Ukraine War : यूक्रेन संघर्ष के दौरान अमेरिका और चीन के बीच सहयोगियों की तलाश में प्रॉक्सी वॉर जारी
ऐसे में जब मंगलवार को रूस-यूक्रेन युद्ध (Russia Ukraine War) के तीन महीने पूरे हो गए
के वी रमेश |
ऐसे में जब मंगलवार को रूस-यूक्रेन युद्ध (Russia Ukraine War) के तीन महीने पूरे हो गए, हिंद प्रशांत पर केंद्रित चार देश अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, भारत और जापान का समूह क्वॉड (QUAD) की बैठक कर रहा है. दो महीने पहले हुए वर्चुअल शिखर सम्मेलन के बाद इस बार इन देशों के शीर्ष नेता इस बार आमने-सामने बैठ कर बाते कर रहे हैं. चीन को लग रहा है कि यह समूह उसके खिलाफ सैन्य गठबंधन कर रहा है, लेकिन क्वॉड के सदस्यों ने इससे इनकार किया है. चारों देशों ने इस धारणा को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि यह केवल उन देशों का एक संवाद है जो "स्वतंत्र और खुले हिंद-प्रशांत" क्षेत्र के लिए एक साझा दृष्टिकोण और पूर्व और दक्षिण चीन सागर में नियम आधारित समुद्री व्यवस्था कायम करना चाहते हैं.
एक बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति के रूप में उदय के साथ ही चीन की दबदबा इस इलाके के देशों के लिए खतरा बन गया है जिसके कारण क्वॉड का गठन हुआ. यह एक सैन्य गठबंधन नहीं होने के बावजूद (कम से कम अब तक तो सैन्य गठबंधन नहीं है) क्षेत्र से संबंधित सामरिक और सुरक्षा मुद्दों पर चर्चा करता है. शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए टोक्यो में राष्ट्रपति जो बाइडेन की उपस्थिति चीन के लिए एक चेतावनी जैसी है. चीन को लगता है कि जो बाइडेन अपनी यात्रा में एशिया में अपने पारंपरिक सहयोगियों को चीन के खिलाफ सैन्य गठबंधन में शामिल करने के उद्देश्य से आए हैं.
अमेरिका-चीन के टकराव को लेकर एशिया के कई देशों में गहरी बेचैनी है
जापान और दक्षिण कोरिया के नेताओं में भी अमेरिका जैसा ही डर है. उन्हें लगता है कि चीन के उदय से एशिया में शक्ति संतुलन बिगड़ेगा और एशिया के अलावा दूसरे महाद्विपों के भी प्रजातांत्रिक देश खतरे में आ जाएंगे. लेकिन महाद्वीप पर अमेरिका-चीन के टकराव को लेकर एशिया के कई देशों में गहरी बेचैनी है. वे भी चीन से डरते हैं मगर एक शक्तिशाली देश का विरोध नहीं करना चाहते. इन देशों को चीन के एशिया पैसिफिक इकोनोमिक कोओपरेशन (एपीईसी), रिजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनोमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) और ट्रांस -पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) जैसे क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौते का मोह भी है. चीन ने अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में कई आसियान देशों को भी शामिल कर लिया है.
अमेरिका का अपने सहयोगियों के साथ खड़े रहने या संधियों पर टिके रहने का पुराना इतिहास दागदार रहा है और यही वह सबसे बड़ा कारण है जिसने अमेरिका के वफादार सहयोगियों और दूर से स्थिति को भांप रहे देशों को चिंतित किए हुए है. चीन के प्रति राष्ट्रपति ट्रम्प की असंगत नीति, अमेरिका का उनके राष्ट्रपति होते वक्त टीपीपी से अचानक बाहर निकलना, पेरिस जलवायु समझौते और ईरान परमाणु समझौते से अमेरिका के बाहर निकलने का उल्लेख यहां पर जरूरी है. लेकिन बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका एशिया पर ज्यादा ध्यान देता नजर आ रहा है. अमेरिका को इस बात का अहसास है कि उसके पारंपरिक सहयोगियों के साथ उसके संबंध पहले जैसे मजबूत नहीं रह गए हैं.
सोमवार को बाइडेन ने आईपीईएफ का शुभारंभ किया
रविवार को एशिया-प्रशांत क्षेत्र के वाणिज्य मंत्रियों की एक बैठक यूक्रेन पर रूस के आक्रमण पर मतभेदों के चलते संयुक्त बयान जारी किए बिना समाप्त हो गई. जब रूस के वित्त मंत्री मैक्सिम रेशेतनिकोव ने बोलना शुरू किया जापान, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रतिनिधियों ने वाक-आउट कर दिया. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि ब्रुनेई दारुस्सलाम, चिली, इंडोनेशिया, कोरिया गणराज्य, मलेशिया, मैक्सिको, पापुआ न्यू गिनी, पेरू, फिलीपींस, सिंगापुर, चाइनीज ताइपे और थाईलैंड ने वॉकआउट नहीं किया. इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकाता है कि ऐसे कई देश हैं जो मानते हैं कि रूस को अलग-थलग नहीं किया जाना चाहिए.
लगता है अमेरिका को भी इस बात का इल्म हो चुका है कि प्रशांत महासागर के आसपास के देशों पर उसका पुराना प्रभाव अब कम हो रहा है. सोमवार को बाइडेन ने आईपीईएफ का शुभारंभ किया जो क्षेत्रीय देशों को आपूर्ति-श्रृंखला में लचीलापन, स्वच्छ ऊर्जा, बुनियादी ढांचे और डिजिटल व्यापार जैसे मुद्दों को लेकर एक माला में पिरोने का प्रयास करता है. ऐसा लगता है कि इस पहल का उद्देश्य इस क्षेत्र के देशों को आर्थिक प्रोत्साहन देना है. लेकिन अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कैथरीन त्साई ने सदस्यों के लिए बाजार खोलने को लेकर कोई आश्वासन नहीं दिया जिसके परिणामस्वरूप सदस्यों के बीच ज्यादा उत्साह नजर नहीं आया. सिंगापुर, फिलीपींस, वियतनाम और मलेशिया सहित केवल गिनती के एशियाई देशों ने सार्वजनिक रूप से आईपीईएफ में शामिल होने की इच्छा जताई.
ऐसा लगता है कि इस क्षेत्र के सैन्यीकरण के पक्ष में अमेरिका के सबसे मजबूत समर्थकों के रूप में केवल जापान और दक्षिण कोरिया ही रह गए हैं. जापान भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के अपने शांतिवादी रुख से पलट गया है और तेजी से अपनी सेना को मजबूत करने में जुट गया है जबकि अपने नये राष्ट्रपति यूं सोक-योल के साथ दक्षिण कोरिया अधिक टीएचएएडी (टर्मिनल हाई एल्टीट्यूड एरिया डिफेंस) मिसाइल बैटरी जुटा रहा है. राष्ट्रपति बनने के बाद जो बाइडन के एशिया के किसी देश में पहले दौरे पर दक्षिण कोरिया ने अमेरिका को चीन की तुलना में अत्याधुनिक तकनीक में ज्यादा मजबूत बनने की सलाह दी. इसके बाद सैमसंग ने टेक्सस में 127 बिलियन डॉलर का कंप्यूटर चिप बनाने वाला संयंत्र जबकी हुंडई ने जॉर्जिया में बड़े पैमाने पर ऑटोमोबाइल बनाने वाली फैक्ट्री स्थापित की.
भारत नहीं चाह रहा है कि क्वॉड का सैन्यीकरण हो
मगर दक्षिण कोरिया की बहुप्रतिक्षित क्वॉड में प्रवेश पर अब भी प्रश्न चिह्न लगा हुआ है. कोरियाई समाचार एजेंसी योनहाप ने एक अमेरिकी अधिकारी के हवाले से कहा कि दक्षिण कोरिया को अमेरिका चार देशों के क्वॉड गठबंधन में लाने पर फिलहाल विचार नहीं कर रहा है. जाहिर है इस मुद्दे पर मंगलवार को क्वॉड नेताओं के बीच चर्चा होगी. ये देश बाद में किसी समय कनाडा और न्यूजीलैंड समेत कुछ और एशियाई देशों को क्वाड में शामिल करने पर भी चर्चा कर सकते हैं. अपनी ओर से चीन ने ब्रिक्स के विदेश मंत्रियों की वर्चुअल बैठक में इंडोनेशिया और दूसरी उभरती अर्थव्यस्थाओं को भी ग्रुप में शामिल करने का प्रस्ताव देकर पलटवार किया है.
चीन शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) और अब एक विस्तारित ब्रिक्स जैसे गुटों के माध्यम से चीन एशिया में अमेरिकी प्रभाव का मुकाबला करने की योजना बना रहा है. भारत को इन घटनाक्रमों को कैसे देखना चाहिए? नई दिल्ली की पहली प्राथमिकता यह सुनिश्चित करना होगा कि "कूटनीति और संवाद" के माध्यम से यूक्रेन युद्ध जल्द से जल्द समाप्त हो. भले ही भारत इस युद्ध के कारण दूसरे देशों से कम प्रभावित हुआ है, बढ़े हुए ईंधन की कीमत, बाधित वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाएं देश में उत्पादन की लागत को बढ़ा रही हैं और आर्थिक मंदी की भी आशंका को जन्म दे रही हैं. ऐसे में भारत इस बात को लेकर चिंतित है कि पश्चिम के देश रूस-यूक्रेन युद्ध को खत्म करने में दिलचस्पी क्यों नहीं दिखा रहे हैं.
भारत चाहता है कि चीन को लेकर अमेरिकी नीति में ज्यादा बदलाव नहीं हो. इस नीति से यह भी स्पष्ट हो जाए कि चीन के अधिपत्य को कैसे रोका जाए. आखिरी चीज जो भारत चाहता है वह है एशिया का तेजी से सैन्यीकरण और हिंद-प्रशांत में युद्ध की आशंका जिसमें उसे भी मजबूरी में शामिल होना पड़ सकता है, वह चाहे या नहीं चाहे. भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को चीन को चुनौती देने वाले स्तर तक पहुंचाने के लिए कम से कम शांति के दस साल चाहिए. इसके बाद चीन को एशिया में भारत के भी प्रभुत्व को स्वीकारना पड़ जाएगा. भारत नहीं चाह रहा है कि क्वॉड का सैन्यीकरण हो क्योंकि इससे अमेरिकी मिलिट्री बेस भारत आ जाएंगे. भारत गठबंधन के भी विस्तार के पक्ष में नहीं है क्योंकि अगर इसका विस्तार होता है तो हो सकता है कि अमेरिका अपने ज्यादा करीबी सहयोगियों को इसमें शामिल कर ले और भारत की स्थिति उनके सामने कमजोर पड़ जाए.
सोर्स- tv9hindi.com