हिंदी से कौन डरता है?
गृह मंत्री अमित शाह ने जब अंग्रेज़ी की जगह हिंदी के इस्तेमाल की बात कही तो शायद उन्हें अंदाज़ा न रहा हो कि उनके बयान पर दक्षिण भारतीय राज्यों की इतनी तीखी प्रतिक्रिया होगी
प्रियदर्शन
गृह मंत्री अमित शाह ने जब अंग्रेज़ी की जगह हिंदी के इस्तेमाल की बात कही तो शायद उन्हें अंदाज़ा न रहा हो कि उनके बयान पर दक्षिण भारतीय राज्यों की इतनी तीखी प्रतिक्रिया होगी.लेकिन इस प्रतिक्रिया का वास्ता सिर्फ़ उनके ताज़ा बयान से ही नहीं है, उनकी पार्टी की पृष्ठभूमि से भी है.जनसंघ के जमाने से ही बीजेपी नेता हिंदी-हिंदू हिंदुस्तान की बात करते रहे हैं.जब पहली बार एनडीए की सरकार बनी और बीजेपी को उसके इस नारे की याद दिलाई गई तो कहते हैं कि लालकृष्ण आडवाणी ने राजनीतिक सूझबूझ दिखाते हुए यह मसला टाल दिया.उनका कहना था कि बीजेपी का भौगोलिक विस्तार होना अभी बाक़ी है और अभी हिंदी की बात उसकी राह का रोड़ा बनेगी.लेकिन हिंदू राजनीति को बीजेपी ने सीने से लगाए रखा और जब भी, जैसे भी मौक़ा मिला, उसने हिंदुस्तान की राजनीति को हिंदूवादी रंग में रंगने में कोई कसर नहीं छोड़ी.इस माहौल में अमित शाह जब हिंदी की बात करते हैं तो दूसरे भाषाभाषियों को डर लगता है कि कहीं हिंदी का सांस्कृतिक और बौद्धिक वर्चस्व उनको अपनी ज़मीन से काट न दे.जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय भाषाओं को हिंदी नहीं, अब अंग्रेज़ी उजाड़ रही है.हिंदी तो वह गरीब बहन है जिसके लिए अंग्रेज़ी की हवा के आगे अपना घर बचाना मुश्किल हो रहा है
लेकिन हिंदी से भारतीय भाषाओं के इस शत्रु-भाव की वजह क्या है? यह बहुत जानी-पहचानी बात है कि जब इस देश में त्रिभाषा फॉर्मूला लागू हुआ तो उसके पीछे यह मंशा थी कि लोग हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा एक भारतीय भाषा भी सीख लें.इससे वह सांस्कृतिक पुल बनता जो हिंदी को मराठी-पंजाबी, तेलुगू-तमिल, कन्नड़ या बांग्ला के लिए इतना अपरिचित न रहने देता.लेकिन हिंदीवालों ने तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत का चुनाव कर यह संभावना खत्म कर दी.यही नहीं, कई नए स्कूलों में फ्रेंच और जर्मन की पढ़ाई होने लगी, मराठी, बांग्ला या तमिल पढ़ाने का किसी को ख़याल नहीं आया.इस स्थिति ने भारतीय भाषाओं का आपसी अपरिचय बढ़ाया है.हालत ये है कि तमिल, मलयालम या कन्नड़ से चीज़ें पहले अंग्रेज़ी में अनूदित होती हैं या फिर हिंदी में.
एक दौर था जब इस देश में अंग्रेज़ी विरोधी आंदोलन खूब चलते थे.यह समाजवादी राजनीति के मुख्य मुद्दों में एक हुआ करता था.संयुक्त मोर्चा सरकार में मुलायम सिंह यादव जब रक्षा मंत्री बनाए गए थे तब उन्होंने अपने मंत्रालय में हिंदी में कामकाज शुरू करवाया था.लेकिन यह सिलसिला उनके जाने के बाद ही ख़त्म हो गया.डॉ राममनोहर लोहिया ने सही तजबीज़ दी थी.वे हिंदी की नहीं, भारतीय भाषाओं की बात करते थे.हम भी उनकी देखादेखी यही करने लगे.लेकिन भारतीय भाषाओं की फिक्र हमारे लिए एक सैद्धांतिक कवच भर है, उसका कोई व्यावहारिक पक्ष नज़र नहीं आता.
सच्चाई यह है कि अंग्रेज़ी ने भारतीय भाषाओं को भी लगभग कुचल डाला है.वे बस बोलियों के रूप में सिमटती जा रही हैं.ज्ञान-विज्ञान की दूसरी शाखाओं-प्रशाखाओं में अब भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल की बात कोई सोचता तक नहीं.कभी यह कोशिश होती थी.इस लिहाज से भारतीय भाषाओं का हिंदी के प्रति गुस्सा कुछ लक्ष्यभ्रष्ट प्रतीत होता है.भारतीय भाषाओं को ख़तरा हिंदी से नहीं, अंग्रेज़ी से है.हिंदी-उर्दू, बांग्ला-मराठी- सब धीरे-धीरे ऐसी सौतेली ग़रीब बहनों में बदलती जा रही हैं जो थोड़े-थोडे सामान के लिए एक-दूसरे से उलझने को तैयार हैं.जबकि अंग्रेजी इस देश में साम्राज्यवादी विशेषाधिकार की भाषा बनी हुई है- श्रेष्ठता और वर्चस्व की भाषा बनी हुई है.ज्ञान-विज्ञान और सूचना के सारे स्रोत वहीं से आ रहे हैं और वहीं जा रहे हैं.भले ही भारत में पहली भाषा या मातृभाषा के रूप अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों की तादाद अभी लाखों में ही हो, लेकिन मध्यवर्गीय घरों का बदलता रूप देखते यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि वह जल्द ही करोड़ों में होगी.दूसरी भाषा के रूप में अब भी वह करोड़ों भारतीय लोगों की भाषा बनी हुई है.
क्या इस स्थिति से उबरने का कोई रास्ता है? निश्चय ही हिंदी की लगातार संकरी गली से वह रास्ता नहीं है.लेकिन भारतीय भाषाएं भी वह चौराहा नहीं बना पा रहीं जिसमें हम एक-दूसरे को कुछ और करीबी से पहचानें.मगर इसका रास्ता हिंदी को निकालना होगा.पहला काम यह करना होगा कि उत्तर भारत के स्कूलों में बड़े पैमाने पर भारतीय भाषाओं की पढ़ाई शुरू करनी होगी.हिंदी के लोगों के लिए तीसरी भाषा के रूप में किसी भारतीय भाषा की पढ़ाई अनिवार्य बनानी होगी.जब बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में गुजराती, कन्नड़, मराठी बोलने वाले बढ़ेंगे और इन भाषाओं के शिक्षकों को जगह मिलेगी तब अपने-आप भारतीय भाषाओं की दूरी कम होगी और सौतेलेपन की शिकायत घटेगी.
इस बात को महात्मा गांधी समझते थे.वे कई भाषाएं जानते थे और सीखने का जतन करते थे.तीस जनवरी, 1948 की शाम हिंदुत्व की पट्टी आंखों में बांधे एक हत्यारे द्वारा गोली मारे जाने से पहले उन्होंने जो-जो काम किए थे, उनमें अपने बांग्ला पाठ का अभ्यास भी था.उस दिन उन्होंने बांग्ला में दो वाक्य लिखने का अभ्यास किया था.
लेकिन शायद हमने भाषाओं की बात करना इन दिनों छोड़ दिया है.अमित शाह जो सलाह दूसरों को दे रहे हैं, उसे वह अपने घर में भी इस्तेमाल कर सकते हैं.यह सच है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने भाषणों में हिंदी का इस्तेमाल करते हैं.बहुत सारे लोगों की राय है- जो नेताओं की औसत भाषा देखते हुए सही भी है- कि नरेंद्र मोदी की हिंदी बहुत अच्छी है.वे अच्छे संप्रेषक हैं.मगर क्या सरकारी योजनाओं की रूप-रेखा में भी हिंदी दिखाई पड़ती है? इन दिनों की पूरी की पूरी सरकारी शब्दावली देखिए तो वह आकर्षक अंग्रेज़ी जुमले बनाने में लगी है.'स्मार्ट सिटी' के लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है.कोरोना से लड़ने के लिए प्रधानमंत्री तीन टी- ट्रेस, ट्रैक, ट्रीट- का नारा देते हैं, लेकिन इसके हिंदी विकल्पों के बारे में कोई नहीं सोचता.ऐसी ढेर सारी योजनाओं के अंग्रेज़ी नाम मिल जाएंगे, जिनके हिंदी पर्यायों के बारे में कोई सोचता तक नहीं.
सच तो यह है कि अपने सार्वजनिक इस्तेमाल में हिंदी धीरे-धीरे सत्ता की हनक की भाषा होती जा रही है.इस भाषा में जातिगत पूर्वग्रह बोलते हैं, सांप्रदायिक घृणा बोलती है, सियासत की चालाकी बोलती है, सत्ता का दर्प बोलता है, सामंती ऐंठ बोलती है और आधुनिक लंपटता बोलती है.इसमें नकली और खोखले वादों से भरी राजनीति बढ़ती जा रही है, गंदी गालियों से भरी फिल्मों और सीरीज़ वाले ओटीटी प्लैटफॉर्म की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है, बाज़ार की विज्ञापनबाज़ भाषा बढ़ती जा रही है, लेकिन रचनात्मक संवाद की संभावना घटती जा रही है, वह कविता कम होती जा रही है जो सुकून दे, वह साहित्य कम दिख रहा है जो गहराई दे- अगर वह है भी तो अपने समाज से बुरी तरह कटा हुआ है.
इस हिंदी को बचाने की लड़ाई बहुत लंबी और तीखी होने जा रही है.पता नहीं, हम यह लड़ाई लड़ने को तैयार हैं भी या नहीं.