हरियाली की रखवाली के लिए सजगता का पर्व है हरेला

आज हरेला है। हरियाली की रखवाली के उत्तरदायित्व के प्रति हमें सजग करने का दिन। हमारे ऋषि, मुनियों और पूर्वजों ने मानव जाति की संस्कृति और प्रकृति को एक दूसरे का पूरक बताया।

Update: 2022-07-16 03:55 GMT

आज हरेला है। हरियाली की रखवाली के उत्तरदायित्व के प्रति हमें सजग करने का दिन। हमारे ऋषि, मुनियों और पूर्वजों ने मानव जाति की संस्कृति और प्रकृति को एक दूसरे का पूरक बताया। सम्पूर्ण विश्व इस जीवन शैली को भारतीय जीवन शैली के रूप में जानता है। हमारे दूरदृष्टा पूर्वजों ने एक ऐसे जीवन दर्शन की व्याख्या की जो प्रकृति पूजक था।

वनस्पति पर इस प्रकार आस्था प्रकट की गई है- पत्रे-पत्रे तु देवानां वृक्षराज नमोस्तुते। पत्ते पत्ते पर देवताओं की उपस्थिति! यह वृक्ष के प्रति श्रद्धा का चरम बिन्दु है। पर्यावरण की महत्ता को समझते हुये वृक्षों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। वृक्ष को पूजने की हमारी सांस्कृतिक मान्यता पर्यावरण संरक्षण का ही आधार लिये हुये है। समय के साथ परिवर्तन हुआ, आज मनुष्य ने प्रकृति को अपने उपयोग की वस्तु समझ लिया है।

लोग असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति एवं वातावरण से मनमाना व्यवहार करते चले जा रहे हैं। इस युग में कल और अर्थ दोनों का ही सर्वोच्च महत्व है। मनुष्य पर्यावरणीय संस्कार के अभाव में प्रकृति का विनाश कर रहा है। हमारी यह धरा तभी सुरक्षित रह पायेगी जब हमारा पर्यावरण संरक्षित होगा। प्रकृति के इस महत्त्व को समझ कर हरेला जैसे पर्व को अपनाया गया, ताकि हम सभी पर्यावरण बचाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें। हरेला पर्व हमारे पूर्वजों की आध्यात्मिक और वैज्ञानिक सोच का द्योतक है।

आज भारत का दक्षिण मध्य क्षेत्र और पश्चिम क्षेत्र किस प्रकार इस आफत से जूझ रहा है। विश्व में हो रहे विभिन्न पर्यावरण सम्मेलनों में उभरी चिंताओं का समाधान भी हरेला महोत्सव में दिखता है। उत्तराखंड राज्य का लोकपर्व हरेला आज के दौर में दुनिया को प्राकृतिक असंतुलन से निपटने की राह दिखा सकता है। (लेखक आरएसएस के ब्रज प्रांत प्रचारक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)


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