मेरा पुरस्कार चक्कर!

मैंने पचास पुस्तकें पता नहीं किस नशे में लिख लीं

Update: 2022-04-15 19:24 GMT

मैंने पचास पुस्तकें पता नहीं किस नशे में लिख लीं। लेकिन पुरस्कार के नाम पर स्थानीय नगरपालिका ने मुझे गणतंत्र दिवस पर माला पहनाकर सम्मानित किया है। नकद राशि वाला मुझे एक भी पुरस्कार नहीं मिला है। मैं आजकल बस यही सोचता हूँ कि कोई बड़ा पुरस्कार कैसे मारा जा सकता है। किताबें हैं और साहित्य में समग्र रूप से योगदान भी है, लेकिन कोई सरकार या संस्था मुझे कोई पुरस्कार नहीं दे रही। मैंने किताबेें लिखने में अपने जीवन के साठ वसंत पूरे कर लिए हैं। विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि मुझे केवल किताब लिखकर ही तसल्ली नहीं करनी चाहिए, अपितु भागा दौड़ी भी करनी चाहिए। मुझ से जूनियर तीन-तीन किताबें लिखकर कई पुरस्कार बटोर चुके हैं। समझ में तो आने लगा है कि पुस्तक प्रकाशन ही पुरस्कार लेने के लिए पर्याप्त नहीं है। उचित तो यह रहता है कि उसके साथ नियोजित समीक्षा, प्रभावशाली साहित्यिक गुट को ज्वाइन करना तथा पुरस्कारों के पीछे भागना ये तीनों उपाय जरूरी हैं। कल भ्रमर जी मिल गए थे। कुशलक्षेम पूछने लगे तो मैंने कहा-'अमां भ्रमर जी हाल बेहाल है। यार हम तो किताबें लिखने-छपाने में साठ वर्ष गुजार आए, लेकिन उसका प्रतिफल पुरस्कार रूप में शून्य है।

आप बताइए न, कैसे क्या करें। अब तो कोई बड़ा पुरस्कार मिलना ही चाहिए।' भ्रमर जी हंसकर बोले-'घबराते क्यों हो शर्मा, तुम कहोगे उस दिन मंच पर माला और दुशाला पहनावा देंगे, सार्वजनिक सम्मान हो जाएगा, तालियाँ बजवा देंगे। बोलो और क्या चाहते हो?' मैं बोला-'भ्रमर जी सम्मान का क्या करूं। कुछ नकद राशि वाला लक्खी पुरस्कार दिलवाने की जुगाड़ करो। मैं तो किसी को जानता-वानता नहीं। आप तो साहित्य के घुटे हुए खिलाड़ी हैं। आपने तो पहली पुस्तक पर पचास हजार झटक लिए थे।' 'देखो शर्मा, तुम खामख्वाह किताबें लिखने में उलझे रहे। कभी हमको घास ही नहीं डाली। अब चुकने और थकने लगे तो आ गए हमारे पास।
देखो पुरस्कार तो लक्खी भी मिल जाएगा, परंतु देखो खर्चा पानी करना होगा। मेरा मतलब लाख रुपए में से बीस हजार हाथ लगेंगे बाकी जोड़-तोड़ में लग जाएंगे।' वे बोले। मैंने कहा-'क्या मतलब ?' 'तुम्हारी यही बात है, तुम हर बात का मतलब पूछने लगते हो। मतलब के चक्कर में ही तुम इतने पिछड़े हुए हो। तुम्हें आम खाने से मतलब होना चाहिए, पेड़ों को गिनने से क्या फायदा? बोलो लोगे क्या, एक लाख वाला बीस हजार में। तुम्हें मंजूर हो तो मैं कार्यवाही करूँ। यदि तुम्हारे गले की फांस बन रहा है तो फिर रहने दो।' भ्रमर जी ने पैंतरा मारा। मैं बोला-'भ्रमर जी मानता हूँ भागते चोर की लंगोटी से भी संतोष करना पड़ता है, लेकिन यार थोड़ा राशि तो बढ़ाओ। एक लाख में से अस्सी हजार खर्च करना बड़ा ही महंगा कार्य है। मेरा मतलब पचास प्रतिशत तक बैठ जाए तो, देखो न।' 'शर्मा तुम्हारे भाग्य में पुरस्कार लेना है नहीं। ऐसा करो तुम तो कागज काले करो। इसी से अमर रचनाकार बन जाओगे। पुरस्कार की जब तुम तिकड़मंे जानते ही नहीं हो तो क्यों इसके पचड़े में पड़ते हो। अपने लिखो और जीवन भर तक लिखते रहो। अब मैं क्या कर सकता हँू, जब पुरस्कार ही ऐसे मिलने लगे हैं तो। तुम तो ऐसा समझ रहे हो जैसे मैं दलाली खा जाऊंगा और खा जाऊंगा तो खा जाऊंगा, तुम्हें तो सम्मान एक लाख का ही मिलना माना जाएगा न। बीस हजार मुफ्त के मिलेंगे। अब जमाना और मूल्य बदल गए हैं। इसलिए थोड़ा व्यावहारिक बनो। क्यों बेकार में हानि-लाभ का गणित लगाते हो।'
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक


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