अभूतपूर्व विजय के पहले का सच
सन 1972 में हम इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में रहते थे
शशि शेखर। सन 1972 में हम इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में रहते थे। उन दिनों रसूलाबाद स्थित सैनिक छावनी के सामने हम अक्सर तमाशबीनों को खड़ा पाते। वे ऊंचे कंटीले तारों से घिरी बैरकों में रह रहे पाकिस्तानी युद्धबंदियों को देखने के लिए हर रोज जमा हो जाते थे। ये युद्धबंदी सिविल वेशभूषा में काम करते अथवा बॉस्केटबॉल खेलते दिख जाते। भारतीय सेना के हथियारबंद जवान उनकी देख-रेख में वहां मुस्तैद खडे़ रहते।
उन दिनों हमारे जवानों की बड़ी दिक्कत ये युद्धबंदी नहीं, बल्कि वे तमाशबीन हुआ करते थे। इनमें से कुछ कभी-कभी युद्धबंदियों को गालियां देते या कुछ फेंककर मारने की कोशिश करते। हमारे जवान ऐसे सिरफिरों से आवश्यक कड़ाई से निपटते। उनको युद्धबंदियों पर नजर रखने से ज्यादा मेहनत उनकी हिफाजत के लिए करनी होती थी। भारतीय सेना यह काम 16 दिसंबर, 1971 से लगातार कर रही थी। इसी दिन पूर्वी पाकिस्तान में तैनात पाक सेना ने आत्मसमर्पण के दस्तावेजों पर दस्तखत किए थे। सैन्य इतिहास में 93 हजार से ज्यादा सैनिकों के समर्पण की यह पहली और अब तक की आखिरी मिसाल है। पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश प्रोफेसर इश्तियाक अहमद ने अपनी मशहूर किताब द पाकिस्तान गैरिसन स्टेट में उन लम्हों का विस्तार से उल्लेख किया है। प्रोफेसर इश्तियाक के अनुसार, 16 दिसंबर के आत्मसमर्पण के बावजूद पाकिस्तानी सेना से पूरे हथियार नहीं रखवाए गए थे। क्यों?
वजह यह थी कि पाक सैनिकों ने महीनों तक अपने ही मुल्क के लोगों पर अकथनीय अत्याचार किए थे। महिलाओं को सरेआम बेइज्जत किया गया था। बच्चे भी उनकी क्रूरता के शिकार हुए थे। स्वतंत्र देश की लड़ाई लड़ रहे सेनानियों के परिजनों के साथ निरीह नागरिक भी उनकी नृशंसता के शिकार हुए थे। भारत के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को आशंका थी कि कहीं निहत्थे पाक सैनिकों पर उदीयमान बांग्लादेश के लोगों का गुस्सा न फूट पडे़। यही नहीं, ढाका से भारत के विभिन्न हिस्सों में इन सैनिकों को लाने के लिए कडे़ सुरक्षा बंदोबस्त किए गए थे। यह काम हिन्दुस्तानी सेना ने तब तक किया, जब तक एक-एक युद्ध बंदी पाकिस्तान नहीं भेज दिया गया। ऐसा नहीं है कि हमारे सैनिकों के दिल जख्मी नहीं थे। विभिन्न मोर्चों पर लड़ी गई इस जंग में कुलजमा 2,307 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे और 6,163 को हल्की से बेहद गंभीर तक चोटें आई थीं। हमारी सेना ने दिल की चोट भुलाकर इन युद्धबंदियों की निगरानी में गजब का 'प्रोफेशनलिज्म' दिखाया था।
इस साल यह मुक्ति युद्ध अपनी 50वीं जयंती मनाने जा रहा है। अब तक इसके बारे में बहुत कुछ लिखा या कहा जा चुका है, परंतु यहां यह समझने की जरूरत है कि हमारे साथ आजाद हुआ पड़ोसी 1971 में विभाजन का शिकार क्यों हुआ? भारतीय सेना ने जो कमाल दिखाया, वह अपनी जगह है, परंतु इसके बीज अगस्त, 1947 के आसपास ही रोप दिए गए थे। पाकिस्तान के कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना ने अपना जो पहला मंत्रिमंडल बनाया, उसमें पूर्वी हिस्से से सिर्फ एक मुस्लिम मंत्री फजलुर रहमान को शामिल किया था। इसी हिस्से से आए जोगेंद्र नाथ मंडल भी काबीना का हिस्सा बने थे, पर वह हिंदुओं के दलित समुदाय से आते थे। मंडल को भी बाद में दुखद परिस्थितियों में पाकिस्तान को अलविदा कहना पड़ा और वह कलकत्ता (अब कोलकाता) में लगभग अनाम आदमी की मौत मरे, लेकिन यहां हम पूर्वी पाकिस्तान से भेदभाव की बात कर रहे हैं।
फजलुर रहमान की सियासत में कोई बड़ी हैसियत नहीं थी। वह स्थापित बंगाली नेताओं एचएस सोहरावर्दी, फजलुल हक आदि के मुकाबले बहुत बौने थे। यही वजह थी कि बंगाली मुसलमानों में यह धारणा शुरुआती दिनों से ही जोर पकड़ने लगी कि हमारे साथ भेदभाव किया जा रहा है। बात यहीं तक सीमित नहीं थी। पूर्वी पाकिस्तान के जो राज्यकर्मी, राजनेता, कारोबारी, कलाकार अथवा विद्यार्थी पश्चिमी पाकिस्तान जाते, उन्हें हिकारत का सामना करना पड़ता। मशहूर पाकिस्तानी पत्रकार हसन निसार ने लिखा और कहा है कि मेरे साथ पूर्वी पाकिस्तान के कोटे के तहत तमाम विद्यार्थी पढ़ा करते थे। हमारे उनके रहन-सहन, भाषा और संस्कारों में जमीन-आसमान का अंतर था। पश्चिमी पाकिस्तान में प्रभुत्व रखने वाले पंजाबी तबके के छात्र मुंहफट और शाहखर्च होते थे, इसके विपरीत बंगाली विद्यार्थी मितव्ययी और मृदुभाषी थे। उनमें से अधिकांश की कद-काठी भी अपने पंजाबी या पठान सहपाठियों के मुकाबले कमतर होती थी। यही वजह है कि पूर्वी पाकिस्तान के छात्र अक्सर अपनी पढ़ाई पूरी किए बिना घर लौट जाते। इससे पूर्वी हिस्से में पश्चिम के प्रति विद्वेष की भावना पनपती चली गई।
इसकी परिणति सन 1970 में हुए आम चुनावों में हुई। इस चुनाव में शेख मुजीबुर्रहमान की अगुवाई वाली अवामी लीग को बहुमत मिला। शुरू में तो राष्ट्रपति जनरल याह्या खान ने शेख मुजीब को अपना वजीर-ए-आजम कहकर संबोधित किया था। जवाब में मुजीब भी उन्हें हमारे राष्ट्रपति कहते थे। पर इसी दौरान पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के जुल्फिकार अली भुट्टो सहित पश्चिमी पाकिस्तान के कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं ने अंत:पुर की राजनीति शुरू कर दी। शेख मुजीब प्रधानमंत्री बनने के अपने हक से वंचित हो गए और यहीं से बांग्लादेश की स्थापना की जंग शुरू हुई।
नई दिल्ली के सत्ता-सदन में उस समय इंदिरा गांधी मौजूद थीं। उन्होंने इस मुद्दे को लपक लिया। उनके पास जायज कारण भी था, क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान से लगातार आने वाले शरणार्थियों ने भारत के सामने तरह-तरह की दिक्कतें खड़ी कर दी थीं। एक तरफ, वह पाकिस्तान की तत्कालीन हुकूमत के लिए कूटनीतिक तौर पर कांटे बो रही थीं, दूसरी तरफ, बांग्लादेश के लोगों द्वारा बनाई गई मुक्ति वाहिनी को हमारे रक्षा प्रतिष्ठान हथियार और प्रशिक्षण मुहैया करवा रहे थे। मुक्ति वाहिनी के लड़ाके लौटकर पाकिस्तानी सेना के खिलाफ छापामार लड़ाई में जुट जाते और वहां से हर रोज नई कहानियां पूरी दुनिया में फैलतीं। यही वजह है कि जब भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान में दाखिल हुई, तब बांग्लादेश के सपने से प्रेरित लोगों ने उनका जमकर खैरमकदम किया। भुट्टो 1965 में कश्मीर में हमारे साथ जो करना चाह रहे थे, वही पूर्वी पाकिस्तान में उनकी सेना के साथ हो रहा था।
इस लड़ाई में भारत ने अभूतपूर्व जीत हासिल की, पर क्या हम उसके बाद अपना मकसद हासिल कर सके? बांग्लादेश का उदय आवश्यक था, पर क्या हम पाकिस्तानी बदनीयत पर हमेशा के लिए लगाम लगा सके? यकीनन, इंदिरा गांधी अपने मकसद को पूरी तौर पर साधने में कामयाब नहीं रहीं। इसके कारण क्या थे? इस पर आगे कभी विस्तार से विचार करेंगे। यह समय उस जंग और ऐतिहासिक जीत के पांच दशक पूरे होने पर अपने लड़ाकों और शहीदों को नमन करने का है। कृतज्ञ राष्ट्र उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करता है।