विजय दर्डा का ब्लॉग: पुर्तगाल में गर्भवती भारतीय महिला की मौत पर मंत्री का इस्तीफा...और हमारे यहां?
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
घटना वैसे तो बहुत ही संक्षिप्त सी है. एक भारतीय महिला घूमने के लिए पुर्तगाल गई थी. चौंतीस वर्षीय वह महिला इकत्तीस सप्ताह की गर्भवती थी. पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में अचानक उसकी तबियत बिगड़ी. उसे वहां के सबसे बड़े सांता मारिया अस्पताल ले जाया गया. अस्पताल ने कहा कि मैटरनिटी वार्ड में जगह खाली नहीं है और उसे शहर के दूसरे अस्पताल में रेफर कर दिया गया. दूसरे अस्पताल में पहुंचने से पहले ही उस महिला ने दम तोड़ दिया. मृत मां के गर्भ से बच्चे को सुरक्षित निकालने में चिकित्सक कामयाब रहे लेकिन इस संक्षिप्त सी घटना ने पुर्तगाल की राजनीति में भूचाल ला दिया.
सरकारी व्यवस्था की इतनी आलोचना शुरू हो गई कि मजबूर होकर प्रधानमंत्री एंटोनियो कोस्टा को स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर मार्टा टेमिडो का इस्तीफा लेना पड़ा. आप यह जानकर हैरान हो जाएंगे कि स्वास्थ्य मंत्री टेमिडो कोई सामान्य महिला नहीं हैं. उन्होंने कोविड संकट के दौरान पुर्तगाल को महफूज रखने में बड़ी भूमिका निभाई और पूरी दुनिया में उनकी तारीफ हो रही थी.
ऐसी शख्सियत से भी इस्तीफा ले लेने का मतलब निश्चय ही यह संदेश देना है कि हर एक व्यक्ति की जान महत्वपूर्ण है. चाहे वो स्थानीय हो या फिर देश का मेहमान. व्यवस्था में लापरवाही किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए.
मेरे मन में सवाल यह पैदा हो रहा है कि हमारे यहां तो इस तरह की घटनाएं रोज देश के किसी न किसी हिस्से में होती हैं. फिर हमारे यहां स्वास्थ्य सेवा के मामले में इस तरह जीरो टॉलरेंस की नीति क्यों नहीं है? स्वास्थ्य मंत्री की बात तो छोड़ दीजिए क्या किसी अस्पताल का कोई अधिकारी निलंबित भी होता है?
मुझे पिछले साल की घटना याद आ रही है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया एक दिन आम मरीज बनकर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल पहुंचे और बेंच पर बैठ गए. वे देखना चाहते थे कि हालात क्या हैं. इसी दौरान एक गार्ड ने उन्हें डंडे से धकेल भी दिया. बाद में अस्पताल में चिकित्सा सुविधा का शुभारंभ करने पहुंचे मांडविया ने खुद यह कहानी सुनाई थी. उन्होंने यह भी बताया कि 75 साल की एक महिला को अपने बेटे के लिए स्ट्रेचर की आवश्यकता थी लेकिन गार्ड ने कोई मदद नहीं की. स्वास्थ्य मंत्री की उस स्वीकारोक्ति से मुझे कोई अचरज नहीं हुआ था क्योंकि यह हालत तो अमूमन हर सरकारी अस्पताल की है और हर व्यक्ति इस हकीकत को समझता है.
नीति आयोग ने पिछले साल 'रिपोर्ट ऑन बेस्ट प्रैक्टिसेस इन द परफॉर्मेंस ऑफ डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल' नाम से एक अध्ययन रिपोर्ट जारी की थी. हालांकि वह रिपोर्ट वर्ष 2017-18 के आंकड़ों पर आधारित थी लेकिन उस रिपोर्ट से सच्चाई तो सामने आती ही है. रिपोर्ट कहती है कि देश के 707 जिला अस्पतालों में से एक भी अस्पताल मानकों पर सौ फीसदी खरा नहीं उतरा. मैं रिपोर्ट के आंकड़ों में नहीं जाना चाहता लेकिन इस सच्चाई को तो स्वीकार करना पड़ेगा कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हमारी व्यवस्था फिसड्डी साबित हो रही है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर 1000 की आबादी पर कम से कम 5 बेड तो होने ही चाहिए लेकिन हमारे यहां यह संख्या महज 0.4 के आसपास है. संदर्भवश मैं बताना चाहूंगा कि जापान में यह संख्या 13 है. सच्चाई यही है कि हमारे देश में हेल्थ सेक्टर कभी हमारी प्राथमिकता में रहा ही नहीं है. हमारे यहां जीडीपी का औसतन 1 प्रतिशत हिस्सा ही स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है जबकि ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में जीडीपी का 8 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है. क्या आपको पता है कि दुनिया में डायबिटीज के ज्ञात मरीजों में से 17 प्रतिशत भारत में हैं? इसीलिए भारत को विश्व का डायबिटीज कैपिटल कहा जाने लगा है लेकिन इस पर हमारी सरकार का कोई ध्यान नहीं है.
चलिए, इन सब बातों को हम अलग भी रख दें तो सबसे बड़ा सवाल है कि जो संसाधन हमारे पास हैं, क्या उनका उपयोग भी ठीक से हो रहा है? जिला और पंचायत स्तर पर चिकित्सा सेवा के लिए सरकार अपने तईं काफी खर्च करती है. सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल्स बने हैं. डॉक्टर्स, नर्सेज, उपकरण और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर जितना खर्च होता है उतना प्राइवेट हॉस्पिटल्स में नहीं होता लेकिन लोग सरकारी अस्पताल में जाना पसंद नहीं करते क्योंकि वहां हाइजीन कंडीशन ठीक नहीं है. मशीनें बंद रहती हैं. दवाइयां नहीं होतीं!
मैं दोष देने के लिए दोष नहीं दे रहा हूं. हकीकत को तो स्वीकार करना ही होगा. आप सरकारी अस्पतालों में जाएं तो एक उदासी सी दिखती है. आपको याद होगा कि एक व्यक्ति को एंबुलेंस नहीं मिल पाई तो वह अपनी पत्नी का शव कंधे पर लेकर गया था. हमारे यहां अस्पतालों में आग लग जाने से बच्चे मर जाते हैं. ऑक्सीजन की पाइप हट जाने से लोगों की मौतें हो जाती हैं. न जाने कितनी विसंगतियां उभर कर सामने आती रहती हैं.
विदेशों में सरकारी अस्पताल अमूमन बेहतरीन होते ही हैं, भारत की बात करें तो मुंबई में सरकारी और मनपा के अस्पताल बेहतर स्थिति में हैं. सवाल है कि छोटे शहरों, कस्बों या गांवों में सरकारी अस्पताल बेहतर क्यों नहीं हो सकते? कोई मंत्री, सांसद, विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष, पार्षद या बड़ा अधिकारी उपचार के लिए सरकारी अस्पताल में क्यों नहीं जाता? स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारना है तो सभी लोक प्रतिनिधियों और अधिकारियों के लिए यह तय कर देना चाहिए कि वे अपना और परिवार का उपचार सरकारी अस्पताल में ही कराएं. फिर देखिए... कैसे चमत्कार होता है...!