देश में अहम सामाजिक बदलाव की आहट है एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट, जानें आखिर क्यों है खास
आर्थिक विकास एवं महिला साक्षरता ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है
डाक्टर सुरजीत सिंह। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी की गई राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण यानी एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट भारत में महिलाओं के उज्ज्वल भविष्य की एक झलक प्रस्तुत करती है। इसके अनुसार पहली बार लिंगानुपात में महिलाओं का अनुपात पुरुषों से अधिक हुआ है। 1000 पुरुषों पर 1020 महिलाएं हो गई हैं। यह परिवर्तन भारत के पितृसत्तात्मक समाज में होने वाले एक महत्वपूर्ण सामाजिक बदलाव की आहट है। एनएफएचएस-5 के आंकड़े बताते हैं कि शैक्षिक उपलब्धि, परिवार नियोजन विधियों का प्रयोग, आर्थिक स्वतंत्रता, घरेलू प्रबंधन तथा निर्णय लेने की क्षमता, स्वच्छता, स्वास्थ्य, परिवार और समाज आदि क्षेत्रों में महिलाओं के दखल में वृद्धि हुई है। आज प्रत्येक पांच में से चार महिलाएं अपने बैंक खाते संचालित करती हैं। फोन एवं इंटरनेट के उपयोग में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। आर्थिक विकास एवं महिला साक्षरता ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।
हालांकि कुछ विद्वानों का मत है कि एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट सर्वेक्षण पर आधारित होती है, इसलिए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें जनगणना के आंकड़ों का इंतजार करना होगा। इस बहस में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि लिंगानुपात प्रवृत्ति में निरंतर वृद्धि हो रही है। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट, 2021 में 156 देशों में भारत को 140वां स्थान मिला है। 2020 में 153 देशों में भारत 112वें स्थान पर था। ऐसी स्थिति में एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट को जनसांख्यिकीय बदलाव की दिशा में एक नई शुरुआत भी माना जाना चाहिए।
1991 की जनगणना में लिंगानुपात 927 था, जो 2011 की जनगणना में 943 हो गया। 1992 में होने वाले एनएफएचएस-1 में यह लिंगानुपात 944 था, जो 2015-16 में होने वाले एनएफएचएस-4 में बढ़कर 991 हो गया। आंकड़े बताते हैं कि लिंगानुपात में परिवर्तन की प्रवृत्ति वृद्धि की ही रही है। 2021 की जनगणना में भी यह प्रवृत्ति दिखाई देगी। एनएफएचएस-5 ने भारतीय समाज की बहुत सी अवधारणाओं को नई दिशा दी है।
भ्रूण हत्या के लिए अमर्त्य सेन ने 1990 में मिसिंग वूमेन शब्द का प्रयोग किया था तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे राष्ट्रीय शर्म करार देते हुए लड़कियों को बचाने के लिए धर्मयुद्ध का आह्वान किया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जनवरी, 2015 को बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम की शुरुआत के साथ भ्रूण हत्या रोकने की अपील की थी। एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के अनुसार सर्वाधिक लिंगानुपात केरल (1084) एवं हरियाणा में न्यूनतम (879) है। शहरों की तुलना में गांवों के लिंगानुपात में अधिक वृद्धि दर्ज की गई है।
एनएफएचएस-4 की तुलना में एनएफएचएस-5 में गांवों में यह अनुपात 1009 से बढ़कर 1037 हो गया है, जबकि शहरों में 956 से बढ़कर यह लिंगानुपात 985 हो गया है। लिंगानुपात के संदर्भ में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि ने विशेष प्रगति दर्ज की है, जबकि दिल्ली, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा आदि में बहुत सुधार होना अभी बाकी है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम से समाज के मानसिक स्तर में बदलाव की शुरुआत अवश्य हुई है, परंतु समाज को महिलाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनाने के लिए अभी बहुत काम किया जाना शेष है।
लिंगानुपात में होने वाले परिवर्तन के साथ देश के आर्थिक विकास में कुल श्रम में महिला सहभागिता को बढ़ाना आज की पहली आवश्यकता है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी 2001 में 38 प्रतिशत थी, जो 2020 में घटकर 26 प्रतिशत रह गई है। नीति आयोग की रिपोर्ट भी लगभग यही बात करती है। 2005-06 में महिला कार्यबल की दर 36 प्रतिशत थी, जो 2015-16 में घटकर 23.7 प्रतिशत रह गई है। कुल श्रम में महिला सहभागिता का कम होने का प्रमुख कारण कार्यस्थल पर महिलाओं का शोषण एवं समान कार्य के लिए समान वेतन न देना है।
किसी भी समाज की प्रगति महिलाओं की प्रगति पर निर्भर करती है। महिलाओं को पढ़ने के अलावा अन्य क्षेत्रों में अवसर कम होने के कारण एक तिहाई से भी कम महिलाएं आय अर्जित कर पाती हैं। आर्थिक स्वतंत्रता की कमी के कारण एक चौथाई से अधिक महिलाएं वैवाहिक हिंसा का शिकार हैं। आज सशक्त महिलाओं को आगे आकर समाज के समक्ष ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने होंगे, जिससे अन्य महिलाएं भी प्रेरित हो सकें एवं अपनी जिंदगी के फैसले खुद ले सकें।
महिला शिक्षा पर बल, शिक्षा का समान वितरण, समान कार्य समान वेतन, वित्तीय निर्णय देने का अधिकार, संचार कौशल आदि में सशक्त होने से ही महिलाओं का जितना सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास होगा, उतना ही अधिक समाज में लिंगानुपात में महिलाओं के प्रतिशत में सुधार होगा। पुरुषों को भी महिलाओं के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा, ताकि समाज में महिलाओं को आजादी के साथ जीने का हक मिल सके।
सरकारें लिंगानुपात को बढ़ाने के लिए हमेशा से ही प्रयासरत रही हैं, लेकिन योजनाओं का सही तरीके से क्रियान्वयन न होने के कारण इसका उचित लाभ महिलाओं को नहीं मिल सका है। समय की मांग है कि नीतियां बनाते समय महिलाओं की चुनौतियों को भी ध्यान में रखा जाए। राज्यों के साथ जिला एवं ब्लाक स्तर पर भी लिंग आधारित डाटा तैयार किया जाना चाहिए, जिससे प्रत्येक गांव की पहचान कर लिंगानुपात स्तर बढ़ाया जा सके। निर्भया फंड का इस्तेमाल न हो पाना इस ओर संकेत करता है कि हमें अभी और संवेदनशील बनने की जरूरत है। इसके लिए सरकार के साथ-साथ लोगों को भी सामूहिक जिम्मेदारी से कार्य करना होगा।
(लेखक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं)