संसद में पूरी बात नहीं हो पाने का संकट

लोकतंत्र की परिभाषा को देखें तो उसमें सबकुछ जनता ही है

Update: 2022-02-28 13:17 GMT
लोकतंत्र में लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं ज़ैसे सभी सदनों को सर्वोपरि माना जाता है. इसीलिए अर्थतंत्र और न्यायतंत्र के मुकाबले राजव्यवस्था को ज्यादा महत्व दिया जाता है. विद्वान लोग इसका कारण यह बताते हैं कि आर्थिक नीतियों और कानूनों में बदलाव या नए कानून बनाने का काम जन प्रतिनिधियों के जिम्मे है. अगर वाकई ऐसा है तो क्या इस बात पर लगातार नज़र नहीं रखी जानी चाहिए कि जनप्रतिनिधियों के सर्वमान्य सामूहिक विचारस्थल यानी राज सदनों में कामकाज ठीक से चल रहा है या नहीं. बेशक इसे देखने के लिए पहले से एक व्यवस्था है जो तय नियमों के मुताबिक सदनों को चलाने का दावा करती है. फिर भी, भारतीय लोकतंत्र की इस व्यवस्था में कुछ दशकों से एक बड़ी गंभीर समस्या खड़ी दिख रही है कि आमतौर पर सदनों की बैठकों में बहस मुबाहिसों के दौरान व्यवधान हो जाता है और सदन की कार्यवाहियां स्थगित हो जाती हैं.
कितनी बड़ी है यह समस्या
चाहे लोकसभा हो या राज्यसभा या प्रदेशों की विधानसभाएं, उनके स़त्रों में व्यवधान आने और समय नष्ट होने को आमतौर पर आर्थिक नुकसान से तोला जाने लगा है. हालांकि ये कोई आज की ही बात नहीं है, बल्कि कई दशकों से आमतौर पर ऐसा ही होने लगा है. मसलन 2021 के लोकसभा और राज्य सभा के मानसून स़त्र के लिए कुल निर्धारित 200 घंटों में जब सिर्फ 49 घंटे ही काम हो पाया तो सरकार, मीडिया और दूसरे पक्षकारों ने यही बात ज्यादा कही कि 130 करोड़ बर्बाद हो गए.
उस सत्र में दोनों सदनों में समय के लिहाज से लोकसभा में सिर्फ 22 फीसदी और राज्यसभा में सिर्फ 28 फीसदी काम हुआ और हिसाब लगाकर बता दिया गया कि व्यवधान के कारण काम न होने से इतने करोड़ का नुकसान हो गया. यहां एक सवाल है कि क्या इन लोकतांत्रिक सदनों के महत्व को धन से तोलना काफी है या इन सदनों का उससे भी कहीं ज्यादा और बड़ा महत्व है. क्या राजनीतिशास्त्र के विद्वानों को देश के नागरिकों को यह भी नहीं बताते रहना चाहिए कि लोकतंत्र में इन सदनों में आधी अधूरी बात हो पाने या बात न हो पाने का धन भी ज्यादा दूसरा नुकसान भी है.
लोकतंत्र में विचार विमर्श की अहमियत
लोकतंत्र की परिभाषा को देखें तो उसमें सबकुछ जनता ही है. यानी वही संप्रभु है. क्योंकि, करोड़ों नागरिक एक ही समय में एकसाथ विचार विमर्श नहीं कर सकते, सो वे अपने कुछ प्रतिनिधि चुनते हैं. ये थोड़े से जनप्रतिनिधि ही सदनों में बैठकर सोच विचार या बहस करते हैं और फिर तय करते हैं कि जनता के लिए क्या न्यायपूर्ण है.
यानी एक तरह से यह माना जा सकता है कि इन सदनों में जनप्रतिनिधियों के रूप में देश के सभी नागरिक बैठे होते हैं और अपने वर्तमान और भविष्य को तय कर रहे होते हैं. अगर ऐसा है तो यह क्यों नहीं माना जा सकता कि अगर सदन में व्यवधान की स्थिति बनती है तो वह लोकतंत्र में संप्रभु माने जाने वाले नागरिकों के विचार विमर्श में व्यवधान है और देश के नागरिक विचार विमर्श से वंचित हो रहे है.
कब से बढ़ा यह रोग
इस समस्या के इतिहास पर एक भरे पूरे शोध की दरकार है. उसी शोध से यह भी पता चल सकता है कि बहुदलीय व्यवस्था में इस तरह के व्यवधान कितने स्वाभाविक या अस्वाभिक हैं. हालांकि कुछ बातों का जिक्र किसी राजनीतिशास्त्रीय शोध के बगैर भी किया जा सकता है. मसलन अभी छह महीने पहले यानी अगस्त 2021 में मानसून सत्र के लिए जितना समय तय था, उसके मुकाबले सिर्फ 22 फीसदी समय ही लोकसभा का सत्र चला. यानी तय लक्ष्य से एक चैथाई से भी कम संसदीय कार्य हुआ.
अगर उस समय की टीवी और अखबारों की खबरों को पलटकर देखें तो उस दौरान सदन की कार्यवाही पर प्रतिघंटे होने वाले खर्च की ही चर्चा ज्यादा हुई थी. खुद सरकार ने सदन की कार्यवाही में व्यवधान पर चिंता जताई थी. हालांकि उस हकीकत की ज्यादा चर्चा नहीं हुई कि उसके पहले दिसंबर 2016 में शीतकालीन सत्र में तो तय लक्ष्य से सिर्फ 15 दशमलव 7 फीसदी समय तक ही लोकतांत्रिक गतिविधि हो पाई थी.
लगे हाथ सदन में व्यवधान का एक हवाला दिसंबर 2010 के शीतकालीन सत्र का दिया जा सकता है, जिसमें लगातार हंगामेबाजी के कारण सिर्फ छह फीसदी काम हो पाया था. उसके पहले भी कई बार ऐसा हुआ है. ऐतिहासिक कालक्रम में यह समस्या दशकों से है. लेकिन अभी तक साफतौर पर यह निर्धारित नहीं हो पाया है कि इस समस्या का सबसे ज्यादा घातक प्रभाव क्या और किस पर पड़ता है. लेकिन इस बात को जरूर कहा जा सकता है कि 39 लाख करोड़ रुपए के बजट आकार और कोई डेढ़ सौ लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था वाले देश में सौ सवा सौ करोड़ का नुकसान उतना ज्यादा महत्व नहीं रखता, जितना बड़ा नुकसान यह है कि लोकतंत्र में जनहित का विचार विमर्श नहीं हो पाया.
सरसरी तौर पर एक कारण
सदनों में व्यवधान के कई कारण हो सकते हैं और यह एक भरे पूरे शोध का विषय है. लेकिन सरसरी तौर पर एक कारण देखें तो साफ दिखता है कि जनप्रतिनिधि आमतौर पर सदन में अपनी आवाज के जरिए यह बताने की कोशिश करते हैं कि जनता के सरोकारों को लेकर वे कितने संजीदा हैं. सदन की कार्यवाही का जब टीवी पर सीधा प्रसारण नहीं होता था तब अखबार बड़ा जरिया होते थे. सदन में कही गई सभी महत्वपूर्ण बातों को प्रमुखता से छापा जाता था.
कुछ दशकों से सदन की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होने लगा. निजी टीवी चैनल भी सदन की कार्यवाहियों का तत्काल विश्लेषण करते हैं और आमतौर पर बताते हैं कि कौन से जनप्रतिनिधि जनता के किस मुद्दे की चर्चा कर रहे हैं. साथ ही यह भी कि सत्तापक्ष और विपक्ष के जनप्रतिनिधि जनता के लिए क्या सोच या कर रहे हैं और जनता के हित में क्या करने का इरादा रखते है. यह कहने की ज्यादा जरूरत नहीं कि इन्हीं भाषणों में सभी राजनीतिक दल जनता के प्रति अपनी संजीदगी का प्रचार प्रसार करते हैं और अगले चुनाव की भूमिका तैयार करते हैं.
विपक्ष को ही क्यों माना जाता है जिम्मेदार
बहुदलीय लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था में सत्ता पक्ष पर नियंत्रण के लिए विपक्षी दलों के जनप्रतिनिधियों की बड़ी भूमिका मानी जाती है. आमतौर पर देखा गया है कि भारतीय लोकतंत्र के कुछ दशकों के इतिहास में जब भी विपक्ष कमजोर रहा तो उसकी भूमिका लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया निभाता नज़र आया. लेकिन पिछले कुछ दशकों में सत्ता और विपक्ष के बीच प्रतिनिधित्व का अनुपात घटता रहा है.
यानी भारतीय नागरिकों का रुख गौरतलब है कि वह विपक्ष को भी पर्याप्त मजबूती देता दिखाई दिया है. पिछले कुछ चुनाव नतीजों पर गौर करें तो आमतौर पर पूरे विपक्ष का जनाधार सत्ता पक्ष के कुल जनाधार से ज्यादा रहने लगा है. इसीलिए कुछ विद्वान कहते है कि अगर विपक्ष के जनप्रतिनिधि अपनी बात कहने के लिए सदन में व्यवधान के मिम्मेदार हों भी तो उन्हें एकदम खारिज नहीं किया जा सकता. यह बात किसी एक कालखंड में या किसी दल के सत्ता या विपक्ष में रहने के लिहाज से नहीं देखी जा सकती.
क्योंकि नजीरें तैयार हैं कि जो आज विपक्ष में होता है वह कल सत्ता में आने के बाद विपक्ष को सदन में कार्यवाही में व्यवधान का जिम्मेदार बताता है. उधर किसी भी कालखंड का विपक्ष रहा हो उसका तर्क यही रहता है कि सदन को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की है. हमेशा ही सत्ता पक्ष कहता है कि विपक्ष फिजूल का हंगामा करके सदन नहीं चलने देता. सवाल है कि क्या इन आरोप प्रत्यारोपों की शोधपरक जांच पड़ताल नहीं होनी चाहिए?
असल में नुकसान किसका
अव्वल तो व्यवधान की समस्या को कोई भी पक्ष स्थायी रूप से समस्या नहीं मानता. कोई भी हो, जब वह सत्ता में होता है, उसे बस तभी यह समस्या दिखती है. यानी यह समस्या सदन में उस समय उसकी स्थिति पर निर्भर है. लेकिन अगर लोकतंत्र के हित अहित के लिहाज से देखें तो यह व्यवधान नागरिकों को हमेशा ही घाटे रखता है. जाहिर है कि जो घाटे में है वही उपाय सोचेगा. लेकिन जटिलता यह है कि सामान्य नागरिक औपचारिक सोच विचार की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेते.
कहा यह भी जाता है कि अपने लोकतंत्र में लोग यानी लोक अभी इतना सशक्त नहीं हो पाया है कि अपने चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर लगातार दबाव बनाए रख सके. लेकिन सैद्धांतिक रूप से देखें तो इस समस्या के समाधान की जिम्मेदारी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के दायरों से बाहर माने जाने वाले विद्वान अपने ऊपर ले सकते हैं. खासतौर पर राजनीतिशास्त्र और न्याय क्षेत्र के सिद्धांतकार आपसी सोच विचार से कोई तरीका ढूंढकर ला सकते हैं कि सदनों की कार्यवाही को न्यूनतम समयावधि तक चलाने को कैसे सुनिश्चित किया जाए.
कठिन है कामयह काम इतना आसान होता तो कई दशकों से चली आ रही इस समस्या का समाधान हो चुका होता. देश में न तो सैद्धांतिक राजनीति विज्ञानियों की कमी है और न ही लोकतंत्र में गहरी आस्था रखने वाले जागरूक लोग कम हैं. लेकिन उनकी सक्रियता के लिए एक माहौल भी चाहिए. ऐसी जटिल समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए देश में विचारविमर्श आयोजकों की भी दरकार है. उससे भी मीडिया उससे भी पहले लोकतंत्र का चैथा खंभा कहे जाने वाले मीडिया का एक नया तबका चाहिए जो जटिल समस्याओं पर बातचीत को नीरस कह कर खारिज न करता हो.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सुधीर जैन
अपराधशास्त्र और न्यायालिक विज्ञान में उच्च शिक्षा हासिल की. सागर विश्वविद्यालय में पढाया भी. उत्तर भारत के 9 प्रदेश की जेलों में सजायाफ्ता कैदियों पर विशेष शोध किया. मन पत्रकारिता में रम गया तो 27 साल 'जनसत्ता' के संपादकीय विभाग में काम किया. समाज की मूल जरूरतों को समझने के लिए सीएसई की नेशनल फैलोशिप पर चंदेलकालीन तालाबों के जलविज्ञान का शोध अध्ययन भी किया.देश की पहली हिन्दी वीडियो 'कालचक्र' मैगज़ीन के संस्थापक निदेशक, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनोलॉजी एंड फॉरेंसिक साइंस और सीबीआई एकेडमी के अतिथि व्याख्याता, विभिन्न विषयों पर टीवी पैनल डिबेट. विज्ञान का इतिहास, वैज्ञानिक शोधपद्धति, अकादमिक पत्रकारिता और चुनाव यांत्रिकी में विशेष रुचि.
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