पितृ पक्ष शुरू हो गए हैं। पूर्वजों के नाम से तर्पण-श्राद्ध और दान पुण्य का सिलसिला चल पड़ा है। इस बीच कुछ बुजुर्ग ऐसे भी हैं जिन्हें जीते-जी अपनी संतान से सम्मान और सुख प्राप्त नहीं हो रहा। परिवार होने के बावजूद वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर हैं। हर माता-पिता का सपना होता है कि उसकी पहचान अपने बच्चों के नाम से हो। मगर, अपनों से दूर रामलाल वृद्धाश्रम में जिंदगी बिता रहे कई बुजुर्गों की आंखों के आंसू उनकी दर्दभरी कहानी बयान कर रहे हैं।
ऐसी भी संतानें हैं जो वृद्धाश्रम के रजिस्ट्रेशन फार्म में खुद को पड़ोसी लिखकर अपने माता-पिता को छोड़कर चली गईं। किसी ने फॉर्म में लिख दिया कि अब इनके परिवार में कोई नहीं है तो किसी ने हदें पार कर जीते-जी माता-पिता का पिंड दान करने की बात तक लिख डाली। पितृ पक्ष में एक तरफ लोग अपने पूर्वजों का तर्पण कर रहे हैं तो वहीं ऐसे भी लोग हैं जो आश्रम में रह रहे अपने बुजुर्गों से मिलने तक नहीं आते।
विजेंद्र सिंह ने बताया कि 'मेरे तीन बेटे हैं। 2 बेटों के लिए जूते की फैक्ट्री खुलवा दी। बंटवारा होते ही बच्चों ने हम पति-पत्नी का भी बंटवारा कर दिया। बड़े बेटे के साथ मेरी पत्नी और मझले बेटे के साथ मुझे छोड़ दिया। पत्नी से अलग रहते हुए 7 साल से ज्यादा हो गए। बेटा मुझे खाने को भी नहीं देता था। इसलिए खुद ही आश्रम आ गया।'
सीमा देवी का कहना है कि 'हम से कोई अपना हमारा हाल भी नहीं पूछता। पति डॉक्टर थे तो बेटे को भी डॉक्टर बनाने का सपना था। डॉक्टर बेटे ने घर में रखने से इंकार कर दिया, जिस कारण आश्रम में रहकर गुजर बसर करना पड़ रहा है।'
रेखा देवी ने बताया कि 'संतान की खुशहाली के लिए क्या कुछ नहीं किया। बच्चे बड़े होने पर बेटियों की शादी कर दी। इसके बाद जो हुआ उसकी मुझे उम्मीद भी नहीं थी। बेटे ने मारना-पीटना शुरू कर दिया। इस वजह से आश्रम में आ गई। यहां कोई मिलने तक नहीं आता।'
रामलाल वृद्धाश्रम के अध्यक्ष शिवप्रसाद शर्मा ने बताया कि 'बेटे खुद अपने माता-पिता को गेट पर छोड़ जाते हैं और उन्हें रोककर पूछने की कोशिश करते हैं तो पड़ोसी या कुछ और बताकर चले जाते हैं। बहुत से ऐसे लोग भी आते हैं जो रजिस्ट्रेशन फॉर्म में अपने माता-पिता को रास्ते पर मिले बुजुर्ग लिखकर चले गए।'