मैंने पचास पुस्तकें पता नहीं किस नशे में लिख लीं। लेकिन पुरस्कार के नाम पर स्थानीय नगरपालिका ने मुझे गणतंत्र दिवस पर माला पहनाकर सम्मानित किया है। नकद राशि वाला मुझे एक भी पुरस्कार नहीं मिला है। मैं आजकल बस यही सोचता हूँ कि कोई बड़ा पुरस्कार कैसे मारा जा सकता है। किताबें हैं और साहित्य में समग्र रूप से योगदान भी है, लेकिन कोई सरकार या संस्था मुझे कोई पुरस्कार नहीं दे रही। मैंने किताबेें लिखने में अपने जीवन के साठ वसंत पूरे कर लिए हैं। विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि मुझे केवल किताब लिखकर ही तसल्ली नहीं करनी चाहिए, अपितु भागा दौड़ी भी करनी चाहिए। मुझ से जूनियर तीन-तीन किताबें लिखकर कई पुरस्कार बटोर चुके हैं। समझ में तो आने लगा है कि पुस्तक प्रकाशन ही पुरस्कार लेने के लिए पर्याप्त नहीं है। उचित तो यह रहता है कि उसके साथ नियोजित समीक्षा, प्रभावशाली साहित्यिक गुट को ज्वाइन करना तथा पुरस्कारों के पीछे भागना ये तीनों उपाय जरूरी हैं। कल भ्रमर जी मिल गए थे। कुशलक्षेम पूछने लगे तो मैंने कहा-'अमां भ्रमर जी हाल बेहाल है। यार हम तो किताबें लिखने-छपाने में साठ वर्ष गुजार आए, लेकिन उसका प्रतिफल पुरस्कार रूप में शून्य है।