1998 में भर्ती बोर्ड, 2016 में बना था आयोग, कर्मचारी चयन आयोग का खेल 25 साल में खत्म
शिमला
हमीरपुर कर्मचारी चयन आयोग का खेल 25 साल में ही खत्म हो गया। क्लास थ्री की भर्तियों के लिए इसे अधीनस्थ सेवाएं चयन बोर्ड के रूप में वर्ष 1998 में क्रिएट किया गया था। इसके बाद 2016 में इसे अपग्रेड कर आयोग बनाया गया, लेकिन पेपर लीक के दाग ने इतने साल आयोग में हुए अच्छे काम को भी जीरो कर दिया। जूनियर ऑफिस असिस्टेंट का पेपर लीक होने के बाद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने आयोग को भंग कर दिया है और इसका काम अब लोक सेवा आयोग को दिया जा रहा है। हालांकि राज्य सरकार इस फैसले को लोक सेवा आयोग पर थोप नहीं सकेगी। इसका अर्थ यह हुआ कि कार्मिक विभाग अब राज्य सरकार के आदेश के मुताबिक लोक सेवा आयोग से कंसल्टेशन करेगा और यह रेफरेंस लोक सेवा आयोग के फुल कमीशन में लगाया जाएगा। फुल कमीशन में जो फैसला होगा, उसी के अनुसार अगला कदम उठाया जाएगा।
राज्य सरकार ने हमीरपुर कर्मचारी चयन आयोग को एक एग्जीक्यूटिव ऑर्डर के तहत छह अक्तूबर, 1998 में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 162 और नियम 309 के तहत खोला था। तब यह अधीनस्थ सेवाएं चयन बोर्ड के रूप में शुरू हुआ था। इसलिए यह लोक सेवा आयोग की तरह एक संवैधानिक बॉडी नहीं है। 10 मई, 2016 को बोर्ड को अपग्रेड किया गया और इसमें से अधीनस्थ यानी सब-ऑर्डिनेट शब्द को हटाकर इसे चयन आयोग बना दिया गया। अब राज्य सरकार ने इसे भंग करने का फैसला किया है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने पहले ही निर्देश दे दिए थे कि यदि आयोग भंग भी नहीं होता है तो भी इसमें नियुक्त कर्मचारियों का स्टेट काडर होना चाहिए, ताकि इन्हें बदला जा सके। आयोग में नियुक्त कर्मचारियों की भर्ती सिर्फ आयोग के लिए हुई है, इसलिए इन्हें स्टेट काडर में डालना संभव नहीं था। आयोग को भंग करने के बाद इन्हें रिजर्व पूल में डाला गया है और इन्हें नया विभाग चुनने का विकल्प दिया जाएगा।
एक बार वीरभद्र सिंह भी लेना चाहते थे यह फैसला
अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड में जब भाजपा की धूमल सरकार के दौरान एसएम कटवाल को चेयरमैन लगाया गया था, तब भर्ती संबंधी कई विवाद हुए थे। चिटों पर भर्ती के आरोप भी लगे थे। कांग्रेस की चार्जशीट में यह केस आने के बाद जब वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने तो वह भी अधीनस्थ सेवाएं चयन बोर्ड हमीरपुर को बंद करना चाहते थे, लेकिन तब भर्ती के काम और अन्य मजबूरियों के चलते यह फैसला नहीं हो पाया था, लेकिन पेपर लीक के मामले के सामने आने के बाद सुखविंदर सुक्खू ने यह फैसला ले लिया।