कश्मीर घाटी में अल्पसंख्यकों को जिस तरह से निशाना बनाया जा रहा है, उसकी जितनी निंदा की जाए कम होगी। ऐसे कायर फिर सिर उठा रहे हैं, जो अब लगभग हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। किसी भी मकसद में जब हिंसक ताकतें आम निहत्थे लोगों को निशाना बनाने लगती हैं, तब दरअसल वे अपनी बुनियादी हार का ही संकेत देती हैं। बुधवार को आतंकियों की कारस्तानी की चर्चा अभी शुरू ही हुई थी कि उन्होंने श्रीनगर में गुरुवार सुबह ईदगाह इलाके में स्थित एक सरकारी स्कूल में हमला कर दिया। इस हमले में स्कूल के प्रधानाध्यापक और शिक्षक की मौत हो गई है। गैर-मुस्लिमों को निशाना बनाने का मकसद साफ तौर पर समझा जा सकता है। जो लोग देश में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव को लेकर चिंतित हैं, उनकी चिंता का स्तर अब और बढ़ गया है। घाटी में लगातार यह साबित करने की कोशिश होती रही है कि दो समुदाय मिलकर साथ नहीं रह सकते। समुदायों के बीच पिछले दिनों से देखे जा रहे सद्भाव पर प्रहार करने की यह नापाक कवायद जिन लोगों की दिमाग की उपज है, वे दरअसल इंसानियत के दुश्मन हैं। वे नहीं चाहते कि कश्मीर में अमन-चैन की बहाली हो। जिस तरह से कश्मीर में राष्ट्रीय महत्व के उत्सवों को मनाने की शुरुआत हुई है, जिस तरह कश्मीर के प्रति बाकी भारत में लगाव बढ़ा है, उससे आतंकियों को अपनी जमीन खिसकती लग रही है।
अपेक्षाकृत सुरक्षित माहौल बनाने में कामयाब हो रहे सुरक्षा बलों को पूरे संयम के साथ ऐसे कायराना हमलों का जवाब देना चाहिए। कायरों के नेटवर्क को समय रहते तोड़ना होगा। सुरक्षा बलों को कश्मीर की उस बेटी की आवाज पर कान देना चाहिए, जो पिता की मौत के बाद भी मुकाबले के लिए तैयार है। बुधवार को भी आतंकियों ने एक के बाद एक तीन हमले किए थे, जिनमें तीन अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया था। इसमें सबसे दुखद हत्या माखनलाल बिंद्रू की है। घाटी में दवाई की दुकान चलाने वाले बिंद्रू उन गिने-चुने हिंदुओं में शामिल थे, जो 1990 और 1991 के खतरनाक समय में भी घाटी में पांव जमाए रहे। सांप्रदायिकता की आग में झुलस रही घाटी में भी बिंद्रू कश्मीरियत को संजोए हुए थे। बिंद्रू की बेटी के उद्गार सुनने के बाद कश्मीरियत और भारतीयता, दोनों की मजबूती का पता चलता है। वह भारत की बेटी पिता को खोने के बावजूद बोल रही है, 'तुम लोग पत्थर फेंक सकते हो, पीछे से गोली मार सकते हो, तुम लोगों में हिम्मत है, तो आगे आओ।' दरअसल, यह निडर भारतीयता का जयघोष है, जो निश्चित रूप से देशवासियों को जोश से भर देता है। सीमा पार से चल रही नापाक लड़ाई पाकिस्तान छिपकर ही लड़ रहा है, उसमें हिम्मत नहीं कि भारतीय जवानों का सामना कर सके। अगर इन हमलों के बाद श्रीनगर में लोग विरोध में सड़कों पर उतरे हैं, तो सुरक्षा बलों की भी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। आम लोगों का शिकार करने निकले दरिंदों पर जल्द से जल्द शिकंजा कसना चाहिए। इसके अलावा मानवाधिकार के नाम पर आतंकियों और उनके समर्थकों का पक्ष लेने वाले पेशेवर भड़काऊ लोगों को भी शर्म आनी चाहिए। राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को मजहबी नजरिए से नहीं, बल्कि इंसानियत की नजर से कश्मीर में होने वाली हिंसा को देखना चाहिए, ताकि बिंद्रुओं, दीपकों, सुपिंदरों का मानवाधिकार भी सुरक्षित रहे।
केडिट बाय हिन्दुस्तन