समय की आवश्यकता है सांप्रदायिक टकराव का सही समाधान तलाशना
सांप्रदायिक टकराव का सही समाधान तलाशना
संदीप घोष। पिछले दो सप्ताह से तलवारें लहराई जा रही हैं। जुबानी जंग तीखी हुई है। इस दौरान रामनवमी और हनुमान जन्मोत्सव के अवसर पर शोभायात्राओं में शस्त्रों का प्रदर्शन हुआ। इससे कई जगहों पर सांप्रदायिक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई। राजनीतिक दलों के बीच वाक् युद्ध छिड़ गया। आरोप-प्रत्यारोप में एक दूसरे को दोषी ठहराया जा रहा है। सोनिया गांधी के नेतृत्व में विपक्ष के 13 नेताओं ने एक बयान जारी कर चिंता जताई कि देश में सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं बढ़ रही हैं और सरकार ने इन घटनाओं पर आंखें मूंद रखी हैं। विपक्ष की इस कवायद पर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सांप्रदायिक सौहार्द को लेकर कांग्र्रेस का 'कच्चा चिट्ठाÓ खोलकर रख दिया। मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों को उकसाने एवं उन्हें पीडि़त बताने से जुड़ा विमर्श चलाने लगा। इस वजह से देश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और अधिकारों से जुड़े सवाल फिर से सतह पर आ गए। ये सवाल जिन घटनाओं की पृष्ठभूमि में उठे, उनमें से दो ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। इनमें से एक घटना मध्य प्रदेश के खरगोन में घटी। वहां रामनवमी के अवसर पर शोभायात्रा मुस्लिम बहुल इलाके और मस्जिद के पास से गुजर रही थी, जहां हिंसा भड़क गई। इसके बाद पुलिस ने आरोपितों के घर पर बुलडोजर चला दिया। बताया गया कि यहां बने मकान अवैध थे, जिनके लिए उनके मालिकों को नोटिस भी भेजा जा चुका था। हालांकि इस कार्रवाई का समय दंगों से जोड़कर देखा जा रहा है और राज्य के गृह मंत्रालय ने उसे पूरी तरह खारिज भी नहीं किया।
दूसरा मामला राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से जुड़ा है। यहां जहांगीरपुरी इलाके में हनुमान जन्मोत्सव से जुड़ी शोभायात्रा पर पथराव और कांच की बोतलें फेंकी गईं। इसमें कई नागरिक और पुलिस कर्मी घायल हो गए। एक बार फिर सवाल उठा कि दंगा आखिर कैसे भड़का? हमेशा की तरह यहां भी दो पक्ष आमने-सामने थे। जहां मुस्लिम समुदाय ने हिंदुओं पर नारेबाजी और हथियारों के प्रदर्शन से भावनाएं भड़काने का आरोप लगाया तो हिंदुओं का आरोप है कि मुस्लिमों ने पत्थरों, हथियारों से सुनियोजित हमला किया और गोलियां भी चलाईं।
देश के कई राज्यों में घटी ऐसी घटनाओं के मामले में उल्लेखनीय यह है कि उनमें एक जैसा पैटर्न देखा गया। फिर भी उत्तर प्रदेश जैसा राज्य अपवाद रहा, जो सांप्रदायिक टकराव के लिए अतीत में कुख्यात रहा है, लेकिन यहां सभी आयोजन शांतिपूर्वक संपन्न हुए। इतना ही नहीं, कई जगहों पर दोनों समुदायों में गजब का सौहार्द नजर आया, जहां शोभायात्राओं पर मुस्लिम फूल बरसाते दिखे। यह दूसरों के लिए उदाहरण बनना चाहिए। तमाम लोग इसके लिए योगी आदित्यनाथ की अपराध को लेकर 'जीरो टालरेंस' यानी कतई बर्दाश्त न करने वाली नीति और सक्रिय पुलिस को श्रेय दे रहे हैं। इसने कुछ वर्गों के बीच इन स्वरों को मुखर किया है कि सांप्रदायिक हिंसा पर लगाम लगाने के लिए सख्त नीति अपनाई जाए। इस सबके बीच एक प्रश्न यह उठता है कि क्या विपक्ष द्वारा व्यक्त की जा रही आशंकाओं में कोई दम है? तमाम लोग उसके पक्ष में दलीलें पेश करेंगे। उन पर विचार किए बिना उन्हें खारिज करना अनुचित होगा। इन घटनाओं से पहले देश में हिजाब और हलाल को लेकर हल्ला मचा हुआ था। वहीं महाराष्ट्र में मस्जिदों से अजान के समय मंदिरों में लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा का पाठ करने को लेकर तनातनी चल रही है। कुछ लोग इसे क्रिया एवं प्रतिक्रिया वाले मामले की दृष्टि से देख रहे हैं, जहां पंथनिरपेक्षता के नाम पर एक समुदाय के अधिकारों का दायरा इतना बढ़ा दिया गया है कि दूसरा वर्ग उससे आक्रोशित हो चला है। इसमें अगर सच्चाई की पड़ताल करेंगे तो वह कहीं बीच में नजर आएगी। असल में समस्या तभी उत्पन्न होती है जब नेता और जनमत निर्माता निष्पक्षता और परिदृश्य को नकारते हुए अतिरेकपूर्ण रुख अपना लेते हैं। जबकि यह समय राजनीतिक दूरदर्शिता एवं संवेदना प्रदर्शित करने का है, अन्यथा प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता के इस माहौल में राज-समाज में खाई और चौड़ी होकर हालात को बिगाडऩे का ही काम करेगी। अफसोस की बात यह है कि राजनीतिक रूप से इस तल्ख माहौल में सभी वास्तविक मुद्दों को अनदेखा कर एक दूसरे पर बढ़त बनाने की तिकड़मों में लगे हैं। इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता अपने पक्ष एवं आग्र्रहों को किनारे कर राष्ट्र को प्रथम रखने की है।
इन दिनों समान नागरिक संहिता की भी खूब चर्चा है, लेकिन इसके साथ-साथ यूनिफार्म सिविक कोड की भी उतनी ही आवश्यकता है, जो बिना किसी भय या पक्षपात के सभी पर एकसमान रूप से लागू हो। फिर चाहे लाउडस्पीकर हो, अवैध निर्माण, संवेदनशील पूजा स्थल, शोभायात्रा निकालने या उत्सव मनाने की बात हो, तो उसमें किसी भी पक्ष के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। पुलिस और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त कर आवश्यक कार्रवाई करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। इसमें पुलिस सुधारों का प्रश्न स्वाभाविक रूप से समाहित है। संभव है कि यह अपेक्षाओं की एक बहुत लंबी सूची हो। ऐसे में कम से कम धार्मिक नेताओं और प्रबुद्ध विचारकों को साथ लाकर सभी पक्षों के बीच सार्थक संवाद की शुरुआत तो कराई ही जा सकती है। इससे समान आचार संहिता के मामले में सहमति बनाने को लेकर संसदीय बहस की राह खुल सकती है। हालांकि यह तभी संभव है, जब सभी दल अपने-अपने वोट बैंक की राजनीति को चमकाने के बजाय जमीनी स्तर पर सही माहौल बनाएं।
अतीत के उदाहरणों से कुछ ऐसा अनुभव हुआ है कि चुनावी आहट वाले राज्यों में सांप्रदायिक तनाव की चिंगारी भड़कती रही है, इसलिए यह उस देश के लिए बड़ी चिंता का सबब है, जो हमेशा चुनावी मोड में रहता है। ऐसे में क्या यह स्थिति एक देश-एक चुनाव के प्रस्ताव को लेकर चुनाव सुधारों की मांग नहीं करती? जब तक चुनाव वास्तविक मुद्दों पर नहीं लड़े जाएंगे, तब तक समाज में विभाजन की रेखाओं को भुनाकर उनका फायदा उठाया जाता रहेगा। नेता और सरकारें तो आती-जाती रहेंगी। अंतत: इसका खामियाजा जनता और राष्ट्र को ही भुगतना पड़ेगा, क्योंकि पूरा ध्यान अर्थव्यवस्था और अन्य जरूरी मुद्दों के बजाय धर्म एवं आस्था पर केंद्रित रहेगा। इसका समाधान न तो बुलडोजर और न ही तलवार या फिर अदालतों के माध्यम से निकाला जा सकता है। इसके लिए लोगों को एक स्वर में अपनी आवाज बुलंद करनी होगी।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)