हाशिये पर धकेल दिए गए इतिहास के नायकों के स्मरण का समय

जो समाज एवं राष्ट्र अपने स्वाधीनता सेनानियों पर गौरव करता है

Update: 2021-09-07 03:37 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| मनीष  पांडेय|  जो समाज एवं राष्ट्र अपने स्वाधीनता सेनानियों पर गौरव करता है, उनके त्याग, बलिदान एवं संघर्ष से प्रेरणा ग्रहण करता है, उनके विचारों, आदर्शो एवं जीवन-मूल्यों का अनुसरण करता है, नि:संदेह उनका आधार सुदृढ़, वर्तमान उपलब्धिपूर्ण एवं भविष्य उज्ज्वल होता है। वह भौतिक प्रगति एवं सांस्कृतिक समृद्धि के नए-नए सोपान तय करता है। देशभक्ति एवं कर्तव्यपरायणता उसकी पीढ़ियों की रगों में लहू बनकर दौड़ते हैं। स्वतंत्रता का मूल्य समझने वाला तंत्र, समाज और राष्ट्र अपने नायकों एवं स्वतंत्रता-सेनानियों को इतिहास के सुनहरे पृष्ठों में सबसे सुस्पष्ट अक्षरों में स्थान देता है। आज जब देश 'आजादी का अमृत महोत्सव' मना रहा है, तब यह प्रश्न सर्वथा उपयुक्त एवं समीचीन ही होगा कि क्या हमने अपने नायकों एवं स्वतंत्रता-सेनानियों के साथ संपूर्ण न्याय किया? क्या उन्हें उतना मान-सम्मान-स्थान प्रदान किया गया, जिसके वे सुपात्र थे? क्या यह सत्य नहीं कि स्वतंत्रता के बाद जिन महापुरुषों, बलिदानियों एवं स्वतंत्रता-सेनानियों को भारतीय नभाकाश पर दैदीप्यमान नक्षत्रों की तरह दमकना चाहिए था, उनकी आभा को तत्कालीन नेतृत्व और उसके समर्थकों द्वारा धूमिल करने एवं जनसाधारण की दृष्टि से उन्हें ओझल रखने का सुनियोजित षड्यंत्र एवं अपराध किया गया

यह तो इस देश का सौभाग्य रहा कि जनसाधारण ने अपने हृदय में उन महान स्वतंत्रता सेनानियों की स्मृति-छवि को कमोबेश जिंदा रखा। न जाने कितने ही ऐसे क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता-सेनानी रहे, जिनकी घनघोर उपेक्षा की गई, जिनके हिमालय सदृश व्यक्तित्व और योगदान को राई समान प्रस्तुत किया गया। उन्हें चंद पृष्ठों क्या, चंद शब्दों में समेट दिया गया। कुछ के व्यक्तित्व, कर्तृत्व एवं ऐतिहासिक अवदान को तो सायास विकृत करने का कुचक्र भी रचा गया। वैचारिक गिरोहबंदी के शिकार एवं प्रायोजित इतिहासकारों द्वारा इतिहास लिखाया गया। देश को गुलाम बनाने वाली विदेशी ताकतों और उनके अधिकारियों-अनुयायियों-दरबारियों द्वारा लिखे गए रिपोर्टो-वृत्तांतों को ही इतिहास का मूल स्नेत, साक्ष्य एवं आधार मान लिया गया। उनकी निष्ठा राष्ट्र एवं समाज के प्रति न होकर दल एवं विचारधारा विशेष के प्रति थी। उनसे मनमानी स्थापनाएं कराई गईं। इन सबका भयावह परिणाम यह हुआ कि इतिहास एवं संस्कृति के गौरवबोध से वंचित स्वाभिमानशून्य पीढ़ी निर्मित होती चली गई। आज कितने ऐसे युवा होंगे, जिन्हें नाना फड़नवीस, बाबू कुंवर सिंह, राम सिंह कूका, वासुदेव बलवंत फड़के, चाफेकर और सावरकर बंधुओं, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, मादाम कामा, बारींद्र कुमार घोष, शचींद्रनाथ सान्याल, सत्येंद्र नाथ बोस, खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, यतींद्र नाथ दास, बटुकेश्वर दत्त, उल्लासकर दत्त, भूपेंद्रनाथ दत्त, रासबिहारी बोस, श्यामजी कृष्ण वर्मा, भाई परमानंद, मास्टर दा, राजा महेंद्र प्रताप, रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी जैसे कई क्रांतिवीरों एवं स्वतंत्रता सेनानियों के काम तो दूर, नाम तक याद होंगे? जिनके नाम याद हैं, उनके भी काम और योगदान पर इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में व्यापक प्रकाश नहीं डाला गया। उनके योगदान के सामाजिक-सांस्कृतिक-ऐतिहासिक पक्षों-प्रभावों को स्पष्ट नहीं किया गया। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां को लोक जनमानस, कला और सिनेमा ने जो महत्व दिया, क्या वही महत्व उन्हें इतिहास की पुस्तकों एवं अकादमिक जगत में दिया गया? क्या नेताजी सुभाषचंद्र बोस के महत्व एवं योगदान की न्यायपूर्ण विवेचना हुई? क्या स्वतंत्रता उपरांत योजनापूर्वक यह सिद्ध करने की कुचेष्टा नहीं की गई कि हमें आजादी केवल कांग्रेस के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन से मिली? जबकि तथ्य यह है कि स्वतंत्रता के संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने 1956 में बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल जस्टिस पीबी चक्रवर्ती से बातचीत के क्रम में इस सत्य को उजागर किया था कि ब्रिटिश शासन के लिए बोस का आंदोलन और नौसेना विद्रोह अधिक चुनौतीपूर्ण था। उन्हें आशंका थी कि नेताजी की सैन्य गतिविधियों, नौसेना विद्रोह और भारतीय सेना में बढ़ते असंतोष के कारण बड़ी संख्या में अंग्रेजों को अपने प्राण न गंवाने पड़ें। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने 1942 में प्रारंभ किए गए भारत छोड़ो आंदोलन की धार कालांतर में कुंद पड़ जाने के बावजूद 1947 में एकाएक भारत को आजाद करने का फैसला किया।

क्या यह स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, आजीवन कारावास एवं कालापानी की यातना भोगने वाले उन स्वतंत्रता सेनानियों के साथ किया गया क्रूरतम अन्याय नहीं है कि अधिकांश सरकारी योजनाओं, स्मारकों, सड़कों एवं संस्थाओं का नामकरण चंद नेताओं एवं घरानों तक सीमित कर दिया गया? यह विडंबना ही है कि इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें इस तरह से लिखीं गईं कि एक ओर युवा पीढ़ी आक्रमणकारी-साम्राज्यवादी शासकों के क्रम एवं नाम से लेकर उनकी पूरी वंशावली तक से परिचित होती चली गई तो वहीं दूसरी ओर उन्हें जड़-मूल से उखाड़ फेंकने वाले मातृभूमि के सच्चे सपूतों एवं स्वतंत्रता सेनानियों के नाम तक की जानकारी नहीं? यह समय की मांग है कि अतीत की भूलों को वर्तमान में सुधारकर हाशिये पर धकेल दिए गए इतिहास के नायकों को मुखपृष्ठों पर स्थान मिले। देर से ही सही, पर आजादी के अमृत महोत्सव के पावन अवसर पर उनके साथ न्याय हो। पश्चिमी, परकीय एवं एकांगी दृष्टि से नहीं, अपितु संपूर्ण, समग्र एवं भारतीय दृष्टि से इतिहास की घटनाओं का संकलन-आकलन-मूल्यांकन हो, जिनमें 'स्व' की अजस्र एवं अखंड भावधारा पोषित एवं प्रवाहित हो।

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