जाने कैसे करना है टीबी को ख़त्म

Update: 2023-04-28 11:20 GMT
टीबी अब भी है एक भयावह बीमारी
दुनिया की लगभग एक चौथाई आबादी अप्रकट रूप से टीबी से संक्रमित है. इसका मतलब है कि उनमें टीबी के बैक्टीरिया निष्क्रिय रूप से मौजूद हैं, पर वो बीमार नहीं हैं और दूसरों को इस बीमारी से संक्रमित नहीं करते. निष्क्रिय रूप से मौजूद टीबी वाले लोगों को अपने जीवन में इस बीमारी के पनपने का 5 से 10 फ़ीसदी तक ख़तरा होता है. इसमें हम उन लोगों को ले सकते हैं, जिन्हें कभी युवा अवस्था में तो कई बार अपने जीवन के अंतिम पड़ाव यानी वृद्धावस्था में टीबी का संक्रमण हो जाता है. आंकड़ों के मुताबिक हर वर्ष करीब 20 लाख लोग टीबी से ग्रसित होते हैं. पूरे विश्व की यदि हम बात करें तो टीबी के दो तिहाई मामले दुनिया के आठ देशों में मौजूद हैं, भारत (27 फ़ीसदी) के साथ पहले स्थान पर है. चीन (9 फ़ीसदी), इंडोनेशिया (8 फ़ीसदी), फिलिपींस (6 फ़ीसदी), पाकिस्तान (6 फ़ीसदी), नाइजीरिया (4 फ़ीसदी), बांग्लादेश (4 फ़ीसदी) और दक्षिण अफ़्रीका (3 फ़ीसदी) लोग इससे ग्रस्त हैं. इस तरह पूरी दुनिया के अनुमानित मामलों के लगभग आधे मरीज़ों के साथ भारत पर टीबी के रोगियों का सबसे अधिक बोझ है. भारत में 2015 में इस बीमारी के 28 लाख मामले सामने आए थे. जिनमें से करीब 4.8 लाख लोगों की मौत हो गई थी. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, देश में हर साल लगभग 30 लाख नए टीबी के मामले दर्ज किए जाते हैं, इस बीमारी से हर साल क़रीब चार लाख भारतीयों की मौत होती है और इससे निबटने में सरकार सालाना लगभग 24 बिलियन डॉलर यानी लगभग 17 लाख करोड़ रुपये खर्च करती है.
कैसे फैलता है टीबी का संक्रमण?
टीबी यानी ट्यूबरक्‍युलोसिस बैक्टीरिया से होनेवाली बीमारी है. सबसे कॉमन फेफड़ों का टीबी है और यह हवा के जरिए एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलती है. मरीज के खांसने और छींकने के दौरान मुंह-नाक से निकलने वाली बारीक़ बूंदें इन्हें फैलाती हैं. ऐसे में मरीज के बहुत पास बैठकर बात की जाए तो भी इन्फेक्शन हो सकता है. फेफड़ों के अलावा ब्रेन, यूटरस, मुंह, लिवर, किडनी, गले आदि में भी टीबी हो सकती है. फेफड़ों के अलावा दूसरी कोई टीबी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलती है. टीबी खतरनाक इसलिए है क्योंकि यह शरीर के जिस हिस्से में होती है, सही इलाज न हो तो उसे बेकार कर देती है. फेफड़ों की टीबी फेफड़ों को धीरे-धीरे बेकार कर देती है तो ब्रेन की टीबी में मरीज को दौरे पड़ते हैं तो हड्डी की टीबी, हड्डी को गला सकती है. अगर टीबी का समय रहते उपचार ना कराया जाए तो यह किडनी, पेल्विक, डिम्ब वाही नलियों या फैलोपियन ट्यूब्स, गर्भाशय और मस्तिष्क को प्रभावित कर सकती है. टीबी के बैक्टीरिया जब प्रजनन मार्ग में पहुंच जाते हैं तब जेनाइटल टीबी या पेल्विक टीबी हो जाती है जो महिलाओं और पुरुषों दोनों में इंफर्टिलिटी का कारण बन सकता है. महिलाएं चिंता करती हैं कि क्या टीबी होने के बाद वह मां बन पाएंगी या नहीं लेकिन उचित उपचार के बाद गर्भधारण करने में कोई समस्या नहीं आती है, लेकिन ऐसी महिलाओं को बच्चे को दूध पिलाते समय बच्चे को संक्रमण से बचाने के लिए मास्क लगाकर दूध पिलाना चाहिए.
उन बच्चों अथवा लोगों को टीबी प्रभावित कर सकती है, जो ऐसे इलाकों, परिवारों और देश में रहते हैं जहां टीबी के रोगियों की दर अधिक है.
टीबी से जुड़े तथ्य
* अन्तराष्ट्रीय जर्नल सेल में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है, इस खांसी की मूल वजह टीबी पैदा करने वाला बैक्टीरिया होता है. जो अपने प्रसार के लिए रोगी के शरीर में खांसी पैदा करने वाले अणुओं को पैदा करता है. गौरतलब है कि टीबी, माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस नामक बैक्टीरिया से फैलती है जो हमारे फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है.
* कोई व्यक्ति टीबी से प्रभावित है या नहीं, इसे पकड़ पाना आसान नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि आप किसी टीबी के मरीज के संपर्क में कुछ पल के लिए आए और आपको टीबी हो गया. इसके लिए किसी प्रभावित व्यक्ति के साथ घंटों संपर्क में रहने पर ही आप में टीबी के बैक्टीरिया से संक्रमित होने का ख़तरा होता है.
* टीबी लाइलाज नहीं है, लेकिन इलाज न करवाने की सूरत में यह जानलेवा हो सकता है. इसका इलाज अमूमन छह महीने तक सही एंटीबायोटिक दवाओं के सेवन से किया जा सकता है.
* बीसीजी वैक्सीन टीबी से रक्षा करती हैं, इसे 35 वर्ष से कम उम्र के उन वयस्कों और बच्चों को दिया जा सकता है जिन्हें टीबी होने का ख़तरा है.
* शरीर के किसी भी हिस्से में नाखून और बाल को छोड़कर टीबी हो सकता है.
* अगर छोटे बच्चे की मां को टीबी हो जाए तो उस स्थिति में कई बार परिवार के लोग बच्चे को मां से दूर कर देते हैं, बच्चे को मां का दूध नहीं पीने देते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि स्तनपान से टीबी नहीं फैलती है.
* ड्रग सेंसिटिव टीबी का इलाज 6 से 9 महीने और ड्रग रेजिस्टेंट का 2 साल या अधिक तक चल सकता है.
* टीबी के इलाज में प्रोटीन रिच डाइट खाना महत्वपूर्ण है, स्थानीय सब्जी, फल और दाल लेना आवश्यक है.
बचाव और उपचार के लिए ज़रूरी बातें
* उन व्यस्कों में टीबी का संक्रमण जल्दी फैलता है जो कुपोषण के शिकार होते हैं, क्योंकि इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है. इसलिए उपचार के दौरान खानपान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. ऐसे लोगों को अल्कोहल, प्रोसेस्ड मीट और मीठी चीजों जैसे पाई, कप केक आदि के सेवन से बचना चाहिए. उनके भोजन में पत्तेदार सब्जियां, विटामिन डी और आयरन के सप्लीमेंट्स, साबुत अनाज और असंतृप्ति वसा होना चाहिए. भोजन टीबी के उपचार में महत्वबपूर्ण भूमिका निभाता है, अनुपयुक्त भोजन से उपचार असफल हो सकता है और द्वितीय संक्रमण का खतरा बढ़ सकता है.
* अगर रोग प्रतिरोधक क्षमता कम है तो टीबी से बचने के लिए भीड़-भाड़ वाले स्थानों से दूर रहें, जहां नियमित रूप से संक्रमित लोगों के संपर्क में आ सकते हैं.
* अपनी सेहत का ख्याल रखें और नियमित रूप से अपनी शारीरिक जांच कराते रहें. अगर संभव हो तो इस स्थिति से बचने के लिए वैक्सीन लगवा सकते हैं.
* डॉक्टर्स की मानें तो टीबी का इलाज शुरू होने के बाद उसे बीच में नहीं छोड़ना चाहिए. कई बार लोग टीबी की जांच कराने में संकोच करते हैं, अगर वजन कम हो रहा है और खांसी नहीं रुक रही है. तो समय रहते टीबी की जांच कराएं और बीमारी होने पर तुरंत दवाई लेना शुरू करना चाहिए.
कौन थे डॉ रॉबर्ट कोच और क्यों मिला था उन्हें नोबेल पुरस्कार?
24 मार्च के दिन विश्व ट्यूबरक्युलोसिस दिवस मनाया जाता है. ग़ौरतलब है कि विश्व टीबी दिवस को मनाने का मकसद लोगों के बीच इसे लेकर जागरूकता फैलाने के साथ ही साथ वैश्विक स्तर पर टीबी जैसी बीमारी को ख़त्म करना भी है. 24 मार्च ही वो दिन था, जब डॉ रॉबर्ट कोच ने टीबी के जीवाणु की खोज की थी. इस खोज की वजह से टीबी का इलाज ढूंढने में मदद मिली थी. इसीलिए इस दिन को विश्व टीबी दिवस के रूप में मनाया जाता है.
जर्मन मूल के डॉक्टर और माइक्रोबायोलॉजिकल साइंटिस्ट रॉबर्ट कोच का जन्म 11 दिसंबर 1843 में हुआ था. इन्होंने कॉलेरा, ऐन्थ्रेक्स तथा क्षय रोगों पर गहन अध्ययन किया था. अंततः कोच ने यह सिद्ध किया कि कई रोग सूक्ष्मजीवों के कारण होते हैं. साल 1883 में उन्होंने हैजा के जीवाणु की भी खोज की थी. उनकी असाधारण खोजों के लिए साल 1905 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उनके सम्मान में जर्मनी की राजधानी बर्लिन में एक मेडिकल इन्सिटीट्यूट का नाम उनके नाम पर रखा गया है. साल 1910 में 66 साल की उम्र में वो दिल का दौरा पड़ने से दुनिया को छोड़कर चले गए. आज भी दुनिया भर के तमाम रोगों का उपचार रॉबर्ट कोच की महान रिसर्च और खोजों के वजह से संभव हो पाया.
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