इतिहास, संस्कृति और खेल का रिश्ता अटूट होता है। यह इससे भी जाहिर होता है कि क्यों कुछ देश ओलंपिक की हर विधा में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं करते, बल्कि कुछ खेल विशेष में मजबूत दावेदारी पेश करते हैं। जैसे कि चीन व अमेरिका के खिलाड़ी अब करते हैं और कभी रूसी व जर्मनों ने किया था। ब्राजील और वॉलीबॉल; जापान और जूडो; क्यूबा और मुक्केबाजी; हंगरी और वाटर पोलो; ऑस्ट्रेलिया और तैराकी; जमैका और स्प्रिटिंग (कम दूरी में तेज दौड़ना); केन्या व इथियोपिया और मध्यम दूरी की दौड़ जैसे तमाम उदाहरण हमारे सामने पसरे हैं, लेकिन परंपरा और खेल उत्कृष्टता के संगम का बेहतरीन नजारा दक्षिण कोरियाई तीरंदाज पेश करते हैं।
1972 के म्यूनिख खेलों से आधुनिक तीरंदाजी की शुरुआत हुई। उसके बाद से 45 स्वर्ण पदकों में से 27 दक्षिण कोरिया ने जीते हैं, जिनमें से नौ पदक महिला टीम ने, नौ पदक महिलाओं ने व्यक्तिगत तौर पर, दो पुरुष टीम, छह पुरुष व्यक्तिगत ने और टोक्यो में पहली बार मिश्र टीम ने भी हासिल किया। यह रिकॉर्ड केवल मिथक या इतिहास की देन नहीं है। तमाम ओलंपिक पदकों की तरह इसमें भी कोई ईश्वरीय कृपा नहीं बरसी। यह उपलब्धि तो एक ऐसी संस्कृति की देन है, जिसमें शामिल हैं- प्राथमिक स्कूलों से ही तीरंदाजी पर जोर, स्थानीय क्लबों में मनोरंजन के रूप में इसका प्रोत्साहन, टैलेंट हंट्स द्वारा किया जाने वाला उत्साहवद्र्धन, बेहतरीन शोध-कार्यों को अपनाने वाली कंपनियों द्वारा मिलने वाला बढ़ावा और कठोर अभ्यास व दिमागी ताकत से खिलाड़ियों का कौशल विकास। प्राचीन विद्या और आधुनिक प्रशिक्षण के मेल से दक्षिण कोरिया विश्व विजेताओं की पंक्ति बनाने में कामयाब रहा है। यह देश आज तीरंदाजी में उतना ही बेहतर है, जितना कोई अन्य राष्ट्र किसी अन्य विधा में।
अगर भारत में कोई एक खेल, जो इस उदाहरण से सीख सकता है या इसकी तरह आगे बढ़ सकता है, तो वह है कुश्ती। वर्ष 2016 में आई किताब इंटर द दंगल; ट्रैवल्स थ्रू इंडियाज रेसलिंग लैंडस्केप में हिन्दुस्तान टाइम्स के राष्ट्रीय खेल संपादक रुद्रनील सेनगुप्ता ने बताया है कि कुश्ती की जड़ तो 1,000 ईस्वी तक जाती है। अखाड़ा संस्कृति आंशिक तौर पर मनोरंजन के रूप में शाही संरक्षण में फली-फूली। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि राजाओं और स्थानीय क्षत्रपों ने चूंकि किसान समाज से जवानों को लेकर सेनाएं बनाई थीं, इसलिए किसी जंग के वास्ते तैयार होने के लिए वे कुश्ती लड़ा करते थे। तब पहलवान कर्तव्य, बंधुत्व व वैराग्य के कायदे-कानून अपनाते, और समाज में पूजे जाते थे।
अखाड़ा संस्कृति अपनी गति से आगे बढ़ती रही। यहां तक कि जब योद्धाओं के तौर पर पहलवानों की जरूरत नहीं रह बची, तब भी कुछ इलाकों में यह परंपरा कायम थी, खासकर हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र में। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ओलंपिक में भारत के लिए पहला व्यक्तिगत पदक (जिस रिकॉर्ड को बरसों बाद 1996 में लिएंडर पेस ने तोड़ा) सन 1952 में हेलसिंकी में सतारा के निवासी पहलवान खाशाबा जाधव ने जीता था।
आखिर भारत एक प्रमुख कुश्ती देश के रूप में क्यों नहीं उभर सका? इसकी दो प्रमुख वजहें रहीं- पहली, यहां ऐसे तंत्र और संसाधनों का अभाव रहा, जो अपनी परंपरा का इस्तेमाल आधुनिक खेल में कर सके, और दूसरी वजह है, मिट्टी में लड़ी जाने वाली भारतीय कुश्ती और मैट पर होने वाली पहलवानी के बीच की खाई। फिर भी पहलवान उभरते चले गए। करतार सिंह ने 1978 और 1986 के एशियाई खेलों में स्वर्ण जीता, सतपाल सिंह ने 1982 में एशियाड, घर-घर में पहचाने जाने वाले चंदगी राम ने 1970 के एशियाई खेलों में 100 किलोग्राम वर्ग में सोना जीता, और दारा सिंह तो सुपरस्टार ही बने रहे। पिछले 15 वर्षों में, जब क्रिकेट के इतर खेलों को भी सरकार, गैर-सरकारी संस्थाओं और कॉरपोरेट घरानों से समर्थन मिलने लगा, तब पहलवानों की दबी प्रतिभा निखरकर सामने आ गई। सुशील कुमार ने 2008 व 2012 ओलंपिक में पदक जीते, तो योगेश्वर दत्त ने 2012 के ओलंपिक में, और साक्षी मलिक ने 2016 के रियो ओलंपिक में। बीते बुधवार को सोनीपत के 23 वर्षीय रवि दहिया ने चार अंकों से पिछड़ने के बावजूद अपने प्रतिद्वंद्वी को पटखनी देकर यह सुनिश्चित कर दिया कि भारतीय पहलवान टोक्यो से खाली हाथ नहीं लौटेंगे और वह रजत पदक जीतने में कामयाब रहे। मगर सफलता अक्सर दरारों की लीपापोती कर देती है। ऐसा कुश्ती के साथ नहीं होना चाहिए। जीत पर खुशी मनाते समय यह सवाल जरूर जेहन में होना चाहिए कि भारत अपनी समृद्ध संस्कृति से क्या कुछ हासिल करने को इच्छुक है? क्या हमारी उड़ान उसी तरह होगी, जिस तरह दक्षिण कोरिया ने तीरंदाजी में भरी है, या फिर एक ओलंपिक से दूसरे ओलंपिक में अपनी पारंपरिक महारत को जीवित रखने के लिए हमें संघर्ष करना होगा?