस डर से? एकमात्र तरीका है कि हम उस बदलाव को सहजता के साथ स्वीकार कर लें। पुराने रास्तों को छोड़ कर कुछ नए रास्ते ढूंढें, उस पर आगे बढ़ें। क्या हुआ जो वह समतल न हुआ। हो सकता है उस रास्ते के खूबसूरत दृश्य हमारे सफर की दुरूहता को आसान बना दें। इस नीले ग्रह पर अभी भी बहुत कुछ है जो हमने नहीं देखा।
बहुत कुछ ऐसा है जो समझना बाकी है। डरने की जरूरत नहीं है कि दूसरा हमारे विषय में क्या सोचेगा। इस शरीर और जीवन का प्रयोग नए अनुसंधान में करना चाहिए। जीवन जीने की कलाएं सीखने की जरूरत है। जब हम अपने जीवन में आनंद महसूस करेंगे, तभी दूसरों को भी खुश रहने का मंत्र सिखा पाएंगे। ऐसा कोई भी कार्य, जिससे हमारे आसपास या दूर का प्राणी आहत होता है, वह गलत है।
उसके अलावा सही और गलत की कोई परिभाषा हमने नहीं सीखी, लेकिन यह समझने की कोशिश करते रहने की जरूरत है कि सामने वाला वाकई आहत हो रहा है या हमसे बलिदान या त्याग की उम्मीद अपने अहम को संतुष्ट करने के लिए कर रहा है। अगर हमारे एक विरोध से नियम बदलते हैं तो बदल डालना चाहिए। पुनर्जागरण काल के हर आंदोलन की शुरुआत विद्रोह से ही शुरू हुई है। क्या वे सब गलत थे? नहीं। फिर आत्म के जागरण के लिए हुए आंदोलन कैसे गलत हो सकते हैं!
कभी-कभी लगता है कि हमारे शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाए जाने वाले विषयों के अतिरिक्त 'जीवन को कैसे जिया जाए' का विषय भी पढ़ाया जाना चाहिए। मानव ने विज्ञान के क्षेत्र में बहुत तरक्की कर ली है, अब उसे आत्म-ज्ञान की तरफ ध्यान देने की जरूरत है। इस नीले ग्रह को हंसते मुस्कुराते इंसानों की जरूरत है, न कि थकी और परेशान मशीनों की।