सम्पादकीय

हिजाब नहीं, किताब जरूरी

Gulabi Jagat
16 March 2022 7:13 PM GMT
हिजाब नहीं, किताब जरूरी
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हिजाब इस्लाम की अनिवार्य परंपरा या मज़हबी आस्था का हिस्सा नहीं है

हिजाब इस्लाम की अनिवार्य परंपरा या मज़हबी आस्था का हिस्सा नहीं है। पवित्र कुरान हिजाब पहनने का आदेश नहीं देती। हिजाब एक सांस्कृतिक प्रथा है, जो सामाजिक सुरक्षा के नजरिए से बनी थी। हिजाब न पहनना दंडात्मक नहीं है और न ही किसी तरह के पश्चाताप का प्रावधान है, लिहाजा शिक्षण संस्थानों में हिजाब पर रोक एक यथोचित पाबंदी है। यूनिफॉर्म कोड तय करना शिक्षण संस्थान और सरकार का विशेषाधिकार है। हिजाब पहनने वाली छात्राएं उसे मानने से इंकार नहीं कर सकतीं। यह कर्नाटक उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ के न्यायिक फैसले का सारांश है। बेशक यह बेहतरीन और ऐतिहासिक फैसला है। मुस्लिम छात्राएं स्कूल परिसर तक कहीं भी, घर और सड़क पर, हिजाब पहनने को स्वतंत्र हैं। यदि वे न पहनना चाहें, तो उनकी अपनी पसंद का अधिकार भी है, लेकिन कक्षाओं में हिजाब उतार कर ही आना होगा। यह एकरूपता, समरसता और धार्मिक समानता का तकाजा है। शिक्षण संस्थानों में यूनिफॉर्म कोड के सामाजिक मायने भी यही हैं। देश का संविधान न्यायिक फैसलों के प्रति भी असहमति का अधिकार देता है। उसके तहत असंतुष्ट छात्राओं ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है, हम उससे भी सहमत हैं। उच्च न्यायालय के फैसले में सर्वोच्च अदालत ही कोई संशोधन कर सकती है या उसे खारिज कर नया फैसला सुना सकती है।

ओवैसी, पठान, महबूबा, उमर अब्दुल्ला सरीखे सियासतदां और मुल्ला, मौलवी, कादरी आदि धर्मगुरू भी असहमत हैं, तो वे भी संवैधानिक हैं, लेकिन कानून की अंतिम व्याख्या अदालत ही करेगी। उच्च न्यायालय के फैसले से स्पष्ट है कि न तो किसी की निजता, न अभिव्यक्ति की आज़ादी, न पहनावे की स्वतंत्रता और न ही मज़हबी आस्था के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों का हनन हुआ है। संविधान में व्यक्तिपरक अधिकारों की व्यवस्था और व्याख्या है। यदि किसी व्यक्ति विशेष के अंतःकरण की आस्था के अधिकार का उल्लंघन हुआ है, तो वह चिंताजनक है और असंवैधानिक भी है। उसे सामाजिक, सार्वजनिक और न्यायिक स्तर पर संबोधित किया जाना चाहिए। संविधान में किसी भी समुदाय के, एक समुदाय-विशेष के तौर पर, मौलिक अधिकारों की व्यवस्था या उल्लेख नहीं है। कृपया ओेवैैसी सरीखे ठेठ मुस्लिमवादी लोग यह जान लें। चूंकि ऐसी कठमुल्ला जमात के उकसावे पर ही देश के कुछ हिस्सों में मुस्लिम छात्राएं आंदोलित हैं, दुष्प्रचार किया जा रहा है कि मुस्लिम छात्राओं के लिए स्कूल-कॉलेज के दरवाजे बंद किए जा रहे हैं, भ्रम फैलाया जा रहा है कि मुस्लिम बच्चियों के लिए किताब से ज्यादा कीमती और अहम हिजाब है, क्योंकि ऐसा इस्लाम का हुक्म है। ये तमाम आरोप बेबुनियाद और खोखले हैं, क्योंकि शिक्षा का अधिकार एक कानूनन बंदिश है। उससे कोई भी, किसी को भी, महरूम नहीं रख सकता। यदि धर्म और मज़हब की रूढि़यां और कायदे-कानून आज के संविधान, समाज, कानून और समकालीन व्यवस्था के अनुरूप नहीं हैं, तो उनमें भी संशोधन या खारिज किया जा सकता है।
मज़हबी आदेश अपेक्षाकृत कट्टर नहीं हैं। यह ओवैसी सरीखों की सियासत का शोर है कि एक सामान्य-सी व्यवस्था को 'फुटबाल' बना दिया। हाल ही में सम्पन्न हुए उप्र चुनाव साक्ष्य रहे हैं कि ओवैसी ने किस तरह की सियासत की और जनादेश एक फीसदी से भी कम नसीब हुआ। हमारा मुस्लिम बेटियों से हाथ जोड़ कर, विनम्र और पिता-तुल्य आग्रह है कि वे हिजाब पर जिद न करें, किसी ओछी और संकीर्ण सियासत का शिकार न हों। पढ़ना और आत्मनिर्भर भारतीय बनना बेटियों का भी सर्वोच्च सरोकार होना चाहिए। शेष सभी व्यवस्थाएं और मुद्दे गौण हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, जॉर्डन, टर्की, नीदरलैंड्स, डेनमार्क, जर्मनी, मिस्र, फ्रांस, सीरिया, बुल्गारिया, चीन आदि न जाने कितने इस्लामी और अन्य देशों में हिजाब पहनने पर पाबंदी है। केरल के राज्यपाल एवं प्रख्यात इस्लामी स्कॉलर, लेखक आरिफ मुहम्मद खां के मुताबिक, इस्लाम में 5 बुनियादी व्यवस्थाएं हैं-नमाज, रोजे, हज, जकात और कलमा। हिजाब का कोई जि़क्र नहीं है। कमोबेश आरिफ साहेब ओवैसी की तुलना में इस्लाम के बड़े ज्ञाता और व्याख्याकार हैं। वह मानते हैं कि पवित्र कुरान में 'खिमार' यानी दुपट्टे का जि़क्र है, लेकिन चेहरे पर पर्दा करने का जि़क्र बिल्कुल नहीं है। भारत एक संवैधानिक गणतंत्र है, जिसमें कानून की अंतिम व्याख्या अदालत ही कर सकती है। शेष अब सर्वोच्च अदालत के विचाराधीन है।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल

Gulabi Jagat

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