रूजवेल्ट ने साम्राज्यवादियों को यह चेतावनी दी

Update: 2023-07-24 08:54 GMT

हिंदुस्तान के साथ संबंधों को लेकर अमेरिका की उम्मीदें – कि यह चीन और रूस के विरूद्ध एक सुरक्षा कवच बनेगा – 1947 से 2023 तक एक पूर्ण चक्र में आ गया है और आखिरकार वाशिंगटन और नयी दिल्ली के बीच सहमति बन गई है. हमेशा की तरह, भारत-अमेरिका संबंध एशियाई देश की आजादी से पहले से लेकर अब तक अस्पष्टता में डूबे हुए हैं, जब दोनों लोकतंत्र एक साथ करीब आते दिख रहे हैं.

लेकिन ग्लोबल पॉलिटिक्स के अलावा, शायद सबसे जरूरी घटनाक्रम भारतीय विरासत की एक शख्सियत कमला हैरिस का अमेरिका में दूसरे सर्वोच्च पद पर आसीन होना है – ऐसा कुछ, जो अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट, जिन्होंने हिंदुस्तान को औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त कराने के लिए आधारशिला रखी थी, ने सपने में भी नहीं सोचा होगा. अमेरिका के साथ आधुनिक हिंदुस्तान के संबंधों का पता रूजवेल्ट द्वारा ब्रिटिश प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल, कट्टर नस्लवादी उपनिवेशवादी को 1941 के अटलांटिक चार्टर पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश करने से लगाया जा सकता है, जिसमें आत्मनिर्णय के एक खंड के साथ उपनिवेशों के लिए स्वतंत्रता का वादा किया गया था.

रूजवेल्ट ने साम्राज्यवादियों को चेतावनी दी थी

कहा जाता है कि रूजवेल्ट ने साम्राज्यवादियों को चेतावनी देते हुए बोला था, “अमेरिका इस युद्ध में इंग्लैंड की सहायता केवल इसलिए नहीं करेगा ताकि वह औपनिवेशिक लोगों पर अत्याचार करना जारी रख सके.” फिर भी, रूजवेल्ट, जिन्होंने ब्रिटिश और हिंदुस्तान के स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं के बीच एक दूत की मध्यस्थता करने की असफल प्रयास की, चर्चिल को इसे लागू करने के लिए विवश नहीं कर सके जब तक कि द्वितीय विश्‍वयुद्ध जारी था.अंततः रूजवेल्ट का विचार प्रबल हुआ और उनके दोनों उत्तराधिकारियों, अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन और ब्रिटिश प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली के अनुसार हिंदुस्तान स्वतंत्र हो गया.

ट्रूमैन को लोकतांत्रिक हिंदुस्तान से बहुत उम्मीदें थीं और उन्होंने तत्कालीन पीएम जवाहरलाल नेहरू को लंदन से लाने के लिए अपना विमान भेजा था और आगमन पर उनका स्वागत करने के लिए अपने रास्ते से हट गए और 1941 में उनका स्वागत किया था. लेकिन चीन ने हस्तक्षेप किया. शीतयुद्ध के साथ दोनों नेता चीन पर निर्भर थे – ट्रूमैन ताइवान का समर्थन कर रहे थे, फिर संयुक्त देश में चीन को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी और कम्युनिस्ट बीजिंग के विरूद्ध खड़े थे, और चाहते थे कि नेहरू, जो माओत्से तुंग के पीछे थे, पाला बदल लें. यह दोनों राष्ट्रों के बीच दरार का पहला प्रत्यक्ष संकेत था फिर भी लगभग तीन-चौथाई सदी के बाद यह चीन ही है जो उन्हें करीब ला रहा है.

ट्रूमैन के राज्य सचिव डीन एचेसन ने नेहरू को “सबसे मुश्किल व्यक्तियों में से एक” घोषित किया. यात्रा के कुछ ही समय बाद नेहरू ने और अधिक मजबूती से गुटों के साथ गठबंधन न करने की नीति की घोषणा की, जो बाद में गुटनिरपेक्षता की अवधारणा बन गई. एक वर्ष बाद प्रारम्भ हुए कोरियाई युद्ध में जब अमेरिका और बीजिंग की सेनाएं भिड़ीं, तो हिंदुस्तान तटस्थ रहा, जिससे वाशिंगटन को बहुत निराशा हुई. लेकिन अमेरिका ने हिंदुस्तान के लिए आर्थिक सहायता जारी रखी और 1951 में, जब हिंदुस्तान को गंभीर भोजन की कमी का सामना करना पड़ा, ट्रूमैन ने हिंदुस्तान इमरजेंसी खाद्य सहायता अधिनियम को आगे बढ़ाया.

नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की अपनी बयानबाजी तेज कर दी

वैचारिक कोहरे में घिरे नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की अपनी बयानबाजी तेज कर दी, जिसे वास्तव में पश्चिम की आलोचना के रूप में माना गया. वाशिंगटन के साथ कमजोर संबंध नेहरू और युद्धकालीन जनरल राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर के बीच संबंधों में थोड़ी गर्माहट के साथ जारी रहे, जिन्होंने अपने संस्मरण में नेहरू के प्रति सम्मान व्यक्त किया था. 1959 में आइजनहावर हिंदुस्तान का दौरा करने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बने.

इस बीच, पाक अमेरिका के करीब आ गया था, दो अब खत्म हो चुके रक्षा समूहों, सीटो और सेंटो में शामिल हो गया था, और अमेरिका से सेना रूप से लाभान्वित हुआ था. 1962 में भारत-चीन युद्ध ने नेहरू को वास्तविकता से झकझोर दिया और उन्होंने अस्थायी रूप से गुटनिरपेक्षता का मुखौटा त्यागकर राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी से अमेरिकी सेना सहायता मांगी, जो उन्हें प्राप्त हुई.

सोवियत संघ, जो चीन से अलग हो गया था, ने हिंदुस्तान को हथियारों की आपूर्ति प्रारम्भ कर दी, विशेष रूप से एमआईजी 21 लड़ाकू विमानों की, हालांकि आपूर्ति युद्ध के बाद प्रारम्भ हुई, जिससे उनके बीच गहरे संबंधों का बीजारोपण हुआ. कैनेडी प्रशासन ने प्रारम्भ में बोकारो में एक विशाल राज्य के स्वामित्व वाले इस्पात संयंत्र की स्थापना के लिए नेहरू के निवेदन का समर्थन किया, लेकिन एक समाजवादी परियोजना के रूप में देखे जाने पर इसे सियासी विरोध का सामना करना पड़ा. मॉस्को ने हिंदुस्तान को इस्पात संयंत्र स्थापित करने में सहायता करने के लिए कदम बढ़ाया और दोनों राष्ट्रों के बीच संबंधों को और गहरा किया.

1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान वाशिंगटन की मूल्य पर इसे और मजबूत किया गया, जब इस्लामाबाद ने हिंदुस्तान पर उन्नत अमेरिकी हथियार फेंके, जो ज्यादातर सोवियत और पुराने ब्रिटिश हथियारों का इस्तेमाल कर रहे थे. फिर भी, जब हिंदुस्तान पर अकाल का खतरा मंडराने लगा, तो राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने 1966 में हिंदुस्तान को खाद्य सहायता भेज दी, साथ ही कृषि में सुधार और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की आलोचना को कम करने के वादे भी किए.

भारत और अमेरिका पहले से ही कृषि विकास में योगदान कर रहे थे और संभवतः भारत-अमेरिका योगदान में यह सबसे बड़ी उपलब्धि थी, जिसने कुछ ही सालों में हरित क्रांति के माध्यम से हिंदुस्तान को खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल करने में सहायता की और इसे दुनिया के अन्न भंडारों में से एक बना दिया. 1971 का बांग्लादेश का स्वतंत्रता संग्राम नयी दिल्ली-वाशिंगटन संबंधों में सबसे खराब स्थिति है. युद्ध से एक महीने पहले, तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने वाशिंगटन का दौरा किया और राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से मुलाकात की और तत्कालीन पूर्वी पाक पर पाकिस्तानी सेना कार्रवाई को कम करने के लिए सहायता मांगी थी.

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