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By: divyahimachal हिमाचल में विकास को तरसती आंखें आज भी अनिश्चय के संदर्भों में उलझी हैं। जब फोरलेन प्रोजेक्ट ने मंडी का सफर तय किया, लोगों ने जमीन पर बारूद उगा दिया और अब कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार के सामने विस्फोट के तौर तरीके बिछा कर सवाल किए जा रहे हैं। लोग तरक्की की फसल काटना …
By: divyahimachal
हिमाचल में विकास को तरसती आंखें आज भी अनिश्चय के संदर्भों में उलझी हैं। जब फोरलेन प्रोजेक्ट ने मंडी का सफर तय किया, लोगों ने जमीन पर बारूद उगा दिया और अब कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार के सामने विस्फोट के तौर तरीके बिछा कर सवाल किए जा रहे हैं। लोग तरक्की की फसल काटना चाहते हैं, लेकिन जमीन पर पांव धरने की इजाजत नहीं देते। उन्हें घर की गली तक वाहन चलाने योग्य सडक़ चाहिए, लेकिन अपनी दो इंच जमीन देना गंवारा नहीं। उन्हें चौबीस घंटे पानी और बिजली की आपूर्ति चाहिए, लेकिन न घर के सामने कोई पोल और न ही जमीन से पानी के पाइप गुजरने की मंजूरी देते। लैंड सीलिंग एक्ट ने कई समाज बना दिए।
एक वे जो लघु जमींदार थे, उनसे छीनकर जमीन ने एक नए समाज की पैमाइश कर ली। दूसरे वे जिनकी जमीन पर बागीचे खड़े थे, वे अपनी संपत्ति के पूरी तरह मालिक बने रहे। मुजारों में बंटी जमीनों की बोली लगी और मुफ्त के दालान में कृषि योग्य जमीन का मोल तय हो गया। अब जन सुनवाई के मोर्चे पर दलीलें विकास पर इस कद्र भारी हैं कि हिमाचल सिर्फ गुजारे लायक तर्क और मंच के लायक घोषणाएं चुन सकता है। विकास की अपेक्षा में समाज यूं तो राजनीति की चटनी पीस-पीस कर हर बार सत्ता के आशियाने और विपक्ष के खजाने बदल देता है, लेकिन हर सरकार की लागत बढ़ाकर समाज के भीतर सिर्फ फायदे चुनने की तासीर ही पैदा हो रही है। इसी के साथ सामाजिक मंशा में एक स्वघोषित और सियासत से पोषित अतिक्रमण भी है।
ऐसा कोई गांव नहीं जहां की सार्वजनिक जमीन पर डाका न पड़ा हो। ऐसा कोई शहर नहीं जहां की संपत्तियों पर कब्जाधारी न हों। जो समाज कूहलें, खड्डें व नाले चुरा सकता हो, उससे सार्वजनिक विकास की उम्मीद करना भी हराम है। ऐसा तब भी हुआ था जब धूमल सरकार ने एविएशन से जुड़ा एसईजेड ऊना में विकसित करके एक बड़े हवाई अड्डे की परिकल्पना की थी। यह इसलिए क्योंकि वहां की सार्वजनिक जमीनों पर अतिक्रमणकारी पनप चुके थे।
कांगड़ा एयरपोर्ट के विस्तार के भीतर कितनी सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण, कितनी कूहलों और रास्तों की बर्बादी और कितनी लैंड सीलिंग एक्ट से मिली जमीन बिकी है, इसका हिसाब लगाया जाए तो गगल कस्बे में कितने ही एकड़ सार्वजनिक भूमि निकल आएगी। एक सर्वेक्षण यह कर लें कि प्रस्तावित एयरपोर्ट की जमीन में कितने बंजर खेत, कितने नए भवन, कितने आवारा पशु और इस इलाके के बाजारों में कितना स्थानीय अनाज बिकता है। हैरानी यह कि हिमाचल में अब कोई ऐेसी भूमि नहीं जो हमें भरपेट खिला सके। एयरपोर्ट विस्तार के भीतर खड़ी दुकानों में बाहरी राज्यों से आई दूध की थैलियां, आटे और चावल की बोरियां और तेल की बोतलें बताती हैं कि अब एक दिन बाहरी राज्यों से आपूर्ति न हो तो सारे चूल्हे ठंडे हो जाएंगे।
इतना ही नहीं, एयरपोर्ट विस्तार के क्षेत्र में सरकारी व अन्य रोजगार का विश्लेषण करें ताकि मालूम हो कि अब हल की जोत कितनी बची है। बेशक कांगड़ा एयरपोर्ट पुनर्वास के मानक एक नया अध्याय जोडऩा चाहते हैं। पुनर्वास की बेहतर तस्वीर के तहत काम के बदले काम, व्यापार के बदले व्यापार और आवास के बदले आवास मिलना चाहिए, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि सामाजिक सौदेबाजी में विकास का अर्थ गुम हो जाए। बेशक कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार की रूपरेखा में आ रहे व्यापारिक संस्थानों को भविष्य की चिंता है, लेकिन इन कस्बों में सडक़ों को निगल चुके वाहनों या बाजारों तक बिछ गए दुकान के सामान ने कौनसा सदाचार पैदा किया है। बहरहाल जन सुनवाई के शोर में विकास मुजरिम है, सरहद के हिसाब से हर पैमाइश दुश्मन है।
विकास दुश्मन है, अगर इसकी जरूरत हमारे आंगन की मिट्टी से मुलाकात करे। विकास दुश्मन है, अगर इसकी बात जंगलात महकमे से करें। बावजूद इसके सुक्खू सरकार ने कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार के मायनों में पुनर्वास की सारी खिड़कियां खोली हैं। बेहतर यह होगा कि कांगड़ा एयरपोर्ट पुनर्वास को कांगड़ा पर्यटन राजधानी के अंतर्गत जगह, जिरह और धंधा दिया जाए। एयरपोर्ट के चारों ओर अगर कोरिडोर बनाकर व्यापार संवर्धन की अधोसंरचना पैदा की जाए, तो कहीं ट्रांसपोर्ट नगर, कहीं पर्यटन गांव, कहीं फर्नीचर बाजार, तो कहीं भविष्य की मार्किट बसाई जा सकती है।