उच्च शैक्षणिक पदों के मापदंड सख्त हों, देश में कुलपति चयन के मापदंड बदलने चाहिए
ताजा संदर्भ है, एक कुलपति के घर पर छापे में नकद 70 लाख रु. मिले
हरिवंश। ताजा संदर्भ है, एक कुलपति के घर पर छापे में नकद 70 लाख रु. मिले। दाखिला व नियुक्ति घोटाले, जाली डिग्री, फ्रेंचाइजी के तहत फर्जी संस्थाओं को बढ़ाने, विश्वविद्यालय की जमीन बेचने के मामलों में कुलपतियों की गिरफ्तारी की ऐसी सूचनाएं सभी राज्यों से आती हैं। प्रतिष्ठित संस्थानों के कुलपति भी शोध पत्र चोरी में तिहाड़ हो आए हैं।
दशकों पूर्व एक फकीर की बताई बात याद आई। प्रतीक रूप में कहा, समाज का असल संकट चरित्र खत्म होना है। याद दिलाया कि गांधीजी ने अपने आश्रम में रहने के लिए भी कसौटियां बनाईं। सामाजिक जीवन में चरित्र व नैतिक आचरण इंसान की मापक कसौटियां थीं। चरित्र गढ़ने की दो पाठशालाएं हैं। पहला परिवार, दूसरा शिक्षा जगत-अध्यापक। दोनों जगह कैसा माहौल है? परिवार मोबाइल, टीवी, इंटरनेट और सोशल मीडिया में आत्मलिप्त है। शिक्षा व्यापार बन रहा है। अपवाद जरूर हैं। पर मुख्यधारा? आमतौर पर शिक्षाविद कुलपति बनते हैं।
उनके लिए सर्च कमेटियां हैं। दशकों पहले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और यशपाल कमेटी का विचार था कि कुलपति वही हो, जिसका नाम राष्ट्रीय रजिस्ट्री में हो। उच्चतर शिक्षा के राष्ट्रीय आयोग के पास यह रजिस्ट्री होगी, यह धारणा थी। हर खाली पद के लिए पांच नामों की सिफारिश होगी। तब राज्यों ने स्वायत्तता का सवाल उठाया। 1964 में कोठारी आयोग की सिफारिश थी कि कुलपति जाने-माने शिक्षाविद होंगे।
देश गरीब था, अनपढ़ लोगों की तादाद अधिक थी, तब कैसे कुलपति हुए? सर आशुतोष मुखर्जी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सीआर रेड्डी, डॉ. गंगानाथ झा, डॉ. अमर नाथ झा, लक्ष्मणस्वामी मुदालियार, आचार्य नरेंद्रदेव, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ. हरिसिंह गौर, सर सुंदरलाल, महामना मालवीय जैसे तपे-तपाए ऋषि परंपरा के शिक्षाविद। पुराने भारत में गुरुकुल आश्रमों के प्रधान कुलपति कहलाते थे।
कालिदास ने वशिष्ठ तथा कण्व ऋषि को कुलपति की संज्ञा दी है। नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपतियों, शिक्षाविदों के बारे में ह्वेनसांग यात्रा विवरण में बताते हैं। डॉ. हरिसिंह गौर ने अपनी पूरी जमा पूंजी लगाकर, सागर विश्वविद्यालय बनाया। संस्थापक कुलपति थे। एक बार हॉकी अंतर विश्वविद्यालय प्रतियोगिता सागर विश्वविद्यालय जीता। छात्र कुलपति से छुट्टी मांगने गए। डॉ. गौर का जवाब था, विश्वविद्यालय पढ़ने के लिए है, छुट्टी के लिए नहीं। कहा, ब्रिटेन के राजा जॉर्ज पंचम की मौत पर ब्रिटिश संसद बंद नहीं हुई। छात्रों से ये भी कहा, 'माय चिल्ड्रन इवन व्हेन आई डाई, देयर शैल बी नो होली डे।'
मालवीय जी का प्रसंग है। उनके घर में दो किचन थे। एक जिसमें उनका खाना बनता था। दूसरे में घर के लोगों का। एक दिन घर के किचन में नाश्ता तैयार नहीं था। मालवीय जी के पोते को परीक्षा देने जाना था। महाराज पूछने आया, आपके किचन में नाश्ता तैयार है, बच्चे को करा दूं? मालवीय जी दोपहर तक भूखे रहे। पोता परीक्षा देकर लौटा, साथ खाने बैठे। अलग-अलग किचन से दोनों का खाना आया। पोते ने कहा, आप क्यों भूखे रहे? सुबह दोनों आपकी रसोई से नाश्ता कर सकते थे। मालवीय जी का जवाब था, मेरी किचन में दान की चीजें आती हैं। मैं थोड़ा-बहुत देश सेवा करता हूं। तुम लोग नहीं। इसलिए समाज से दान में मिला अन्न, खाने का अधिकारी हूं। तुम परिवार के सदस्य नहीं। आचार्य नरेंद्रदेव जैसे ज्ञानवान, कुलपति के रूप में प्रतिमाह 150 रु. वेतन लेते थे। यह नैतिक मापदंड था।
घर के बाद कुलपति, अध्यापक ही समाज-देश का चरित्र गढ़ते हैं। इमर्सन ने कहा है, चरित्रवान लोग समाज की अंतरात्मा हैं। चरित्र खत्म तो मुल्क-सभ्यताएं खत्म। चरित्र ही मुल्कों का इतिहास लिखा करते हैं। जब विश्वविद्यालयों में सरस्वती के उपासक आपराधिक कामों में लीन होंगे, तो उस मुल्क का भविष्य क्या होगा? आवश्यक है कि कुलपतियों के चयन के मापदंड बदलें।