देखिए रोचक अंदाज में लिखी गई है वेब सीरीज 'रंगबाज: डर की राजनीति'
निर्ममता से कैंची चलायी गयी है जिस से कहानी की रफ़्तार बनी रहे और मूल कहानी से भटकने की संभावनाएं ख़त्म हो जाए.
REVIEW 'Rangbaaz Season 3': ज़ी5 पर 'रंगबाज: डर की राजनीति' हाल ही में रिलीज़ हुआ जो इस वेब सीरीज का तीसरा सीजन है. मात्र 6 एपिसोड में बिहार के एक ऐसी बाहुबली की कहानी दिखाई गयी है जिसने पहले प्रदेश की और फिर देश की राजनीति में अपना असर दिखाया, लेकिन अंत में ठगा गया. कहने के लिए ये कहानी बिहार के नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन, लालू यादव और नितीश कुमार के किरदारों पर आधारित है, लेकिन वेब सीरीज इस रोचक अंदाज़ में लिखी गयी है कि काल्पनिक घटनाएं भी दर्शकों का मनोरंजन करती नज़र आयी हैं.
'रंगबाज' सीरीज का ये तीसरा सीजन है. पहले सीजन में उत्तर प्रदेश के दुर्दांत गैंगस्टर श्री प्रकाश शुक्ल की कहानी दिखाई गयी थी. एक सामान्य सा लड़का जो अपनी बहन से की गयी छेड़छाड़ का बदला लेने जाता है और गलती से उसकी बन्दूक से निकली गोली से एक आदमी मारा जाता है. उस गलती की वजह से एक सामान्य सा लड़का कैसे पुलिस के स्पेशल टास्क फ़ोर्स का निशाना बना, उसके कदम कानून के खिलाफ क्यों चले, कैसे राजनेताओं ने उसकी बुद्धि और बाहुबल का फायदा उठाया और जब श्री प्रकाश, नेताओं के कहने से बाहर जाने लगा तो उसे मरवा दिया गया.
रंगबाज का दूसरा सीजन, राजस्थान के मोस्ट वॉन्टेड आनंदपाल सिंह के किरदार से प्रभावित हो कर रचा गयी थी. इसमें जिमी शेरगिल ने अभिनय की अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका निभाई थी. तीसरे सीजन में मुख्य भूमिका में है अत्यंत प्रतिभाशाली विनीत कुमार. अपने चेहरे की मासूमियत, भावनाओं को सदा नियत्रण में रखने की अपनी कला और चेहरे से दिमाग की फ़ितरत को ज़ाहिर न करने के अपने कौशल को विनीत ने बखूबी निभाया है. ये सीरीज देखने योग्य है. अन्य क्राइम वेब सीरीज की तुलना में उसमें विश्वसनीयता ज़्यादा है और गालियां बहुत कम.
क्राइम यानी अपराध पर बनी अधिकांश फिल्मों और वेब सीरीज का फार्मूला लगभग सेट सा होता है. एक सामान्य से आदमी को परिस्थितिवश बन्दूक उठानी पड़ती है और वो अपने प्रताड़क को मौत के घात उतार देता है. इसके पहले की प्रायश्चित की भावना उसे घेरे, वो कदम दर कदम अपराध के दलदल में फंसते जाता है और राजनीति उसे संरक्षण देने की आड़ में उसकी जिंदगी से खेलती चली जाती है. जब उसकी उपयोगिता ख़त्म हो जाती है या उसका होना नेताओं की जिंदगी और करियर के लिए खतरा बन जाता है तो पुलिस या स्पेशल टास्क फ़ोर्स के ज़रिये उसे मरवा दिया जाता है. बिहार के धीवान गांव में शाह अली बैग की कहानी है रंगबाज का ये सीजन. प्रेम में यकीन रखने वाला, कॉलेज में पढ़ने वाला, अपने दोस्त को सबसे ज़्यादा मानने वाला शाह अली बैग ज़मीन जायदाद के धंधे में उतरता है और धीरे धीरे शक्तिशाली होते जाता है. उसके तेज़ी से बढ़ते कदम उसे ले आते हैं बिहार के कुख्यात और प्रख्यात जननेता लखन राय (एक्टिंग पावरहाउस विजय मौर्या) के पास. लखन राय की शह पर शाह अली बैग बन्दूक के दम पर हर वो काम करते हैं जो लखन राय की राजनीतिक साख और कुर्सी बचाये रखने के काम आती है.
वैसे तो शाह अली बैग बड़ा ही न्याय प्रिय है लेकिन सत्ता का मद और ताक़त का नशा, जो न करवाए सो कम है. उसके बचपन का जिगरी दोस्त जब दिल्ली से पढ़ कर कम्युनिस्ट पार्टी का कैंडिडेट बन कर धीवान से खड़ा होता है तो उसके बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए लखन राय उसे मरवा देते हैं ताकि शाह अली का दबदबा बना रहे. राजनीति उसके दोस्त की जान ले जाती है इसका अफ़सोस तो शाह अली को होता है लेकिन वो प्रायश्चित नहीं कर सकता. लखन राय लगातार बिहार के मुख्यमंत्री बनते रहते हैं और शाह अली सही गलत सभी तरीकों से उनकी राजनीति और कुर्सी को बचने में लगा रहता है. इन गलत कामों में कई बार उसके ज़रिये निर्दोष लोगों की भी हत्या हो जाती है. आखिर में लखन राय अपनी कुर्सी बचाने के लिए शाह अली के राजनीतिक करियर की बलि दे देते हैं. इस धोखे से दुखी शाह अली फिर भी अपने पर लगे सभी केसेस ख़ारिज करने के लिए लखन राय की मदद करते हैं. जिस दिन शाह अली जेल से छूटने वाला होता है, एक अन्य निर्दोष अपराधी पिता, अपने बेटों की हत्या का बदला लेने के लिए उसे जेल में ही मार डालता है.
इस सीरीज को शक्ति मिलती है इसकी लेखनी से. लेखक सिद्धार्थ मिश्रा ने लगातार तीसरे सीजन में कमाल किया है. इस सीजन की पटकथा और संवाद हर हाल में पहले दो सीजन से बेहतर हैं. कसी हुई स्क्रिप्ट की वजह से कम एपिसोड में काम हो गया है. धीवान में शाह अली के कॉलेज स्टूडेंट से बाहुबली बनने की कहानी को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी गयी है जिस से अपराध का महिमामंडन करने की गलती नहीं हुई है. जो गलतियां रंगबाज के पहले और दूसरे सीजन की पटकथा को कमज़ोर करती हैं, वो इस सीजन से बिलकुल गायब हैं. बाहुबली बनने के बजाये इस बार ज़ोर दिया गया है शाह अली के निजी जीवन को और उस जीवन की अच्छी घटनाओं को. दृश्य विन्यास भी इस तरीके का है कि हिंसा को चमकाने की कोशिश नहीं की गयी है बल्कि बहुत ही मामूली ढंग से खूंखार घटनाओं को फिल्माया गया है ताकि इसका अनुसरण करने के लिए किसी के पास कोई वजह न हो. वेब सीरीज मिर्ज़ापुर में अपराध का महिमामंडन बहुत है लेकिन रंगबाज का ये सीजन पूरी तरह से लॉजिकल है. पहले ही दृश्य में अंतर्जातीय विवाह के लिए शाह अली अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर के लड़का और लड़की के माता पिता को हां करने पर मजबूर कर देते हैं. कॉलेज में जब प्रेम भी करते हैं तो सना (आकांक्षा सिंह) के सामने मनोहर श्याम जोशी के उपन्यासों की चर्चा करते हैं. प्रेम प्रदर्शन का ऐसा स्वरुप बहुत दिनों बाद देखने को मिला है.
विनीत कुमार की तारीफ नहीं की जा सकती. ऐसा लगता है कि वे शाह अली ही हैं. उनका अंदाज़ बिलकुल ही अलग है. ऐसा अभिनय करने का मौका उन्हें पहले नहीं मिला है. उनके घर पर पुलिस के दर्जनों सिपाहियों का हमला होता है, तो अपने साथियों के साथ वो भी मशीन गन उठाकर पुलिस पर उल्टा हमला बोल देते हैं लेकिन अपनी पत्नी और छोटे बेटे को डरा हुआ देख कर वो एक तरीके से आत्मसमर्पण ही कर देते हैं. विनीत ने उस दृश्य में रुला ही दिया है. उनकी पत्नी सना के किरदार में आकांक्षा सिंह हैं जिन्हें हाल ही में अजय देवगन की फिल्म रनवे 34 में और डिज्नी हॉटस्टार की वेब सीरीज एस्केप लाइव में देखा गया था. विनीत और आकांक्षा की प्रेम कहानी उतनी मामूली भी नहीं है जितनी दर्शकों को नज़र आती है. सना को पता होता है कि उसका पति शाह ली एक बाहुबली बन चुका है, इसी दम पर वो विधायक बना है और फिर सांसद भी लेकिन वो अपने पति को समझती है और गाहे बगाहे उसे अपने बच्चे के भविष्य के लिए ये सब छोड़ने के लिए भी कहती है लेकिन इसके लिए कलह नहीं करती. यहां तक कि जब शाह अली जेल में बंद होता है और चुनाव नहीं लड़ सकता तो वो उसकी प्रॉक्सी कैंडिडेट बन कर चुनाव लड़ती है, जीत जाती है और सभी निर्दलीय विधायकों को लेकर लखन राय को धमका भी आती है. इस तरह के किरदार आम तौर पर देखने को नहीं मिलते. सना को चालाक नहीं व्यवहारिक बनाया गया है और जब वो लखन राय के सामने जाती है तो वो काइंयां या कुटिल या चालबाज़ नहीं नज़र आती.
विजय मौर्या को टैलेंट का पावरहाउस कहना उचित संज्ञा है. वैसे तो विजय थिएटर की दुनिया से फिल्मों में आये हैं लेकिन वो चुनिंदा रोल करते हैं. अपनी आजीविका के लिए विजय विज्ञापन फिल्में निर्देशित करते हैं. अब तक 150 से ज़्यादा एड फिल्म बना चुके हैं. 2004 की अनुराग कश्यप की फिल्म ब्लैक फ्राइडे में वो दाऊद इब्राहिम के रोल में थे, और बमुश्किल 10 डायलॉग और 2-3 सीन वाला ये रोल अन्य कलाकारों के बड़े बड़े रोल पर भारी पड़ गया था. लखन राय का किरदार लालू प्रसाद यादव जैसा किरदार है लेकिन मज़ाक मस्ती करते हुए भी वो फूहड़ नहीं हुए हैं. बस एक सीन में जब वो जेल से लौट कर अपने बंगले पर अपने चेलों के साथ "जोगीरा सारा रारा" गाते हैं या प्रेस से मुखातिब होते हैं तो एकदम देहाती और गंवई नेता की तरह पेश आते हैं. फिल्मों में लालू प्रसाद यादव से प्रभावित किरदार कैरीकेचर की तरह लिखे जाते हैं. रंगबाज में विजय मौर्या का लखन राय कॉमेडियन नहीं है और विजय ने कलंदर मिज़ाज को किरदार पर हावी होने भी नहीं दिया है. वेब सीरीज में पुलिस अधिकारी के रोल में हैं प्रशांत नारायण. इनका भी किरदार एक असली सिवान के एसपी रत्न संजय पर आधारित है. शाह अली की कानून तोड़ने की आदत से परेशान हो कर एसपी जब उस पर केस करना चाहते हैं तो राजनीतिक दबाव की वजह से कुछ कर नहीं पाते हैं. फ़्रस्ट्रेशन में वो शाह अली के घर पर पूरी फौज के साथ धावा बोल देते हैं. भयानक गोलीबारी होती है लेकिन पत्नी और बच्चे को बचाने की वजह से शाह अली गिरफ्तार हो जाता है और जो असलहा उसके घर से बरामद होता है वो अत्याधुकिन होता है जिसका काट भी पुलिस के पास नहीं होता. प्रशांत की आवाज़ दमदार है, उनकी पर्सनालिटी भी अच्छी है लेकिन इस बार वो थोड़े मोटे और बेडौल नज़र आये हैं. राजेश तैलंग और गीतांजलि कुलकर्णी के रोल छोटे हैं और प्रभावी हैं क्योंकि वो इतने मंजे हुए खिलाडी हैं कि एक ही सीन में बाकी कलाकारों पर भारी पड़ जाते हैं.
रंगबाज सीजन 3 में बहुत रिसर्च की गयी है और लिखने में उसकी झलक साफ़ नज़र आती है. जो भी अपराध है वो अत्यंत ही नॉन-ग्लैमरस है. जो राजनीति है वो भी कुटिल या चालाकियों से भरी राजनीति नहीं है. जब लखन राय अपने चिरप्रतिद्वंद्वी से हाथ मिला लेते हैं और शाह अली की राजनीति की बली चढ़ा देते हैं तो उनके चेहरे की मजबूरी भी नज़र आती है और व्यवहारिक निर्णय भी. निर्देशक सचिन पाठक और लेखक सिद्धार्थ मिश्रा हर सीजन से साथ और ज़ायदा परिपक्व होते नज़र आ रहे हैं. एक बात जो इस सीजन में और अच्छी है वो है रंगबाज का टाइटल ट्रैक हटा दिया गया है. वो अत्यंत ही कर्कश था और कानों को चुभता था. एडिटिंग में परीक्षित झा के साथ इस बार हाथ बंटाने के लिए निखिल परिहार जुड़े हैं. निर्ममता से कैंची चलायी गयी है जिस से कहानी की रफ़्तार बनी रहे और मूल कहानी से भटकने की संभावनाएं ख़त्म हो जाए.