न्यूज़क्रेडिट: अमरउजाला
अर्थव्यवस्था के जानकारों का मानना है कि केंद्र की यह राय अमेरिकी-यूरोपीय देशों के मॉडल के आधार पर आधारित है जिनके पास भारी पूंजी, लेकिन कम मानव संसाधन है।
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एक रिसर्च रिपोर्ट में सरकारी बैंकों का निजीकरण न करने का सुझाव दिया गया है। रिपोर्ट में सरकारी बैंकों का प्रदर्शन कई मायनों में प्राइवेट बैंकों से बेहतर बताया गया है। यह भी कहा गया है कि सरकार के लक्ष्यों को प्राप्त करने में निजी बैंकों की तुलना में सरकारी बैंकों की भूमिका ज्यादा सराहनीय रही है। यह रिपोर्ट सरकार की उस नीति के सीधे उलट दिशा में है, जिसमें सरकारी क्षेत्र के स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को छोड़कर बाकी सभी बैंकों को निजी हाथों में देने की रणनीति बनाई जा रही है। यह रिपोर्ट रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का आधिकारिक पक्ष नहीं है, बल्कि इसकी एक रिसर्च विंग के द्वारा बैंकों के निजीकरण के मुद्दे पर व्यक्त की गई एक राय है। लेकिन इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद विपक्ष और बैंक कर्मचारियों के वे संगठन मुखर हो गए हैं जो बैंकों के निजीकरण का लगातार विरोध करते आए हैं।
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा देश को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की बात करते हैं। उनका मानना है कि बड़ी अर्थव्यवस्था की जरूरतें पूरी करने के लिए देश में दो से तीन बड़े स्तर के बैंकों की आवश्यकता है। तर्क है कि बड़े बैंक बड़ी अर्थव्यवस्था की जरूरतों के मुताबिक देश के प्रमुख उद्योगों को बड़ा कर्ज देने में सक्षम होंगे, जबकि छोटे बैंक यह कार्य नहीं कर पाते। साथ ही बैंकों के विलय से उनकी कर्ज देने की क्षमता बढ़ जाएगी और घाटा कम करने में मदद मिलेगी। यह कार्य सरकारी बैंकों का निजीकरण करके और छोटे बैंकों का आपस में विलय करके किया जा सकता है। यही कारण है कि सरकार लगातार बैंकों के निजीकरण की बात कह रही है।
अर्थव्यवस्था के जानकारों का मानना है कि केंद्र की यह राय अमेरिकी-यूरोपीय देशों के मॉडल के आधार पर आधारित है जिनके पास भारी पूंजी, लेकिन कम मानव संसाधन है। इन देशों में जनता की बैंकों से अपेक्षाएं भी बहुत सीमित हैं और इन देशों में भारी मात्रा में शहरीकरण हो चुका है जिससे इन बैंकों की पूरी व्यवस्था शहरी क्षेत्रों तक सीमित है। जबकि भारत में अभी भी 70 फीसदी जनता उन ग्रामीण इलाकों में रहती है जहां आय के संसाधन बेहद सीमित हैं और उनकी अर्थव्यवस्था का आकार बेहद छोटा है।
आजादी के बाद से अब तक का अनुभव बताता है कि निजी बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सुविधा पहुंचाने में कोई रुचि नहीं दिखाई। ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक शाखाओं के संचालन लागत की तुलना में बेहद कम व्यवसाय होने के कारण बैंक गांवों की पहुंच से दूर ही रहे। सरकार सरकारी बैंकों के माध्यम से लोगों तक कर्ज का लाभ पहुंचाकर उन्हें आर्थिक तौर पर सशक्त करने की योजनाएं बनाती है, लेकिन निजी बैंक इस तरह की योजनाओं से दूरी बनाये रखते हैं। वे कर्ज देने की बाध्यता को भी लूपहोल के माद्यम से पूरा करने की कोशिश करते हैं।
बैंकों के निजीकरण के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि इससे बैंकिंग व्यवस्था में भ्रष्टाचार रूकेगा और जनता के पैसे की धोखाधड़ी को रोका जा सकेगा, लेकिन हाल ही में ऐसे घोटाले उजागर हुए हैं जिनमें उद्योगपतियों ने प्राइवेट बैंकों के अधिकारियों से सांठगांठ करके बड़े लोन प्राप्त कर लिये और बाद में या तो वे पैसा लेकर विदेशों में भाग गए या स्वयं को दिवालिया घोषित कर दिया।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे जिनमें लोगों का जमा करोड़ों रूपया डूब गया था। ऐसे में यह अनुमान भी गलत साबित हुआ है कि सरकारी बैंकों की तुलना में निजी बैंकों में भ्रष्टाचार नहीं होगा।
1969 और 1980 में राष्ट्रीयकरण के बाद भी समय-समय पर निजी बैंकों की हालत खराब होने पर सरकार द्वारा इन बैंकों को राष्ट्रीयकृत बैंकों में मिला दिया गया। इनमें प्रमुख लक्ष्मी कमर्शियल बैंक, बैंक ऑफ़ पंजाब, हिंदुस्तान कमर्शियल बैंक, भारत बैंक, नेडूनगड़ी बैंक, न्यू बैंक ऑफ़ इंडिया, ग्लोबल ट्रस्ट बैंक और यूनाइटेड वेस्टर्न बैंक थे। जबकि बैंक ऑफ़ राजस्थान और सांगली बैंक को आई.सी.आई.सी.आई. बैंक में मिला दिया। आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि इस बात की कोई गारंटी हीं दी जा सकती कि इस तरह की परिस्थितियां दुबारा नहीं पैदा होंगी।
आसान नहीं बैंकों का निजीकरण
बैंकिंग व्यवस्था के जानकार अश्विनी राणा ने अमर उजाला से कहा कि सरकारी बैंकों का निजीकरण आसान प्रक्रिया नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सरकारी बैंकों का आकार इतना बड़ा है कि उन्हें खरीदने के लिए निजी क्षेत्र से निवेश बहुत मुश्किल है। इन बैंकों के पास देश के कोने-कोने में वित्तीय-भूमि की बड़ी संपत्तियां हैं जिन्हें खरीदने के लिए बहुत भारी निवेश चाहिए।
इन बैंकों के पूर्व कर्मचारियों की पेंशन और एनपीए दूसरी जिम्मेदारियां हैं जिन्हें निजी क्षेत्र उठाना कभी पसंद नहीं करेगा, लिहाजा इन्हें खरीदने के लिए कोई क्षेत्र आसानी से सामने नहीं आएगा। ध्यान रहे कि सरकार कई क्षेत्रों का निजीकरण इन्हीं कारणों से अब तक नहीं कर पाई जबकि उनका कुल आकार बहुत छोटा था। ऐसे में इतनी बड़ी व्यवस्था की पूरी तरह बिक्री कर पाना बहुत मुश्किल होगा।
उन्होंने कहा कि समय के साथ बैंकिंग व्यवस्था में बदलाव बेहद जरूरी है, लेकिन यह बदलाव सरकारी क्षेत्र के बैंकों की बिक्री करके नहीं, बल्कि इसके वैकल्पिक उपायों को अपनाकर किया जाना चाहिए। डिजिटल बैंकिंग, डिजिटल करेंसी, तकनीकी तौर पर ज्यादा दक्ष कर्मचारियों की नियुक्ति और अन्य उपायों को अपनाकर सरकारी बैंकों की व्यवस्था बेहतर की जा सकती है। इससे बैंकों पर आ रहे वित्तीय बोझ को भी कम किया जा सकता है।
रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के प्रमुख संकेत
रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में कई प्रमुख बातों का उल्लेख किया गया है जो भारतीय बैंकिंग व्यवस्था के बारे में कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि बैंकों का निजीकरण समस्या का समाधान नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक वित्तीय समावेशन, सरकारी योजनाओं को दूर दराज के इलाकों तक पहुंचाने, अंतिम व्यक्ति तक बैंकिंग सुविधाएं लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
बैंकिंग व्यवस्था पर एक नजर
1947 में देश में 664 निजी बैंकों की लगभग 5000 शाखाएं थीं। आज 12 सरकारी बैंकों, 22 निजी क्षेत्र के बैंकों, 11 स्माल फाइनेंस बैंकों, 43 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और 46 विदेशी बैंकों की देश में लगभग एक लाख 42 हजार शाखाएं हैं। वर्तमान में देश में 1482 शहरी को-ऑपरेटिव बैंक हैं, जबकि 58 मल्टी स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक हैं। इन 1540 बैंकों में क़रीब 8.6 करोड़ जमाकर्ताओं के 4 लाख करोड़ 84 लाख रुपए जमा हैं।