कोरोना महामारी ने देश का कुछ भला नहीं किया, यह स्पष्ट है। लेकिन भयतन्त्र का विकास कर दिया। तभी तो जब भुखमरी और छाले पड़े पांवों वाले मज़दूरों के पलायन से घबरा कर पूर्णबंदी के ताले खुले तो कोरोना संक्रमण का भूत उसी प्रकार अपने डर का ताण्डव नाच रहा था। बाज़ार खुल गए, ग्राहक नदारद थे। यूं लगता है जैसे इन खुली दुकानों के सामने से कोई किस्सागो अपनी 'शेर आया, शेर आया' की घोषणा की डरा देने वाली कहानी कह गया। फिर जब अब इस कहानी की आव कुछ मंद हुई, लोग अब अपने-अपने घरों से निकलने के बारे में सोच ही रहे थे, तो सरकारों के रुख बदलते आदेश अपना जलवा दिखाने लगे। दुकानों को खुली रखने का आदेश मिला लेकिन ग्राहकों को हुक्म था, अपने स्मार्ट फोन के एप से ई-पास निकाल कर बाहर आओ। अब न नौ मन तेल हुआ और न राधा नाची! जुर्माने के डर से स्मार्ट फोनों ने ई-पास नहीं उगले। अभी भी महामारी के भय का बाज़ार सजाने में कोई कमी नहीं आई। देश की शीर्ष अदालत संक्रमित मरीजों की मौत पर आश्रितों को मुआवजा देने के लिए कहती है। देश के मीरे कारवां अपनी बैठकों में आम आदमी के बढ़ते दुख पर चिन्ता प्रकट करते हैं और एकबारगी तो यह मानने से इंकार कर देत हैं कि अस्पतालों में इस व्याधि से पीडि़त मरीजों की मौत ऑक्सीजन के अभाव में हुई थी। इस सब के बीच माहौल की सूनी दीवारें कहती हैं कि 'इस दौरे सियासत में इतना सा फसाना है, बस्ती भी जलानी है, मातम भी मनाना है।'
बेशक इनकी चिन्ता दर्द भरी है। इस देश के लोगों को इंतज़ार करने की आदत हो गई है। बरसों से अच्छे दिन आने का इंतज़ार भी तो वे कर रहे हैं। इनमें मुआवजे का इंतज़ार बस शामिल हो गया। चाहे कितने भी क्रांतिकारी फैसले आ जाएं लेकिन उनकी उदारता जनता तक पहुंचने से पहले ही कोई न कोई चोर दरवाजा निकल आता है। लेकिन साहिब, यह इंतज़ार तो जैसे मृत्युभय का एक मेला बन गया। अधूरे बने पुलों पर रुके हुए लोग इस मेले के छंटने का इंतज़ार करते हुए किसी नए विजय मेले के आगमन के सावन में झूलों के पडऩे का इंतज़ार करते रहे। लेकिन अब सावन भी लगभग बीत चुका है। क्या करें दोस्तो, ऐसा तो सदा होता ही रहता है।
जब-जब ऐसा होता है, फेसबुक पर, व्हाट्सअप पर, ट्विटर पर, इंस्ट्राग्राम पर नए उभरते कवियों का सैलाब आ जाता है। छपे हुए शब्दों, बरसों की साधना के बाद बाहर आई किताबों का अवमूल्यन हो जाता है। अब तो वीडियो चैटिंग के नाम पर कविगण अपनी कविताओं का नाश्ता आपको परोस रहे हैं। सैमीनारों का क्रियाकर्म वैबिनार करने लगे और यार लोग फेसबुक के सहारे आपको न केवल सम्मान पत्र बांट रहे हैं बल्कि समय के मसीहा भी घोषित कर रहे हैं। जी हां, ऐसा ही हुआ है, खूब हुआ है। इसे साहित्य के वैश्वीकरण और दर्शन शास्त्र की सार्वजनिकता का नाम भी दे दिया गया है। साहित्य की धरती पर इतने कुकुरमुत्ते उग आए हैं। दर्शन की भूमि से इतने फतवेबाज पैदा हो गए। जीवन की निस्सारता और सम्पदा के स्वामित्व के क्षणभंगुर का ऐसा साक्षात्कार उन्हें पहले कभी हुआ ही नहीं था। आज जैसे उनके अन्तस तक उतर गया। लेकिन जैसे ही पूर्णबंदी के ताले खुलने का स्वर होता है, कुकुरमुत्ते क्यों रंग बदल कर फिर गुलाब हो जाना चाहते हैं। बड़े आदमियों के गले का श्रृंगार हो जाना चाहते हैं। कोरोना काल कब जा रहा है, बन्धु? कुकुरमुत्ता हो रहे लोगों को सफलता के आकाश का इंद्रधनुष बनने का मौका कब मिलेगा। भय के बाज़ार और औषधि के इंतज़ार पर बहुत दिन तक कहानी, कविता कहते रहना भी तो कठिन काम है, बन्धु।
सुरेश सेठ
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