इस्लामाबाद। पाकिस्तान में आम चुनाव टलने के आसार दिखाई दे रहे हैं, इसकी वजह डिजिटल जनगणना को बताया जा रहा है। पीएम शहबाज की मानें तो अभी डिजिटल जनगणना हो रही है, इसके बाद ही चुनाव होंगे। इस तरह से चुनाव एक साल पीछे जा सकते हैं। हालांकि सरकार 90 दिनों के भीतर चुनाव कराने के लिए एक अंतरिम व्यवस्था लाने की तैयारी कर रही है, लेकिन इस बीच प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने चुनाव में देरी का संकेत दिया है, जिससे उनके गठबंधन सहयोगियों के बीच दरार पैदा हो गई है। विभिन्न सोशल मीडिया पोस्ट में शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) पार्टी और उसके प्रमुख गठबंधन सहयोगी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के बीच बातचीत और बंद दरवाजे के भीतर परामर्श की कमी को उजागर कर रही है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि चुनाव केवल 2023 की डिजिटल जनगणना के आधार पर होंगे, जो आठ महीने से एक साल के बीच की देरी की ओर इशारा करता है। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि हमें नई जनगणना के आधार पर चुनाव कराने होंगे। जब जनगणना हो जाएगी, तो उसके आधार पर चुनाव होने चाहिए, जब तक कि कोई ऐसी बाधा न हो जिसे दूर न किया जा सके। लेकिन मुझे ऐसी कोई बाधा नजर नहीं आती।
पाक पीएम शरीफ की टिप्पणियों ने व्यापक बहस छेड़ दी है। क्योंकि पीपीपी ने स्पष्ट कर दिया है कि वह ऐसे किसी भी फैसले का समर्थन नहीं करेगी जिसके परिणामस्वरूप चुनाव में देरी हो। पीपीपी के वरिष्ठ नेता नवाज मुहम्मद यूसुफ तालपुर ने कहा कि पार्टी ने पहले ही इस विषय पर एक रुख अपना लिया है। नए परिसीमन से आम चुनाव कराने में देरी होगी और इस कारण से पार्टी ने इसका विरोध किया है। पीपीपी सूचना सचिव फैसल करीम कुंडी ने कहा कि सैद्धांतिक रूप से नए सिरे से परिसीमन के लिए चार महीने की आवश्यकता होगी, लेकिन वास्तव में, इसमें आठ महीने या एक साल तक का समय लग सकता है। इस बीच, मुताहिदा कौमी मूवमेंट-पाकिस्तान (एमक्यूएम-पी) ने भी पुरानी जनगणना के आधार पर चुनाव कराने के फैसले का विरोध किया है।
इस मामले में एमक्यूएम-पी के वरिष्ठ नेता मुस्तफा कमाल ने कहा कि हम पहले ही इस मामले को प्रधानमंत्री के समक्ष उठा चुके हैं। हमारा मानना है कि चुनाव केवल नए परिसीमन के अनुसार होने चाहिए, जो डिजिटल जनगणना के बाद ही संभव है। उन्होंने कहा कि अगर सरकार पुरानी जनगणना के अनुसार चुनाव कराती है, तो इससे लाखों लोग मतदान के अधिकार से वंचित हो जाएंगे। राजनीतिक नेताओं द्वारा सार्वजनिक मंचों और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर खुले बयान गठबंधन दलों के बीच अलगाव और संचार की कमी को उजागर करते हैं।