हमारी विलासिता का भार आखिर पृथ्वी क्यों उठाएगी? पर्यावरण नष्ट होना अंत की शुरुआत जैसा

असल में दुनिया कैसे बनी और जीवन को पनपाने में पृथ्वी को कितनी पीड़ाएं झेलनी पड़ी इसका लेखा-जोखा हमारी समझ से बाहर है

Update: 2021-08-20 09:05 GMT

अनिल जोशी का कॉलम | असल में दुनिया कैसे बनी और जीवन को पनपाने में पृथ्वी को कितनी पीड़ाएं झेलनी पड़ी इसका लेखा-जोखा हमारी समझ से बाहर है। अपने तात्कालिक लालचों के कारण हम समझने से भी कतराना चाहते हैं, क्योंकि इससे त्यागने का भाव जो आ जाएगा। हम आज में जीने पर ही विश्वास करते हैं और तात्कालिक कल के लिए जोड़ने-जुटाने के लिए चिंतित हैं। इसमें वो कल नहीं आता जो आने वाली पीढ़ी को सुरक्षित वातावरण दे सके।

पृथ्वी का बदलता व्यवहार एक बड़े दंड की तैयारी में दिखता है। इसका प्रमाण किसी अंतरराष्ट्रीय रपट से जुटाना दूसरी बड़ी मूर्खता से ज्यादा कुछ नहीं होगा। मुझे लगता है कि आईपीसीसी की हालिया रपट से ज्यादा जो कुछ हम देख रहे हैं या झेल रहे हैं, वो महत्वपूर्ण है।
उदाहरण के लिए हाल ही में हिमालय में आई बाढ़ व जानमाल का नुकसान उसी ओर तो इशारा कर रहा है जो आईपीसीसी की रपट कहती है। वैसे तो जब हमने पिछले डेढ दशक में इस तरह की घटनाओं के लिए खुद को आदी बना ही लिया है तो ये रपट हमें कैसे सुधार लेगी। इसका भी मतलब समझ लीजिए। वो ये कि हम पृथ्वी को समाप्ति के लिए उकसा रहे हैं। पृथ्वी में बड़े-बड़े परिवर्तन पहले भी आए हैं। 25 करोड़ वर्ष पहले एक घटना जिसे ग्रेट डाइंग कहा जाता है, उसने पृथ्वी के 90 प्रतिशत जीवन को ध्वस्त कर दिया था।
ये पृथ्वी में आए ज्वालामुखी के कारण हुई थी। दूसरी साढ़े छह करोड़ वर्ष पहले की घटना है, जब डेक्कन लावा ने डायनासोर से लेकर अन्य जीवों को तबाह कर दिया था। इन बड़ी घटनाओं के बाद जीवन फिर पनपा था। क्योंकि जब तक समुद्र रहेगा, जीवन की फिर शुरुआत होती ही रहेगी। इसे ऐसे समझिए कि हम जिस तरह पर्यावरण व पारिस्थितिकी को नष्ट करने पर तुले हैं ये हमें ही मिटा देगा।
बदली हुई जीवन शैली ने सब कुछ मार दिया है। आज स्टाइलिश जीवन प्रदर्शन ने सब कुछ लील लिया है। पश्चिम से शुरू इस बीमारी ने पहले देशों को लपेटा और फिर घर-गांव में जड़ें फैल गईं। अपने चारों तरफ देखें तो अब आवश्यकताओं से ज्यादा विलासिताओं ने जगह बना ली है। इसका सीधा भार प्रकृति व पृथ्वी पर पड़ेगा। सुविधाएं, एडिक्शन बन जाती हैं। उदाहरण सामने है। पहले एयर कंडीशनर, कारें आर्थिक सक्षम लोगों के चोचलेबाजी का हिस्सा था। इनकी बढ़ती संख्या ने स्थानीय तापक्रम को और बड़ा दिया। फिर ये विलासिता आवश्यकता बन गई। अब दिल्ली व मुंबई में झुग्गी झोपड़ियों में भी एसी दिखते हैं। क्योंकि गर्मी हमने असहनीय स्तर तक बढ़ा दी। वैसे इसे विनाशी विकास ही कहा जा सकता है।
आईपीसीसी की ताजा रपट ने अगले बीस साल के पर्यावरणीय हालातों का कुछ संभावित ब्यौरा भी है। इस बदलाव की बड़ी चोट हिमालय, आर्कटिक अंटार्टिका में ज्यादा पड़ेगी। ये पहाड़ आपसे चाहे कितनी भी दूरी पर हों और आपको प्रत्यक्ष अपना नुकसान न दिखाई देता हो पर पहाड़ जलवायु नियंत्रण के पहले दर्जे के संवाहक हैं। मतलब इनसे ही हमारे पानी हवा व मिट्टी का जुगाड़ हो पाता है। सुविधाओं में ग्रसित समाज का एक वर्ग आने वाले संकटों से नहीं विचलित होता। क्योंकि उसकी सम्पत्ति व कमाई उसे विकल्प दे देती है।
जैसे पानी की किल्लत ने पंप, प्यूरीफायर, बोतल बंद पानी जैसी बाजारी सुविधाओं को बढ़ा दिया। बढ़ते वायु प्रदूषण का भी विकल्प एयर प्यूरीफायर व ऑक्सीजन स्टेशन के रूप में आ गए। ये आज फलता-फूलता बड़ा बाजार है। चलिए अब स्वीकार कर लीजिए कि हमने पृथ्वी को मां नहीं माना और अब उसके पुत्र होने के अधिकारों से स्वतः वंचित भी हो गए। मतलब उस सुुक्ति की जगह नहीं बची, जिसमें कहा गया था कि 'माता भूमि पुत्रोह्म पृथ्वायम'।


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