कृषि के साथ बकरी और मुर्गीपालन की गतिविधि बदली

छत्तीसगढ़

Update: 2022-03-10 12:26 GMT

रायपुर। सामान्य सा आदिवासी कृषक परिवार अब परिवार की महिला के सूझबूझ और मेहनत से बकरी पालन के नए व्यवसाय में महात्मा गांधी नरेगा की मदद से आगे बेहतर भविष्य की राह में आगे बढ़ रहा है। एक आदिवासी परिवार की महिला सदस्य के लिए यह एक स्वरोजगार की तरह स्थापित हो रहा है। परिवार की महिला सदस्य श्रीमती जयकुमारी ने बीते छह माह में ही बकरियों को बेचकर 60 हजार रूपए का आर्थिक लाभ प्राप्त कर लिया है।

कोरिया जिले के सोनहत वनांचल के ग्राम कुशहा में रहने वाले सोनवंशी परिवार के लिए कृषि आजीविका का मुख्य साधन रहा है और खेती बाड़ी के अलावा परंपरागत रूप से बकरी पालन का काम परिवार करता रहा है। आज से एक साल पहले तक इस परिवार के लिए बकरी पालन सामान्य कार्य ही था पर अब यह जयकुमारी और उनके परिवार के लिए सुदृढ़ आमदनी के व्यवसाय में बदल रहा है। मुस्कुराते हुए जयकुमारी कहती हैं कि अब रोजगार की कोई चिंता नहीं है इसी काम को और आगे बढ़ाना है।

यह पूरी कहानी एक आदिवासी किसान परिवार की है जिसके पास संसाधन ना होने से वह चाहकर भी अपने लिए कुछ ज्यादा बेहतर नहीं कर पा रहे थे। ग्राम नवगई से आई हुई श्रीमती जयकुमारी ने बारहवीं तक की शिक्षा प्राप्त की है। विवाह के बाद वर्ष 2017 में इन्होने गांव में बिहान टीम के प्रेरणा से समूह के सदस्य के रूप में अपना काम प्रारंभ किया। इसके साथ ही मनरेगा के एक पढे़ लिखे अकुशल श्रमिक होने के कारण उन्हे ग्राम पंचायत ने मनरेगा के लिए मेट का दायित्व भी दिया।
महामाया स्व सहायता समूह की लेखापाल बन चुकी जयकुमारी कहती हैं कि अपना काम करना चाहती थी इसलिए घर में ही परंपरागत खेती के साथ बकरी और मुर्गीपालन को प्रारंभ किया। पहले जगह ना होने के कारण उन्हे बड़ी संख्या में बकरी रखने में दिक्कत होती थी। इसलिए महात्मा गांधी नरेगा के अंर्तगत बकरीपालन आश्रय स्थल बनाने के लिए ग्राम पंचायत में एक आवेदन दिया। जयकुमारी बतलाती हैं कि राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन बिहान में जुडकर महामाया समूह में काम करते हुए दो साल पहले गांव के साप्ताहिक बाजार का ठेका प्राप्त हो गया था।
इससे भी इनको अच्छी आय प्राप्त हुई। जिसे इन्होने बचाकर रखा था। इसके बाद जब वर्ष 2020-21 में इनके लिए बकरीपालन आश्रय स्थल प्राप्त हुआ तो इन्होने अपने बचत की राषि लगभग 35 हजार रूपए और लगाकर इस शेड को बड़े आकार का बनवा लिया। जनवरी में प्रारंभ हुआ यह कार्य अप्रैल माह में पूरा हो गया। इसमें काम करने से इस परिवार को लगभग दस हजार रूपए की मजदूरी की राशि भी प्राप्त हुई। जयकुमारी ने बताया कि इनके पास आश्रय स्थल बनने के पहले बीते साल तक चार-पांच बकरे बकरियां थे।
इसके बाद पक्का आश्रय स्थल होने से व्यवस्थित बकरी पालन के व्यवसाय से ही अब तक कुल 12 बकरियां बेचकर 60 हजार रूपए से ज्यादा का आर्थिक लाभ हो चुका है। इसके अलावा इन्होने लगभग 100 से ज्यादा देषी मुर्गियां भी पाल रखी हैं। जिसे यह घरेलू आवष्यकताओं के अनुसार दो-चार की संख्या में बेचती रहती हैं। इससे इनके परिवार को प्रतिमाह सात से आठ हजार रूपए की अतिरिक्त आमदनी हो जाती है। जयकुमारी ने बताया कि गांव के गौठान में भी यह समूह के माध्यम से अपने साथियों के साथ मिलकर बड़ी संख्या में मुर्गीपालन का काम भी प्रारंभ कर चुकी हैं।
कुल मिलाकर जहां चाह वहां राह की तर्ज पर बारहवीं तक पढ़ी लिखी 26 वर्षीया जयकुमारी अपने दृढ़ इच्छाषक्ति और मेहनत से किए गए स्वरोजगार से आदिवासी परिवारों में महिलाओं के स्वालंबन की नई कहानी लिख रही हैं। इन्हे महात्मा गांधी नरेगा और बिहान की मदद से संसाधन बनाने में मदद मिल गई और अब इनका खुद का बेहतर कमाई का एक स्थायी साधन मिल चुका है और अब गांव के लोग इनके कार्य को देखकर बकरियों और मुर्गी के पालन को व्यवसायिक रूप देने के लिए प्रोत्साहित हो रहे हैं।

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