अशोक गहलोत के लिए 'भ्रष्टाचार' को रोकना क्यों हो रहा है इतना मुश्किल?

कांग्रेस शासित राजस्थान के सरकारी महकमे में फैले भ्रष्टाचार को लेकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बिना लाग-लपेट के वो सच बोल गए जिससे आमतौर पर राजनेता बचने की कोशिश करता है

Update: 2022-01-05 14:22 GMT

प्रवीण कुमार कांग्रेस शासित राजस्थान के सरकारी महकमे में फैले भ्रष्टाचार को लेकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बिना लाग-लपेट के वो सच बोल गए जिससे आमतौर पर राजनेता बचने की कोशिश करता है और बचना भी चाहिए. उन्होंने कहा- "भ्रष्टाचार सभी जगह है. किसी एक विभाग में नहीं है. यहां तक कि जो विभाग मेरे पास है उनमें भी भ्रष्टाचार नहीं होने की गारंटी नहीं दे सकता." गारंटी क्यों नहीं दे सकते? इसका जवाब भी वह अपने बड़बोलेपन में यह कहकर दे गए- "भ्रष्टाचार करने वाले भी तो अपने ही लोग हैं, बाहर के लोग तो हैं नहीं कोई, विदेशी लोग थोड़े ही हैं." सीएम गहलोत के इस तरह के बोल के क्या मायने निकाले जाएं? यह एक बड़ा सवाल है और इससे भी बड़ा सवाल यह कि भ्रष्टाचार को रोकना इतना मुश्किल क्यों हो गया है? आखिर क्यों राजनीति का जादूगर अपनी सरकार में भ्रष्टाचार को मिटाने में खुद को इतना बेबस और असहाय महसूस कर रहा है?

तो क्या सत्ता के लिए भ्रष्टाचार जरूरी है?
इसमें कोई दो राय नहीं कि अशोक गहलोत को राजनीति का जादूगर कहा जाता है. लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि भ्रष्टाचार को मिटाने में भी उनका जादू चल जाए. राजनीति का जादूगर वाला तमगा गहलोत को ऐसे ही नहीं मिला है. अपने इसी कार्यकाल में कांग्रेस के हाथ से निकलती सत्ता को गहलोत ने किस तरह से बचाया, सबने देखा है. डगमगाती सत्ता या सरकार यूं ही नहीं बच जाती. उसके लिए बहुत सारे समझौते करने पड़ते हैं और भ्रष्टाचार (राजनीतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार) उनमें से एक है. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के बारे में भी कहा जाता है कि भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को बचाने के लिए कभी-कभी वो बड़ी अजीबोगरीब दलीलें दिया करते थे. 1960 के दशक के शुरुआती सालों का एक किस्सा है जब कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने टिप्पणी की थी, "पिछले पांच सालों में जहां 44 हजार सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत, भ्रष्टाचार आदि के मामले में दंड मिल चुका है, वहीं एक भी मंत्री को कानून का सामना नहीं करना पड़ा. नेहरू ने ऐसे मंत्रियों के नाम तक जानने की कोशिश नहीं की और उसके बजाय उन्होंने यह दलील दी कि मैंने ईमानदार लोगों के साथ मिलकर काम करने की कोशिश की है. ये जिन दो-तीन मंत्रियों का जिक्र तुमने किया है, मुझे पता है कि वे भ्रष्ट हैं लेकिन वे कुशल हैं और देश की तरक्की के लिए मैं यह कीमत भी चुकाने को तैयार हूं". कहने का मतलब यह कि उस वक्त नेहरू यह भूल गए थे कि भ्रष्टाचार एक ऐसी संक्रामक बीमारी है जो अगर ऊपर के लोगों को जकड़ ले तो किसी सुनामी की तरह नीचे तक तेजी से फैलती चली जाती है. सीएम अशोक गहलोत की यह ताजा स्वीकारोक्ति कुछ-कुछ पंडित नेहरू की दलील की तर्ज पर ही कही जा सकती है जिसमें वो इस बात को बताना भी चाहते हैं और जताना भी कि सत्ता में बने रहने और सरकार को चलाने के लिए अपने लोगों को खुश रखना होता है, इस तरह के भ्रष्टाचार को स्वीकार करने पड़ते हैं. ये अलग बात है कि संवैधानिक पद पर बैठे किसी शख्स को इस तरह की बात किसी सार्वजनिक मंच से नहीं करनी चाहिए.
भ्रष्टाचार को रोकने वाले टूल्स में है बड़ा खोट
अगर हम सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार को लेकर सवाल खड़े करते हैं और कहते हैं कि सरकार के लिए इसे रोकना इतना मुश्किल क्यों हो गया है तो इसका सबसे आसान जवाब यही है कि भ्रष्टाचार को रोकने वाला जो सबसे बड़ा टूल सिविल सोसायटी है, वही जब भ्रष्ट हो जाए तो कोई सरकार या प्रशासनिक तंत्र क्या कर लेगा. भ्रष्टाचार निवारक अधिनियम, 1988 की धारा 7, 8,11 तथा 12 के तहत जब कोई सरकारी कर्मचारी अपना काम करने की एवज में जनता से पैसे लेता है तो वह रिश्वत लेने का अपराध करता है. हर सरकारी कर्मचारी के लिए कुछ निश्चित कार्य करना उसकी जिम्मेदारी है.
लेकिन वह कर्मचारी जब उस का के बदले पैसे या कुछ अन्य चीजें अपने लिए लेता है या किसी और के लिए तो वह रिश्वत लेने का अपराध करता है. सरकारी कर्मचारी पक्षपात करने के लिए भी रिश्वत ले सकता है. लेकिन इसके साथ ही रिश्वत देने वाले का अपराध भी रिश्वत लेने वाले के अपराध से कम नहीं होता है. रिश्वत लेने के लिए किसी को प्रेरित करना या उकसाना भी अपराध की श्रेणी में आता है. लेकिन आज के दौर रिश्वत देने और रिश्वत लेने का यह अपराध दोनों पक्षों की सहमति से फल-फूल रहा है.
अगर सिविल सोसायटी तय कर ले कि हम किसी भी काम के लिए रिश्वत नहीं देंगे तो तुरंत भ्रष्टाचार का ग्राफ नीचे आ जाएगा लेकिन इससे पहले सिविल सोसायटी को भी अपने अंदर झांककर देखना होगा कि हम जिस काम के लिए सरकारी दफ्तर में जाते हैं वह नियमानुकूल है भी या नहीं. बात यहीं आकर फंस जाती है. सिविल सोसायटी का हर शख्स छोटे-छोटे स्वार्थों में फंसा होता है और चाहता है कि कुछ ले-देकर काम निकल जाए. लिहाजा भ्रष्टाचार को रोकना मुश्किल हो जाता है. दूसरा, हर किसी को अपने अंदर झांककर देखना होगा कि अगर वह भ्रष्ट नहीं है, रिश्वतखोर नहीं हैं तो उसके पास जो करोड़ों-करोड़ की संपत्ति है वह सब कहां से आया? एक कर्मचारी से लेकर विधायक व सांसद तक को सरकार जो वेतन देती है, उससे तो महज घर-परिवार ही चल सकता है. फिर वो पांच साल में करोड़पति कैसे हो जाता है? जिस विधायिका में भ्रष्ट और अपराधी किस्म के लोगों की बहुतायत हो तो ब्यूरोक्रेसी, सरकारी बाबुओं से उम्मीद कैसे बांध सकते हैं कि वो एक नेक इंसान के तौर पर काम करेगा.
एसीबी की कार्रवाई से खूब गूंज रहा है भ्रष्टाचार
13 जनवरी 2021 की बात है. कांग्रेस शासित राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जिस वक्त वर्चुअल मोड में भ्रष्टाचार विषय पर कलेक्टर कॉन्फ्रेंस को संबोधित कर रहे थे उसी वक्त कॉन्फ्रेंस में शामिल दो एसडीएम को एसीबी यानी भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की टीम ने घूस लेते रंगे हाथों पकड़ा था. कहते हैं कि साल 2021 में एसीबी ने जितनी कार्रवाई की है उतनी एसीबी की स्थापना के बाद से आज तक कभी नहीं की गई थी. चाहे पुलिस वाला हो, आरएएस हो, आरपीएस हो, आईएएस हो या फिर आईपीएस हो, एसीबी ने किसी को नहीं छोड़ा. सिर्फ राजस्थान एसीबी द्वारा की गई कार्रवाई की बात करें तो वर्ष 2021 में एसीबी ने प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत 470 मामले दर्ज किए हैं. इसके साथ ही भ्रष्टाचार में लिप्त 410 अधिकारी व कर्मचारियों को रिश्वत लेते रंगे हाथों गिरफ्तार किया गया.
इसके साथ ही एसीबी ने आय से अधिक संपत्ति के 24 मामले और पद के दुरुपयोग के 32 केस दर्ज किए हैं. कहने का मतलब यह कि ऐसा नहीं है कि गहलोत सरकार भ्रष्टाचार पर चुप बैठी है. कार्रवाई होगी तो भ्रष्टाचार का बाहर आना स्वभाविक सी बात है क्योंकि यह तो समाज के हर शख्स के डीएनए में घुसा हुआ है. सरकारी महकमा इसका अपवाद तो हो नहीं सकता. लिहाजा राजस्थान में भ्रष्टाचार पर बार-बार सवाल उठते हैं और बार-बार गहलोत अलग-अलग तरीके से स्पष्टीकरण देने की कोशिश करते हैं.
भ्रष्ट राज्यों की सूची में राजस्थान सबसे ऊपर
ऐसा नहीं है कि सिर्फ गहलोत के शासनकाल में ही राजस्थान में भ्रष्टाचार चरम पर है. हर साल दुनिया भर में भ्रष्टाचार की स्थिति को बताने वाला इंडेक्स ट्रांस्पेरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी करप्शन पर्सेप्शन्स इंडेक्स 2020 में भारत को 180 देशों की सूची में 40 अंकों के साथ 86वें पायदान पर रखा गया. इस इंडेक्स में अगर भारत के राज्यों की बात करें तो राजस्थान सबसे भ्रष्ट राज्यों की श्रेणी में शामिल है. इससे पहले इंडियन करप्शन सर्वे 2019 की रिपोर्ट में भी देश के सबसे महाभ्रष्ट राज्यों की सूची में राजस्थान पहले पायदान पर था. इस रिपोर्ट के मुताबिक, एक तरफ जहां प्रदेश के 78 प्रतिशत लोगों ने माना कि उन्होंने काम कराने के लिए रिश्वत दी थी वहीं दूसरी ओर 22 प्रतिशत लोगों का कहना था कि उन्होंने काम कराने के लिए बार-बार रिश्वत दी. इस सर्वे रिपोर्ट में बिहार को दूसरा, झारखंड को तीसरा, उत्तर प्रदेश को चौथा और तेलंगाना को 5वां महाभ्रष्ट राज्य माना गया था.
बहरहाल, भ्रष्टाचार नाम का वायरस आज हमारे नैतिक जीवन मूल्यों पर सबसे बड़ा प्रहार है. कहें तो कोरोना से भी बड़ा. इससे जुड़े लोग स्वार्थ में अंधे होकर न समाज की सोचते हैं, न देश की. हालात इस कदर बद से बदतर हो चुके हैं कि जो व्यक्ति रिश्वत के आरोप में पकड़ा जाता है वह रिश्वत देकर ही छूट जाता है. वर्तमान दौर में भ्रष्टाचार देश का सर्वमान्य धर्म हो चुका है. एक ऐसा धर्म है जिसका पालन हर कोई बड़ी निष्ठा से कर रहा है. और यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि लोकतंत्र में जिस व्यक्ति की जो जिम्मेदारी है वह उस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहा है. चाहे राजस्थान के मुख्यमंत्री गहलोत हों या देश की तमाम संवैधानिक पदों पर बैठे लोग. महाकवि धूमिल ने 'प्रजातंत्र' शीर्षक से लिखी कविता की इन पंक्तियों में शायद इसी ओर इशारा किया था…
"न कोई प्रजा है
न कोई तंत्र है
यह आदमी के खिलाफ़
आदमी का खुला सा
षड्यन्त्र है'


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