युद्ध और विश्व-राजनीति

रूस और यूक्रेन के बीच पिछले 11 दिनों से चल रहा युद्ध निर्णायक मोड़ पर तब आ सकता है जब ‘कीव’ शहर पर रूसी फौजों का कब्जा हो जाये जो कि यूक्रेन की राजधानी है। इस युद्ध में हमें कुछ अजीब नजारे भी देखने को मिल रहे हैं |

Update: 2022-03-07 03:52 GMT

आदित्य चोपड़ा: रूस और यूक्रेन के बीच पिछले 11 दिनों से चल रहा युद्ध निर्णायक मोड़ पर तब आ सकता है जब 'कीव' शहर पर रूसी फौजों का कब्जा हो जाये जो कि यूक्रेन की राजधानी है। इस युद्ध में हमें कुछ अजीब नजारे भी देखने को मिल रहे हैं, मसलन रूस की बढ़ती फौजों का मुकाबला करता यूक्रेन स्वयं ही अपने नागरिकों को कई शहरों में ढाल बना कर रूसी फौजों को आगे बढ़ने से रोकने की कोशिशें कर रहा है और अगर रूस की मानें तो कई स्थानों पर नागरिक सुविधाओं पर ही स्वयं ही बमबारी कर रहा है जिससे युद्ध में निरीह नागरिकों को निशाना बनाये जाने का आरोप वह रूस पर लगा सके। यूक्रेन राष्ट्रपति लेजेंस्की के कीव छोड़ कर पोलैंड चले जाने की अफवाहों के बीच समस्त पश्चिमी देशों व अमेरिका द्वारा रूस के खिलाफ कड़े आर्थिक प्रतिबन्धों की घोषणाएं लगातार की जा रही हैं जिन्हें रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने युद्ध जैसी कार्रवाई की श्रेणी में ही रखा है परन्तु ताजा खबरों के अनुसार रूसी सेनाएं अब कीव शहर के बहुत करीब पहुंच गई हैं और कीव के ही उपनगरों को पहले निशाने पर रख कर वहां से नागरिकों के निकल जाने का सन्देश दे रही हैं परन्तु सवाल यह है कि यह सब हो क्यों रहा है? कुछ दिनों पहले ही अमेरिका के माने हुए कूटनीतिज्ञ व पूर्व विदेश मन्त्री हेनरी किसिंजर ने एक अखबार में लेख लिख कर यूक्रेन को सुझाव दिया था कि लेजेंस्की को बजाय नाटो देशों की सदस्यता पर जोर डालने के 'यूरोपीय संघ' का सदस्य बनना चाहिए और यूरोप व अमेरिका की आर्थिक विकास की प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए। इस पर यूक्रेन ने अमल भी बहुत जल्दी किया और संघ की सदस्यता के लिए आवेदन कर दिया जिसे संभवतः स्वीकार भी कर लिया गया है। मगर लेजेंस्की इसके बावजूद नाटो देशों से गुहार लगा रहे हैं कि उन्हें युद्ध सामग्री की मदद दी जाये और नाटो को यूक्रेन को 'प्रतिबन्धित हवाई क्षेत्र' (नो फ्लाई जोन) घोषित कर देना चाहिए। राष्ट्रपति पुतिन ने इस पर बहुत गहरी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि यदि ऐसा होता है तो इसे नाटो द्वारा रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा माना जायेगा। इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि लेजेंस्की की मंशा शान्ति पूर्ण प्रयासों के जरिये वार्ता के माध्यम से रूस से अपने मतभेद समाप्त करने की नहीं है बल्कि युद्ध भड़काए रखने और इसे जारी रखने की है जिससे रूस को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर ज्यादा से ज्यादा अलग-थलग किया जा सके। इसका दूसरा मन्तव्य यह भी निकलता है कि अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देश जिस प्रकार से लेजेंस्की के समर्थन में रूस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये जा रहे हैं, उनका मन्तव्य भी यूक्रेन के कन्धे पर बन्दूक रख कर रूस को ज्यादा से ज्यादा आर्थिक रूप से तंग करने का है, जिसका विपरीत असर स्वाभाविक तौर पर रूसी नागरिकों पर ही होगा। अतः अमेरिका व पश्चिमी देश प्रत्यक्ष रूप से यूक्रेन की सहायता में अपने सैनिक न भेज कर परोक्ष रूप से रूस से ऐसा युद्ध लड़ रहे हैं जिससे रूस के भीतर ही राष्ट्रपति पुतिन के विरुद्ध जन भावनाओं को जगाया जा सके। पश्चिमी देशों की इस चतुराई को हमें समझना होगा क्योंकि पिछले लगभग बीस वर्षों से रूस की सत्ता संभाले पुतिन ने अपने देश की उस खोई हुई ताकत को पुनः जुटाने का प्रयास किया जो 1991 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद खत्म सी हो गई थी। संपादकीय :पाकिस्तान फिर ग्रे लिस्ट मेंडिलीवरी ब्वाय...चुनावी शोर-शराबा समाप्तमस्त मलंग शेनवार्नयूक्रेन से लौटे छात्रों की शिक्षा का भविष्यभारत एक आवाज में बोलेपश्चिमी देशों से यह सहन नहीं हो पा रहा है जिसकी वजह से वे रूस को अकेला खड़ा कर देना चाहते हैं। वरना क्या वजह है कि युद्ध को टालने की गरज से किसी भी यूरोपीय देश ने लेजेंस्की को यह सलाह नहीं दी कि वह नाटो का सदस्य बनने की जिद छोड़ कर अपने देश के आर्थिक विकास पर ध्यान दें परन्तु ऐसा लगता है कि पश्चिमी देशों को अब अपनी रणनीति में खामी नजर आ रही है जिसकी वजह से इस्राइल के प्रधानमन्त्री श्री पुतिन से भेंट करने मास्को पहुंचे हैं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि यूक्रेन के नव नात्सी भी आतंकवादी मानसिकता के ही शिकार हैं । इसके साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जिस तरह सोवियत संघ ने जर्मनी के हिटलर के नात्सियों का विनाश किया था और इसे बीच से तोड़ कर बर्लिन की दीवार खड़ी करके दो जर्मनियों पूर्वी व पश्चिम जर्मनी में बांट दिया था, उसका भी असर हो क्योंकि इसके बाद ही यहूदियों के लिए एक पृथक देश बनाने का फैसला राष्ट्रसंघ में हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध पूंजीवादी अमेरिका व फ्रांस व ब्रिटेन आदि के साथ सोवियत संघ ने मिल कर लड़ा था और इस युद्ध में सबसे ज्यादा सैनिक सोवियत संघ के ही हताहत हुए थे और इसी के बाद पूरी दुनिया दो महाशक्तियों अमेरिका व रूस के इर्द-गिर्द सिमट गई थी परन्तु 1988 में बर्लिन की दीवार ढहने और 1991 में सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद पूरी दुनिया एकल ध्रुवीय अमेरिकी महाशक्ति के रूप में जानी जाने लगी। ऐसे माहौल में रूस के पुनः शक्तिशाली होने की संभावनाओं का तोड़ यूक्रेन के रूप मे सशक्त रूप से उभरा है वरना क्या वजह है कि स्वयं अपने ही विनाश को दावत देने वाले यूक्रेन के मुंह से यह नहीं फूट पा रहा है कि उसका नाटो का सदस्य बनने का कोई इराद नहीं है जिससे रूस के पास युद्ध समाप्त करने के अलावा और कोई चारा ही न रहे। सवाल यह है कि यूक्रेन क्यों नाटो देशों की मिसाइलों को अपनी रूस से लगती सीमाओं पर तैनात करवाना चाहता है?


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