यह परिवर्तन डराता है : आज के बांग्लादेश में है जमीन-आसमान का फर्क, हर दौर में मिले अच्छे-बुरे लोग
दक्षिणपंथियों ने योगेश मास्टर की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चुप्पी साध ली।
विगत अट्ठाईस वर्ष से मैं निर्वासन में हूं। मेरे देखे हुए बांग्लादेश और आज के बांग्लादेश में जमीन-आसमान का फर्क है। पत्र-पत्रिकाओं में जो पढ़ती हूं, और अपने परिचितों से जो सुनती हूं, उससे ऐसा लगता है कि बांग्लादेश बहुत बदल गया है। इस नए बांग्लादेश में अगर मैं कभी पैर भी रखूं, तो शायद इसे पहचान न पाऊं। एक चीज जो बदली है, वह यह है कि लोगों के पास अब बहुत पैसे आ गए हैं। एक बार अमेरिका में मैंने किसी के हाथ में बांग्लादेश के ड्रॉइंग रूम की साज-सज्जा पर एक कॉफी टेबिल बुक देखी थी।
उस किताब में छपी तस्वीरें देखकर लगा था, जैसे मैं यूरोप या अमेरिका के बेहद समृद्ध लोगों के आलीशान ड्रॉइंग रूम देख रही हूं। सहसा मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि बांग्लादेश जैसे गरीब देश में इतने समृद्ध लोग रहते हैं। मैं देखती हूं कि बांग्लादेश में आजकल किसी भी पर्व-त्योहार में बड़े-बड़े केक कटते हैं। मैंने इतने बड़े-बड़े केक कभी नहीं देखे। वैसे केक का एक छोटा-सा टुकड़ा खाने का मन करता है। बांग्लादेश में क्या इन दिनों बहुत स्वादिष्ट केक बनने लगे हैं? मेरे समय में केक पर क्रीम नहीं होता था और केक का आकार भी छोटा होता था।
फेसबुक पर मैं अपनी सहेलियों और नाते-रिश्तेदारों के बेटे-बेटियों की शादी देखती हूं। ऐसे अवसरों पर वस्त्रों के ठाठ-बाट और चेहरे की चिकनाई देखकर मैं दंग रह जाती हूं। इससे पहले बांग्लादेश में मैंने आभूषणों की ऐसी बहार भी नहीं देखी। वहां समृद्ध लोगों का जीवन तो बदला ही है, मध्यवर्गीय लोगों का जीवन भी बदल गया है। सभी उम्र के लोग अब धार्मिक हैं। मैं नहीं जानती कि संपत्ति के साथ धार्मिकता भी आती है या नहीं। मैंने नोटिस किया है कि जो जितना समृद्ध है, वह उतना ही धार्मिक भी है। मेरे समय में धनी लोग आधुनिक विचारों के होते थे।
आजकल के बच्चे भी पहले की तुलना में ज्यादा ज्ञानी और स्मार्ट हैं। अभी कुछ ही दिन पहले मयमनसिंह शहर के एक साहित्यकार की दसवीं में पढ़ने वाली लड़की अर्कप्रिया ने दस मंजिले फ्लैट से कूदकर आत्महत्या कर ली। सुसाइड नोट में उसने लिखा कि उसकी मृत्यु के लिए उसके माता-पिता जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्होंने उसे स्वतंत्रता नहीं दी। उनकी पैरेंटिंग अच्छी नहीं, इसलिए उसे जीने की इच्छा नहीं है। दसवीं में पढ़ते हुए मैं 'पैरेंटिंग' का अर्थ भी नहीं समझती थी।
हमारी पीढ़ी के बच्चे इतनी मामूली वजह से आत्महत्या करने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। मां-पिता के हाथों मेरी कितनी पिटाई हुई थी। मेरा जीवन अदृश्य जंजीरों से बंधा था। इसके बावजूद मैंने कभी आत्महत्या करने के बारे में नहीं सोचा। बदलाव इतना हो चुका है कि बचपन के जिस भी पुराने आदमी के बारे में पूछती हूं, तो पता चलता है कि वह यूरोप, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया में रहता है। अगर परिवार के सारे लोग विदेश में नहीं हैं, तो कुछ लोग हैं। गरीब लोगों में भी श्रमिक के तौर पर विदेश जाने की मानसिकता बढ़ रही है।
हमारा परिवार मध्यवर्गीय था। मैं जितनी बड़ी होती गई, उतनी ही उदार होती गई। आज के लोगों को देखती हूं, तो पूरी दुनिया जैसे उनकी मुट्ठी में है। वे दुनिया के जिस भी देश में जाना चाहें, अनायास जा सकते हैं। इसके बावजूद ऐसे लोगों की संकीर्णता देखने लायक है। इसका कारण शायद यह है कि धन-संपत्ति और निश्चिंत-सुरक्षित जीवन मनुष्य को सभ्य और आधुनिक नहीं बना सकता। सभ्य और आधुनिक होने के लिए खुली सोच और उदार चिंतन का होना जरूरी है।
बांग्लादेश में रहते हुए ही मैं संकीर्णता, धार्मिकता और पुरुषवर्चस्वाद जैसी प्रवृत्तियों का विरोधी बन पाई। हमारे पास धन संपत्ति नहीं थी, विदेश जाने की वैसी सुविधा भी नहीं थी, लेकिन उदार चिंतन वाली सोच थी। मुझे लगता है कि आज के बांग्लादेश में मुक्त सोच और उदार चिंतन की उस परंपरा का रास्ता रोका जा रहा है। दुनिया भर में आज संकीर्ण और स्वार्थी लोगों की संख्या बढ़ रही है। ऐसा नहीं है कि पहले के जमाने में सारे अच्छे लोग थे, आज सब बुरे हैं।
अच्छे-बुरे लोग हर दौर में होते हैं। पर पहले ज्यादातर लोग दूसरों की मदद करने के लिए आगे आते थे, अब ऐसा नहीं है। अर्नेस्ट हेंमिग्वे ने संस्मरण की अपनी किताब ए मूवेवल फीस्ट में लिखा है, 'तब हम बहुत गरीब थे और बहुत ही सुखी थे।' आज कितने लेखक इस तरह लिखते हैं? मैं गरीबी की महानता नहीं बघार रही। लेकिन ऊपर उठने का मतलब क्या सिर्फ आर्थिक रूप से समृद्ध होना ही है? मेरे माता-पिता कहते थे, रुपया-पैसा सबसे महत्वपूर्ण नहीं है। पढ़ाई, ज्ञान व ईमानदारी महत्वपूर्ण है।
आजकल के माता-पिता क्या ऐसी बात कहते हैं? बहुत लोग कह सकते हैं कि हमारे माता-पिता भोले थे। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानती। अगर अपने जमाने के चर्चित लोगों की बात करूं, तो दिग्गज बांग्ला लेखक सुनील गंगोपाध्याय चालाक, बदला लेने को तत्पर और ओछे किस्म के व्यक्ति थे। मैं उनके व्यक्तित्व की आलोचना करती हूं, पर उनके लेखन की तारीफ करती हूं अगर मैं ऐसा न करूं, तो वह बेईमानी होगी।
ऐसे ही, चर्चित बांग्ला गीतकार कबीर सुमन जब कट्टरवादियों के पक्ष में खड़े होते हैं, जिहादियों के पक्ष में बात करते हैं, अपनी सरकार की गलतियों पर पर्दा डालकर उसका गुणगान करते हैं, तब बुरा लगता है। हमारी यह धारणा बन गई है कि बड़े कलाकार, बड़े साहित्यकार, बड़े दार्शनिक ईमानदार और उदार भी होंगे। पर यह हमेशा सच नहीं होता। मुझे याद है, कुछ कट्टर हिंदुओं ने कन्नड़ भाषा के लेखक योगेश मास्टर के मुंह पर कालिख पोत दी थी। किसी से असहमत होने पर उसके मुंह में कालिख पोत देने का चलन इन दिनों खूब चल रहा है।
कोलकाता के टीपू सुल्तान मस्जिद के ईमाम ने भी एक बार मेरे मुंह पर कालिख पोतने का फतवा जारी किया था। एक समय भारत के बारे में बताते हुए गर्वित होती थी। अब देखती हूं, यहां न वामपंथी सही हैं, न दक्षिणपंथी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए दोनों ही पक्षों के लोग लड़ते हैं। पर इसे ये अपनी तरह से परिभाषित करते हैं। जैसे, वामपंथियों के लिए बहुसंख्यक हिंदुओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कोई मुद्दा नहीं है, उसी तरह दक्षिणपंथियों ने योगेश मास्टर की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चुप्पी साध ली।
सोर्स: अमर उजाला