हमारे पास आजकल सूचनाओं का भंडार है. एक ऐसा विपुल भंडार जो हमसे पहले किसी भी पीढ़ी को नसीब नहीं हुआ था. हमारा एक छोटा-सा मोबाइल हर सवाल का जवाब देता है. हम उससे जो पूछते हैं वह बताता है. हमें अक्सर उससे सारे जवाब मिल जाते हैं. लेकिन वे जवाब सही हैं या ग़लत, यह अब भी हमें अपने विवेक से ही सुनिश्चित करना होता है.
आम हो रही है ‘बीमारियों के डर’ की बीमारी
आजकल लोग दूसरी सूचनाओं की तरह ही अपने लक्षणों और रोगों के बारे में भी बहुत सारे सवाल मोबाइल से पूछ रहे हैं और उन्हें टेक्स्ट या इमेज या फिर वीडियो के रूप में जवाब मिल रहे हैं. जवाब में भी ज़्यादा वे जवाब परोसे जाते हैं जिन्हें ज़्यादा लोग देखते हैं और ज़्यादा समय तक देखते हैं. दुर्भाग्य से डर से अच्छा कोई भी ध्यान खींचने वाला तत्व नहीं होता. जितने डरावने आर्टिकल्स, इमेजेज या वीडियो होते हैं, उन्हें लोग ज़्यादा देर तक ध्यान से देखते हैं. जब ज़्यादा लोगों देखते हैं तो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का एल्गोरिदम उन्हें सर्चिंग में टॉप पर ले आता है. जिससे और ज़्यादा लोग उन्हें देखने लगते हैं. यह एक चक्र बन जाता है.
जब आप गूगल से पूछते हैं कि सिर दर्द के क्या-क्या कारण होते हैं तो जवाब में वह आपको बहुत सारे कारण बताता है. उनमें से एक कारण ब्रेन ट्यूमर या ब्रेन टीबी भी होता है. फिर आपका दिमाग़ सुरक्षा की दृष्टिकोण से ज़्यादा जानलेवा लक्षण को प्राथमिकता देता है और उसे अपनी मेमोरी में सुरक्षित कर लेता है. अब आपको सिर दर्द के यही दो कारण प्रमुख लगने लगते हैं. आप डरने लगते हैं. आपकी नींद उड़ जाती है. घबराहट और बेचैनी शुरू हो जाती है. आपका बीपी बढ़ने लगता है और आप एक नई बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं ‘रोगों के डर की बीमारी’.
इस तरह निरोगी व्यक्ति भी बीमार हो जाता है
स्वास्थ्य के मामले में लोगों को ज़्यादा ज्ञान नहीं होता, उन्हें नहीं पता होता कि क्या सूचना उन्हें ग्रहण करना है और किन बातों पर ध्यान नहीं देना है. वे स्क्रीन पर दिखाए गए वीडियो और आर्टिकल को पूर्णतः सत्य मान लेते हैं और फिर ख़ुद को रोगी. इस प्रकार की समस्या को ‘साइबर साइटोकॉड्रिया’ कहा जाता है. अर्थात आप इन सब सूचनाओं के द्वारा भयभीत हो जाते हैं और खुद को एक बड़े रोग का रोगी घोषित कर लेते हैं. इसे ऐसे समझे जैसे कि आपको किसी बड़े चिकित्सक ने मिस डायग्नोस करके किसी रोग का रोगी घोषित कर दिया अब आपको वह रोग नहीं होने पर भी उसके लक्षण प्रकट होने लगेंगे. जैसे अगर कोई नामचीन डॉक्टर आपसे कहे कि आपके पेट में अल्सर हैं तो आपको अल्सर के लक्षण प्रकट होने लगेंगे. जितने ज़्यादा भरोसेमंद चिकित्सक से यह ग़लती होगी लक्षण उतने ज़्यादा सटीक होंगे. यदि हम स्क्रीन पर चल रही या लिखी हुई हर बात को सही मानते हैं, उसपर आस्था रखते हैं और उनके द्वारा बताए गए ज्ञान को पूर्ण सच मानते हैं तो हमें भी उस रोग के लक्षण प्रकट होने लगेंगे.
रोगों से डर का रोग केवल कंप्यूटर और मोबाइल से ही उत्पन्न नहीं हो रहा है. यह आपसी बातचीत से भी लोगों में घर कर जाता है. जैसे आपके सीने में हो रहे गैस या एसिडिटी के दर्द को यदि आपका कोई मित्र बता दे कि,‘यह हार्ट अटैक के लक्षण जैसा लग रहा है.’ तो भी संभावना है कि आप ख़ुद को हार्ट का रोगी मानने लगें. भविष्य की चिंता और अपने बाद अपने परिवार के बारे में सोच सोच कर हम अपने अंदर एक डर को जन्म देते हैं.
यदि बीमारियों के डर से पीड़ित रोगी से उसका परिचित चिकित्सक कहे कि, ‘उसे कोई भी रोग नहीं है’. तो वह यह समझता है कि चिकित्सक उसका दिल रखने के लिए उससे ऐसा कह रहे हैं अन्यथा सत्य तो यह है कि मैं एक गंभीर रोग से पीड़ित हूं या पीड़ित होने वाला हूं. वह डॉक्टर पर डॉक्टर बदलता है और अपने डर को बढ़ाता रहता है.
क्या करता है एक डरा हुआ रोगी?
ऐसे रोगी अपने रोग के डर के कारण कई सारे महंगे-महंगे टेस्ट करवाने के लिए डॉक्टरों से विनती करते हैं. मामूली एसिडिटी का रोगी डॉक्टर से एंडोस्कोपी करवाने की विनती करता है तो सिरदर्द का रोगी एमआरआई के लिए कहता है, गले में दर्द का रोगी अपने गले की सीटी स्कैन करवाने के लिए विनती करता है. वह चाहता है कि टेस्ट हो जाए और उसका डर ख़त्म हो. कई रोगियों को टेस्ट करवाने से लाभ हो जाता है, उनका डर चला जाता है जब वह अपनी रिपोर्ट को नॉर्मल पाते हैं तो. लेकिन कई रोगियों में यह टेस्ट कारगर नहीं होते क्योंकि, जब उनका एक डर ख़त्म होता है तो वे कुछ दिनों बाद किसी अन्य रोग का डर लेकर आ जाते हैं. मैं अपनी प्रैक्टिस में रोज़ाना ऐसे ही डर के एक या दो रोगियों से मिलता हूं जो मेरे पास अपनी मोटी-मोटी फ़ाइलें लेकर आते हैं. एक रोगी के बारे में मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब उन्हें सिरदर्द शुरू हुआ तो उन्हें ब्रेन ट्यूमर का डर था. उसके लिए उन्होंने एमआरआई करवाई. वह सामान्य आई तो उनका ट्यूमर वाला डर दूर हुआ लेकिन कुछ वक़्त बाद उन्हें पेट के कैंसर का डर सताने लगा. उन्होंने उसके लिए सोनोग्राफ़ी करवाई. सोनोग्राफ़ी के नार्मल आने पर उनका पेट में कैंसर होने का डर ख़त्म हुआ लेकिन कुछ महीनों बाद उन्होंने एक और बीमारी से डरना शुरू कर दिया. उन्हें डर सताने लगा कि उन्हें टीबी हो गई है. अब वे अपने डॉक्टरों से टीबी के टेस्ट करवाने की ज़िद करने लगें. इस प्रकार के रोगी किसी एक रोग से नहीं डरते. एक रोग का डर ख़त्म होने के बाद उनका डर चला नहीं जाता बल्कि वह किसी और रोग पर शिफ़्ट हो जाता है. डर की वे एक श्रृंखला शुरू कर लेते हैं.
डर का इलाज कैसे हो?
सबसे पहले आप बेवजह के सर्च और सूचनाओं से ख़ुद को बचाए. अपने रोगों के बारे में और शंकाओं के बारे में केवल अपने चिकित्सक से परामर्श लें. चिकित्सक के द्वारा यदि कोई रोग आपको डायग्नोस किया जाए तो उसका उपचार करवाएं. रोगों से डरे नहीं, उन्हें ठीक करें, यह ज़्यादा महत्वपूर्ण है. यदि आपका चिकित्सक आपको अच्छी तरह चेक करके कह दे कि,‘आपको कोई रोग नहीं है’ तो इसे स्वीकार करें और मान लें कि आप किसी भी रोग से पीड़ित नहीं हैं, आपका स्वास्थ्य और जीवन सुरक्षित है.