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- हिजाब नहीं, किताब...
हिजाब इस्लाम की अनिवार्य परंपरा या मज़हबी आस्था का हिस्सा नहीं है। पवित्र कुरान हिजाब पहनने का आदेश नहीं देती। हिजाब एक सांस्कृतिक प्रथा है, जो सामाजिक सुरक्षा के नजरिए से बनी थी। हिजाब न पहनना दंडात्मक नहीं है और न ही किसी तरह के पश्चाताप का प्रावधान है, लिहाजा शिक्षण संस्थानों में हिजाब पर रोक एक यथोचित पाबंदी है। यूनिफॉर्म कोड तय करना शिक्षण संस्थान और सरकार का विशेषाधिकार है। हिजाब पहनने वाली छात्राएं उसे मानने से इंकार नहीं कर सकतीं। यह कर्नाटक उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ के न्यायिक फैसले का सारांश है। बेशक यह बेहतरीन और ऐतिहासिक फैसला है। मुस्लिम छात्राएं स्कूल परिसर तक कहीं भी, घर और सड़क पर, हिजाब पहनने को स्वतंत्र हैं। यदि वे न पहनना चाहें, तो उनकी अपनी पसंद का अधिकार भी है, लेकिन कक्षाओं में हिजाब उतार कर ही आना होगा। यह एकरूपता, समरसता और धार्मिक समानता का तकाजा है। शिक्षण संस्थानों में यूनिफॉर्म कोड के सामाजिक मायने भी यही हैं। देश का संविधान न्यायिक फैसलों के प्रति भी असहमति का अधिकार देता है। उसके तहत असंतुष्ट छात्राओं ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है, हम उससे भी सहमत हैं। उच्च न्यायालय के फैसले में सर्वोच्च अदालत ही कोई संशोधन कर सकती है या उसे खारिज कर नया फैसला सुना सकती है।
क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल