इसमें दो राय नहीं कि 57 देशों के इस्लामी सहयोग संगठन (ओआइसी) ने ओछेपन की हद पार कर दी है। उसने आरोप लगाया है कि भारत में अल्पसंख्यकों का 'उत्पीड़न' हो रहा है। उसने यह फर्जी दावा भी किया कि भारत में 'इस्लाम के विरुद्ध घृणा' का वातावरण बन रहा है। गौरतलब है कि मार्च 2022 में इसी ओआइसी ने अपने कट्टरपंथी सदस्य देश पाकिस्तान के जरिये संयुक्त राष्ट्र में 'इस्लामोफोबिया' यानी इस्लाम से नफरत का मुकाबला करने के लिए एक अलग अंतरराष्ट्रीय दिवस का प्रस्ताव पारित कराया था। भारत, फ्रांस समेत कई देशों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार किया था और विश्व समुदाय को याद दिलाया था कि निष्पक्ष रूप से देखें तो दुनिया में बहुत से धार्मिक समुदायों का शोषण और दमन हो रहा है। केवल इस्लाम को ही एक पीड़ित पंथ का दर्जा देना अवांछित है और खतरनाक भी है, क्योंकि 'इस्लामोफोबिया' का चोगा पहनकर जिहादी आतंकी अपनी हिंसात्मक गतिविधियों को वैधता प्रदान करते हैं।
सच्चाई तो यह है कि कई इस्लामी देश खुद अपने ही मुस्लिम नागरिकों के साथ औपचारिक तौर पर अत्यंत बुरा बर्ताव करते हैं। सऊदी अरब में शिया, ईरान में सुन्नी, तुर्की में कुर्द, पाकिस्तान में अहमदिया और बलोच जैसे अनगिनत मुस्लिम तबकों को उनकी अपनी ही सरकारों ने द्वितीय श्रेणी का या उससे भी बदतर दर्जा दिया हुआ है। इन देशों और खासकर पाकिस्तान में तो गैर मुस्लिमों का जीना दूभर है।
आज जो इस्लामी देश और संगठन भारत पर लांछन लगा रहे हैं, वे अधिकतर तानाशाही व्यवस्था वाले हैं। उनके यहां मानवाधिकार केवल शासक वर्ग को ही उपलब्ध है। ओआइसी के कई सदस्य देशों में नीतिगत स्तर पर इस्लाम को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है और बाकी अल्पसंख्यकों के पंथ उसके अधीन और इस्लाम से हीन माने जाते हैं। इन देशों में धार्मिक भेदभाव और सांप्रदायिकता की प्रवृत्ति भी है। कई ओआइसी सदस्य देशों में ईशनिंदा कानून लागू है। इसकी आड़ में बेगुनाह लोगों और खासकर अल्पसंख्यकों को इस्लाम के अपमान के आरोप में मृत्युदंड तक दिया जाता है। ऐसे देशों में असहिष्णुता भी कूट-कूट कर भरी है और वे अपनी कट्टरवादी नीतियों को विश्व भर में हावी होते देखना चाहते हैं, परंतु वैश्विक 'उम्मा' के नाम पर उग्र विदेश नीति की अपनी सीमाएं हैं। दुनिया उस तरह से नहीं चल सकती, जैसे कुछ इस्लामी देश चलाना चाहते हैं। जो ओआइसी भारत में की गईं विवादित टिप्पणियों के आधार पर खुद को आहत बता रहा है, उसने चीन में उइगर मुसलमानों के दमन के साथ इस्लाम के खुले निरादर पर आज तक न तो कोई प्रतिक्रिया दी है और न ही बीजिंग से माफी की मांग की है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहां करीब 20 करोड़ मुस्लिम चैन से रह रहे हैं और चीन जैसे निरंकुश देश में जमीन-आसमान का फर्क है, जहां सैकड़ों मस्जिदें तोड़ डाली गई हैं और लाखों मुस्लिम कैदखानों में बंदी हैं। फिर भी चीन से आर्थिक लाभ के लालच में ओआइसी के सदस्य देश भारत पर निशाना साधने में लगे हुए हैं। इस्लामी जगत का भारत और चीन के प्रति दोहरे मापदंड का एक और कारण है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, इंटरनेट मीडिया का खुलापन है और चुनावी राजनीति है। इससे रोजाना राजनीतिक बहस और विवाद उत्पन्न होते रहते हैं। इनमें से कुछ मुस्लिम देशों में बिजली की गति से पहुंचाए जाते हैं, क्योंकि भारतीय मूल के ही कुछ कथित 'उदारवादी' इन देशों में भारत की छवि खराब करने के एजेंडे पर चल रहे हैं। चीन में अगर कोई कम्युनिस्ट पार्टी का व्यक्ति मुस्लिमों के दमन की कोई जानकारी इस्लामी या पश्चिमी देशों को भेज दे तो उसे उसकी कीमत अपनी जान गंवाकर चुकानी पड़ती है।
ओआइसी के दूषित दृष्टिकोण को ठीक करना लोहे के चने चबाने के बराबर है। मोदी सरकार ने खाड़ी के अपने मित्र देशों के सहारे ओआइसी के अंदर पैठ बनाकर उसमें कश्मीर और भारत में इस्लाम के बारे में पाकिस्तान, तुर्की, मलेशिया इत्यादि द्वारा फैलाए जा रहे फरेब को दूर करने की चेष्टा की है, फिर भी यह संगठन अपने संकीर्ण नजरिये और दुराग्रह से मुक्त नहीं हो पा रहा है। इसी कारण भारत ने इस संगठन पर एक बार फिर पलटवार किया है। भारतीय विदेश मंत्रलय ने ओआइसी पर 'निहित स्वार्थो के चलते विभाजनकारी एजेंडा' चलाने का जो आरोप लगाया, वह एक हकीकत है। इसके साथ ही मोदी सरकार ने मध्य-पूर्व में अपने सामरिक साझीदार संयुक्त अरब अमीरात, ईरान और सऊदी अरब से संपर्क कर उनसे द्विपक्षीय स्तर पर मामले को ठंडा करने की पहल की है। खाड़ी के जिन देशों से भारत भारी विदेशी निवेश प्राप्त कर रहा है, वे व्यावहारिक मानसिकता के हैं। उन्हें भारत 'हंिदूू राष्ट्र' नहीं, बल्कि बहुत बड़ा बाजार दिखता है। कट्टरवादी विचारधारा की चपेट मे फंसे ओआइसी को सुधारना मुश्किल है, पर भारत इस संगठन में शामिल अपने प्रभावशाली मित्रों का साथ लेकर इस सुचना युद्ध में विजयी हो सकता है।