ज्ञान की शक्ति: संस्कृति संरक्षण क्या स्मृति में ही संभव है
ज्ञान और संस्कृति का संरक्षण अब क्या सिर्फ स्मृति में ही संभव है? नालंदा से क्लाउड तक की सभ्यता यात्रा में प्राच्य विद्या आकाशीय स्मृति का प्रस्ताव भी रखती है
गौतम चटर्जी। ज्ञान और संस्कृति का संरक्षण अब क्या सिर्फ स्मृति में ही संभव है? नालंदा से क्लाउड तक की सभ्यता यात्रा में प्राच्य विद्या आकाशीय स्मृति का प्रस्ताव भी रखती है। क्या आकाश की कोई स्मृति होती है, जहां समस्त ज्ञान संरक्षित है? यह संभावना क्या मनुष्य स्मृति को प्रेरित करती है? यदि ब्लैकहोल की संभव उपस्थिति जैसे वैज्ञानिक तथ्य पर हम खुश हो सकते हैं, तो क्या हमें आकाशीय स्मृति जैसे दार्शनिक तथ्य पर विमर्श नहीं करना चाहिए?
मनुष्य की जीवन शैली में परंपरा को जगह देने, नवोन्मेष का स्थान सुनिश्चित करने और अपने प्राचीन ज्ञान को संरक्षित रखने की जरूरत ने ही हमें नालंदा का विचार दिया था। काल का क्रूर प्रभाव स्थापत्य के इस अध्ययन स्थान को ही ग्रंथों और पांडुलिपियों के स्तर पर सुरक्षित नहीं रख सका। कला संग्रहालयों का आधुनिक स्थापत्य विकल्प के रूप में सामने आया और हमने नोबेल विद्वानों का परामर्श लेना जरूरी समझा। लेकिन न हम विद्वानों को आवश्यक सम्मान दे सके, न विद्या भवनों के दीर्घकालिक महत्व को ही समझ सके। उल्टे ध्वंस की शैली को स्वीकार करते चले गए। मुंबई, कोलकाता और ढाका में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना से सीखकर हमने आजादी के बाद दिल्ली, भोपाल, मुंबई, कोलकाता आदि शहरों में कला के विद्या केंद्र प्रतिष्ठित किए, लेकिन प्रतिष्ठा के बावजूद पतन ही परिणति बना।
भारत भवन, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र या राष्ट्रीय संग्रहालय को हम कैसे बरत रहे हैं, यह अप्रकट नहीं है। ताम्र और भोजपत्रों में संरक्षित कर जाने की आकुलता का ही आधुनिक संस्करण रहा ग्रंथों एवं पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन और कला के नए भवनों की स्थापना। इन्हीं सांसों में हमने चार्ल्स कोरिया और बालकृष्ण दोशी जैसे स्थापत्य विचारकों को जाना और समझा। यदि अड्यार या त्रावणकोर के विद्या केंद्र न होते, तो न हम कालिदास को जान पाते, न भास को। एशियाटिक सोसाइटी या ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे विद्वानों के अवदान को समय से पहले मनुष्य भुला सकता है, यह सोचा भी नहीं जा सकता था। समाज की मुख्यधारा में उन्नत होने में हम अपने विद्वानों को कितना महत्व दे रहे हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज हमारे पास अर्थशास्त्र के दो-दो नोबेल विद्वान हैं, लेकिन हम उनकी उपस्थिति का कितना उपयोग कर पा रहे हैं!
ग्रंथ जला दिए जाएंगे और भवनों का ध्वंस हो जाएगा। ऐसे में, एक ही स्थान शेष रह जाता है, जहां हम अपने ज्ञान, विद्या और संस्कृति को संरक्षित रख सकते हैं। वह है स्मृति। आज इसे हम क्लाउड कर रहे हैं, जहां चीजें एक अनिश्चित सीमा तक संरक्षित रखी जा रही हैं और उन्हें हम दोबारा हासिल भी कर पा रहे हैं। किसी इलेक्ट्रॉनिक ड्राइव में भी चीजें नष्ट हो जा रहीं, लेकिन क्लाउड यानी नेट में ये फिलहाल सुरक्षित हैं। संरक्षण की अपनी प्राचीन परंपरा को हम ध्यान से देखें, तो पाएंगे कि वैदिक युग में कला, विद्या और ज्ञान को स्मृति में संरक्षित रखने की स्थायी और सुदीर्घ परंपरा थी।
वैदिक विद्वानों ने देश के इतिहास का भी जो काल निर्धारण किया, वह शिक्षा और स्मृति काल में सुविन्यस्त था। गुरु अपने शिष्यों में पात्रता की दृष्टि से ज्ञान अंतरित करते थे। उनमें यह वैज्ञानिक आस्था थी कि इस ज्ञान का क्षय नहीं होगा। ज्ञान को अक्षुण्ण रखने की उनकी वह विधि वैज्ञानिक थी, जिसके आधार पर आज के वैज्ञानिक यह बात पूरे आत्मविश्वास से कह पाते हैं कि जो कुछ भी मनुष्य व्यवहार में व्यक्त होता है, वह ब्रह्मांड में संरक्षित रहता है। भारतीय अध्यात्म और संगीत में सुनी जाने वाली ध्वनि और संगीत के लिए उपयोगी ध्वनि को अनाहत नाद की व्युत्पत्ति के रूप में देखा, परखा और बरता गया है। वैदिक ऋषियों की तरह भर्तृहरि, कबीर और गोरख की सुदीर्घ परंपरा ने शब्द को योग की तरह बरता। शैव दर्शन में स्मृति या प्रत्यभिज्ञा के परिप्रेक्ष्य में नाद व बिंदु को उच्च व उत्तम स्थान प्राप्त हुआ। संगीत में भरत से लेकर सारंगदेव और आगे तक के संगीत मनीषियों ने ध्वनि के अनुभव को ब्रह्म का सहोदर घोषित किया।
यह सुभाषित सुनिश्चित हुआ कि संसार में एक भी शब्द ऐसा नहीं, जिसमें मंत्र की शक्ति न हो। आखिर यह सब हमारी स्मृति में अभी तक सुचिह्नित कैसे है? प्रामाणिक उत्तर है मनुष्य की वह स्मृति, जो उसके मन से वृहत्तर आकाश तक फैली हुई है। यहां न कुछ नष्ट किया जा सकता है, न जलाया जा सकता है। मनुष्य अपनी स्मृति के शुक्लपक्ष से उस वृहत्तर आकाशीय स्मृति का स्पर्श तो कर सकता है, लेकिन नष्ट नहीं कर सकता। विनिमय में स्वयं नष्ट हो सकता है।
सभ्यताओं की लगातार विनाशलीला के बावजूद यह देखा गया है कि मनुष्य के काम वही आता है, जो शाश्वत ज्ञान है। वही उसके जीवन में फिर से शुभता लाता है, जिसे जयशंकर प्रसाद मनु से प्रतीकित करते हैं। तो फिर उद्घाटित शुभता की ऐसी स्मृति के संरक्षण के लिए क्या हमें आकाशीय स्मृति पर निर्भर नहीं होना चाहिए? सिंधु सभ्यता की पाशुपत शैव दृष्टि और वैदिक ऋषियों अपौरुषेय ज्ञान से लेकर रवींद्रनाथ और गोपीनाथ कविराज तक सभी वैश्विक मन का परामर्श देते हैं। इस वैश्विक मन की स्मृति में जाने और जानने के सिवाय आज मनुष्य के पास संरक्षित रखने को और रह ही क्या गया है?