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दलहनी फसलों में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है, इसलिए इसमें कीट और रोग का प्रभाव अधिक होता है. दलहनी फसलों में रोग के कारण 20 प्रतिशत का नुकसान होता है,जबकि कीट के कारण 25 फीसदी प्रतिशत तक उत्पादन कम हो जाता है.
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। चना और मटर दलहनी फसलों की कैटेगरी में आते हैं. इसके अलावा दलहनी फसलें प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत होती हैं. यह उनलोगों के लिए काफी फायदेमंद होता है जो लोग मांसाहार नहीं खाते हैं. उनके लिए यह फसले काफी फायदेमंद होती है. एक व्यक्ति को रोज पूरा पोषण देने के लिए दाल की जरूरत होती है. इसलिए दाल उत्पादन पर खासा जोर दिया जाता है, क्योंकि अगर दाल का पर्याप्त उत्पादन नहीं होगा तो हमारे देश को दाल का आय़ात करना पड़ेगा इसमें अधिक विदेशी मुद्रा की जरूरत होगी.
भारत में दलहन की खेती इसलिए भी फायदेमंद है क्योंकि यहां पर सिंचाई के लिए पर्याप्त सुविधा उलपब्ध नहीं है, जबकि दलहनी फसलों के लिए अधिक पानी की जरुरत नहीं है. इस लिहाज से इसकी खेती किसानों के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है. कम सिंचित क्षेत्रों में भी दलहन की खेती सफलतापूर्व की जा सकती है. इसके अलावा इसकी खेती से खेत की मिट्टी का स्वास्थ्य भी सुधरता है. इसलिए दलहनी फसलों का महत्व बढ़ जाता है.
दलहन की खेती को मिल रहा बढ़ावा
हालांकि कुछ वक्त पहले तक किसान दलहनी फसलों की खेती नहीं कर रहे थे क्योंकि उन्हें अच्छे दाम नहीं मिल पा रहा था. दलहनी फसलों का क्षेत्रफल भी घट रहा था. लाभ नहीं होने के कारण किसान ध्यान भी नहीं दे रहे थे पर सरकार के प्रयासों से अब इसकी खेती को बढ़ावा मिल रहा है. फसल सुरक्षा को बढ़ाव दिया जा रहा है. देश के कृषि वैज्ञानिकों के प्रयासे से कम अवधि की फसलों की नयी किस्म विकिसित की गई है. इसके अलावा अब अच्छे दाम भी मिल रहे हैं. इसके साथ ही अब सरकार के प्रयास से एक बार फिर से दलहनी फसलों का रकबा बढ़ा है. इसके साथ ही उत्पादन बढकर 15 मिलियन टन से बढ़कर 25 मिलियन टन हो गया है.
दलहनी फसलों में कीट का प्रकोप
दलहनी फसलों में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है, इसलिए इसमें कीट और रोग का प्रभाव अधिक होता है. दलहनी फसलों में रोग के कारण 20 प्रतिशत का नुकसान होता है,जबकि कीट के कारण 25 फीसदी प्रतिशत तक उत्पादन कम हो जाता है. वहीं फली छेदक नामक कीट के प्रभाव के कारण दलहनी फसलों को 70 फीसदी तक नुकसान होता है. इसलिए दलहनी फसलों में रोग और कीट को नियंत्रिंत करना बेहद जरूरी हो जाता है.
चना में लगने वाले रोग
चना में मुख्य रुप से तीन प्रकार के कीट का प्रकोप होता है. काइट अर्ली ब्लाइट, जड़ गलन और उकठा. अर्ली ब्लाइट में चने के पत्ते में पहले भूरा धब्बा होता है इसके बाद पत्ते सूखने लगते हैं, फिर पूरा पौधा सूख जाता है. दूसरा रोग है जड़ गलन, इसमें पौधा सूख जाता है. चने में लगने वाला तीसरा रोग उकठा होता है, इसे विल्ट भी कहा जाता है. इस बीमारी के लगने के बाद यह दवा से भी जल्द नियंत्रित नहीं होता है. इसके कारण कभी कभी 100 फीसदी नुकसान हो जाता है.
रोग से बचाव का तरीका
इस रोग से पौधों को बचाने के लिए जीनेब और मैकोजेब फंगीसाइड को दो किलोग्राम प्रति हेक्टेयर 500-600 पानी के घोल में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए. इसके अलावा जड़ गलन और उकठा रोग से बचाव के लिए बीद शोधन और मिट्टी का शोधन करना चाहिए. बीज शोधन करने के थीरम का दो भाग और एक भाग कार्बेंडाजिम का एक भाग मिलाकर एक किलो बीज का शोधन कर सकते हैं. इसके अलावा उकठा रोग के लिए ट्राइकोडर्मा पांच ग्राम प्रति से प्रति किलो बीज का शोधन कर सकते हैं. मिट्टी का शोधन इसिलिए जरूरी है कि अगर रोग मिट्टी में होगा तो बीज में आ जाएगा, इसलिए मिट्टी का शोधन भी जरूरी है. मिट्टी का शोधन करने के लिए ट्राइकोड्मा पाउडर प्रति हेक्टेयर 60 से 70 किलोग्राम गोबर में पानी मिलाकर रख सकते, इसके बाद इसे सूखने के बाद बीज की बुवाई करते समय खेत में इसका इस्तेमाल करें.
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