दमन का रास्ता

पूरी दुनिया में शायद कहीं ऐसी पुलिस नहीं होगी, जैसी भारत में है। किसी आंदोलन, धरना-प्रदर्शन से निपटने का उसे एक ही तरीका पता है- दमन। यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। जहां भी कोई आंदोलन सिर उठाता है

Update: 2022-08-24 04:37 GMT

Written by जनसत्ता: पूरी दुनिया में शायद कहीं ऐसी पुलिस नहीं होगी, जैसी भारत में है। किसी आंदोलन, धरना-प्रदर्शन से निपटने का उसे एक ही तरीका पता है- दमन। यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। जहां भी कोई आंदोलन सिर उठाता है, पुलिस अपनी लाठी-बंदूक उठा लेती है। बिहार में शिक्षक भर्ती अभ्यर्थियों पर उसका 'शौर्य प्रदर्शन' इसका ताजा उदाहरण है। सब जानते हैं कि वहां शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में लंबे समय से टालमटोल का रवैया बना हुआ है। राज्य के वर्तमान उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव जब विपक्ष में थे तो वे यह दावा करते नहीं थकते थे कि अगर उनकी सरकार होगी, तो शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया को तत्काल शुरू करेगी, ताकि राज्य की शिक्षा-व्यवस्था बेहतर हो सके।

नई सरकार बनते ही अभ्यर्थी एकजुट होकर अपनी फरियाद सुनाने निकल पड़े। मगर उन्हें फिर वही मिला, जो पहले मिला करता था- लाठी का वार। हद यह कि खुद वहां के एडीएम तिरंगा लिए गिरे पड़े एक युवक को बेरहमी से पीटते रहे। जब इस घटना की तस्वीरें तेजी से प्रसारित होनी शुरू हुर्इं, तो पहले सरकार ने घटना से अनजान होने की भंगिमा प्रकट की, फिर इसकी जांच के लिए एक समिति गठित कर दी। सरकारों का यह तरीका अब बहुत घिस-पिट चुका है।

सरकार अगर कानून-व्यवस्था को लेकर लोकतांत्रिक तौर-तरीका अपनाना चाहती, तो पुलिस इस तरह मध्ययुगीन बर्बरता का खुला प्रदर्शन नहीं करने पाती। किससे छिपा है कि पुलिस सरकारों की मंशा के अनुरूप काम करती है। अगर सरकार आंदोलनकारी छात्रों-अभ्यर्थियों की समस्या सुनने और उसका समाधान निकालने की इच्छुक होती, तो उनसे बातचीत के लिए अपना कोई प्रतिनिधि भेजती या खुद मंत्री जाते। मगर अब तो सरकारों ने जैसे मान लिया है कि लोगों की आवाज दबाने का एक ही तरीका है दमन। जैसे ही कोई आंदोलन उठे, उसे लाठी-डंडे को बल पर रोक दो।

ज्यादा दिन नहीं हुए, जब उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में इसी तरह टेट परीक्षा में गड़बड़ी को लेकर छात्र आंदोलन पर उतरे थे और पुलिस ने बेलगाम अपनी ताकत का प्रदर्शन किया था। उसकी घोर निंदा हुई थी। मगर बिहार पुलिस ने उससे सबक लेना जरूरी नहीं समझा। ठीक वैसा ही बल प्रयोग पटना में किया गया।

दरअसल, हमारी पुलिस के प्रशिक्षण में ही दोष है। उसे आंदोलनकारियों, प्रदर्शनकारियों, उपद्रवी भीड़ आदि से निपटने का सही प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। किसी भी लोकतंत्र में नागरिकों को अपने हक के लिए आवाज उठाने का अधिकार है और उसे सुनना सरकारों का दायित्व। पुलिस को कोई अधिकार नहीं कि इस तरह आंदोलनकारियों पर बल प्रयोग करे। उनके साथ हिंसक व्यवहार करे। अगर कहीं, किसी वजह से भीड़ बेकाबू हो जाए, तो हवा में गोली चलाने, आंसू गैस के गोले दागने, पानी की बौछार करने आदि का नियम है।

लाठी से पीट कर अधमरा कर देने का अधिकार पुलिस को नहीं है। यह अधिकार उसे सरकारें देती हैं। उन्हीं के इशारे पर आंदोलनकारियों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है। इस मामले में बिहार सरकार अपनी जवाबदेही से पल्ला नहीं झाड़ सकती। जिस पुलिस अफसर ने अभ्यर्थियों पर लाठियां बरसार्इं, उसे कठोर दंड मिलना चाहिए और साथ ही पुलिस को स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि किसी भी आंदोलन से निपटने का क्या तरीका होगा। लोकतंत्र लाठी के बल पर जिंदा नहीं रह सकता। दमन के सहारे सरकारें व्यवस्था बनाने का दम बेशक भरती दिखती हों, पर इस तरह उनके पांव भी जल्दी उखड़ जाते हैं।


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