फिर एकजुट हों निरपेक्ष देश
रूस-यूक्रेन युद्ध में बेलारूस का कथित तौर पर शामिल होना चौंकाता नहीं है
शशांक
रूस-यूक्रेन युद्ध में बेलारूस का कथित तौर पर शामिल होना चौंकाता नहीं है। इस जंग के बड़े फलक पर लड़ने की आहट पहले से ही सुनी जा रही थी। रूस पिछले कई वर्षों से यह कहता आ रहा था कि नाटो अपने हथियार लेकर मॉस्को के करीब न आए। मगर ऐसा नहीं हुआ। नाटो का न सिर्फ विस्तार होता गया, बल्कि पूर्व के सोवियत संघ के देशों में 'कलर रिवॉल्यूशन' (लोकतंत्र के समर्थन में हुए सत्ता-विरोधी आंदोलन) सफलतापूर्वक संपन्न भी हुए। जब रूस द्वारा खींची गई 'लाल रेखा' के करीब नाटो पहुंच गया, तो राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन पर धावा बोल दिया। उनको अगली क्रांति रूस में होने का अंदेशा रहा होगा। जाहिर है, तनाव काफी पहले से था, यह जंग तो उसकी महज परिणति है।
बेशक, बेलारूस प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जंग में उतर गया है, लेकिन दबाव रूस पर कहीं अधिक है। पश्चिम और पूर्वी यूरोप के देश खुले तौर पर यूक्रेन के समर्थन में आ गए हैं। नाटो ने भी एलान किया है कि वह भले अपने सैनिकों को यूक्रेन नहीं भेज रहा, लेकिन उसे सभी सैन्य साजो-सामान जरूर मुहैया करा रहा है। यूक्रेन की सरकार ने भी तकरीबन अपने सभी नागरिकों को हथियार दे दिए हैं, और वे सभी दुश्मन फौज के खिलाफ मोर्चा संभाल चुके हैं। इससे रूस के उस दावे की कलई खुल रही है, जिसमें कहा गया था कि वह यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में रहने वाले रूसी या रूसी मूल के नागरिकों की सुरक्षा के लिए हमला करने जा रहा है। अब उसको यह एहसास हो रहा होगा कि पश्चिमी यूक्रेन के बाशिंदे यह नहीं चाहते कि रूस उनके आसपास रहे।
ऐसे में, रूस के पास दो ही रास्ते थे। पहला, आर्थिक प्रतिबंधों को देखते हुए वह अपने साथ अन्य देशों को भी जोड़े, और दूसरा उपाय यह था कि अपनी आक्रामकता बढ़ाए। बेलारूस की आमद के साथ 'फादर ऑफ ऑल बम' के इस्तेमाल की चेतावनी और परमाणु मिसाइल ढोने में सक्षम विमानों की लातीन एवं दक्षिण अमेरिका के नजदीक तैनाती इसी की कड़ी है। वह इसका संकेत देना चाहता है कि जंग दो देशों (रूस व यूक्रेन) में नहीं, बल्कि दो महाशक्तियों (रूस और अमेरिका) के बीच लड़ी जा रही है। उसे इसकी जरूरत इसलिए थी, क्योंकि सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस को अमेरिका महाशक्ति नहीं मान रहा था, और पश्चिम में यह सोच पनपने लगी थी कि वह मॉस्को के जितना करीब पहुंचेगा, रूस खुद में सिमटता चला जाएगा। इससे वहां भी स्वाभाविक तौर पर 'कलर रिवॉल्यूशन' आसान हो जाएगा। अमेरिका की इसी मान्यता को रूस तोड़ना चाहता है।
निस्संदेह, रूस ने यूक्रेन के साथ जो किया है, वह संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों के विपरीत है, लेकिन अमेरिका व उसके सहयोगी देश जो कर रहे थे, वह इन नीतियों के कितनी करीब है, उस पर भी बहस होनी चाहिए, जो शायद ही कभी हो सकेगी। दिक्कत यह भी है कि इस तरह के अंतरराष्ट्रीय संघर्ष तभी होते हैं, जब हर पक्ष खुद को सही और विपक्ष को गलत मान बैठता है। इसलिए, दुनिया के तमाम देशों को इससे ऊपर उठना चाहिए।
भारत फिलहाल इस तनातनी से खुद को अलग रखने में सफल रहा है, लेकिन ऐसा कब तक बना रहेगा, यह कहना मुश्किल है। हमारे हजारों छात्र अब भी यूक्रेन में फंसे हैं और अनवरत तकलीफें झेल रहे हैं। भले ही, यह साफ नहीं हो सका है कि रूस अथवा यूक्रेन ने समय-पूर्व हमें हमले के कोई संकेत दिए थे या नहीं, लेकिन यह स्पष्ट है कि आगे की तस्वीर काफी भयावह है। बेलारूस की सीमा पर दोनों देशों में हुई वार्ता बेनतीजा रही। मगर हमें यह उम्मीद जरूर रखनी चाहिए कि हालात जल्द ही संभाल लिए जाएंगे। और, जब तक ऐसा नहीं होता, हमें अपने छात्रों की सुरक्षा को तवज्जो देनी चाहिए। उनको न सिर्फ स्थानीय प्रशासन के संपर्क में लगातार रहने का निर्देश देना चाहिए, बल्कि यूक्रेन को हरसंभव मानवीय सहायता भी भेजनी चाहिए। हम पूर्व में कई देशों की ऐसी मदद कर चुके हैं।
एक पहल यह भी हो सकती है कि इस जंग में सीधे तौर पर शामिल देशों को यह बताया जाए कि रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों से परोक्ष रूप से भारत भी प्रभावित हो रहा है। उनको यह एहसास दिलाना होगा कि रूस से निकलकर कंपनियां अगर भारत का रुख करती हैं, तो बेहतर है, अन्यथा इन कंपनियों का अन्य देशों में जाना हमें फायदा नहीं पहुंचाएगा। दरअसल, रूस पर इस तरह के प्रतिबंध लगाए गए हैं, जिनसे यूरोप में फार्मा, कृषि उत्पाद, गैस आदि उत्पादों के आयात प्रभावित नहीं होते। ऐसा इसलिए किया गया है, क्योंकि इनका विकल्प यूरोपीय देशों के पास नहीं है। जब तक अमेरिका उनको कोई विकल्प नहीं देता, रूस से इन चीजों की आपूर्ति होती रहेगी। हमें भी कोई उपाय तलाशना चाहिए और ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि गैस व तेल के लिए रूस पर व खाद्य तेल के लिए यूक्रेन पर हमारी निर्भरता कम से कम हो। अमेरिका हमें भरोसा देने की कोशिश करता रहा है और कई मोर्चों पर नई दिल्ली व वाशिंगटन एक-दूसरे के करीब भी आए हैं, मगर यदि हम हर मसले पर अमेरिका का मुंह ताकने लगेंगे, तो सुरक्षा परिषद में हमारे लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।
ऐसे में, कूटनीति का तकाजा यही है कि इस युद्ध में निरपेक्ष रहने वाले तमाम देशों को भारत एकजुट करे। भारत जैसे कई देश हैं, जो इस मसले पर न तो रूस के साथ हैं और न यूक्रेन के। लिहाजा, गुटनिरपेक्ष आंदोलन को फिर से खड़ा करने की कोशिश हमें करनी चाहिए और अफ्रीका व एशिया के देशों को आपस में मिलाना चाहिए। युद्ध खत्म करने के प्रयासों के साथ-साथ भारत को मानवाधिकार संगठनों के साथ मिलकर युद्धग्रस्त क्षेत्रों में मानवीय मदद भी पहुंचानी चाहिए। हमें यह पहल करनी ही होगी, फिर चाहे यह बेशक स्पष्ट न हो कि हम इसमें कितना सफल रहेंगे?