वोट बैंक बनाने के एजेंडे से हासिल नहीं किया जा सकता आदिवासी सशक्तीकरण का मकसद
राजनैतिक दलों के लिए आदिवासी एजेंडा भर हैं या फिर उनके हालातों को बेहतर बनाने का मिशन. भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने झारखंड मुक्ति मोर्चा को चुनौती देते हुए जिस तरह आदिवासी हितैषी होने का दावा किया है
Faisal Anurag
राजनैतिक दलों के लिए आदिवासी एजेंडा भर हैं या फिर उनके हालातों को बेहतर बनाने का मिशन. भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने झारखंड मुक्ति मोर्चा को चुनौती देते हुए जिस तरह आदिवासी हितैषी होने का दावा किया है, उससे मिशन बनाम एजेंडा की बहस एक बार फिर उठ खड़ी हुयी है. बिहार से अलग हो कर झारखंड राज्य बनाने के पीछे मुख्य नजरिया तो यही था कि आदिवासियों का एक ऐसा राज्य बनेगा जहां आदिवासी संस्कृति,सामाजिक संरचना की विशिष्टता के अनुकूल नीतियां बनेंगी. लेकिन 22 साल की हकीकत तो कुछ और ही बयान करती है और इन 22 सालों में लगभग छह सालों को छोड़ कर शेष अवधि तो भारतीय जनता पार्टी ने ही राज्य में शासन किया है. फिर भी आदिवासियों की बहुसंख्या खुद को ठगा हुआ ही महसूस करती है.
इसकी पूरी तहकीकात किए जाने की जरूरत महसूस की ही जाती रही है. लेकिन किसी भी सरकार ने आदिवासियों की स्थिति को लेकर न तो विशेष नीति को ही अमल में लाने का प्रयास किया है और न ही वास्तविकताओं का समाना करने का साहस दिखाया है.दरअसल आदिवासी समाज को एक ऐसे वोट बैंक में तब्दील करने की प्रतिस्पर्धा पिछले 22 सालों से दिखती रही है जिसमें संस्कृति,भाषा,विस्थापन,पलायन, आदिवासी स्वशासन जैसे तमाम सावलों को नजरअंदाज किया गया. इस सवाल का जबाव देने का साहस कौन दिखाएगा कि झारखंड में पांचवीं अनुसूची के अनुकूल शासन प्रशासन को अमल में क्यों नहीं लाया गया. संवैधानिक प्रावधान को नजरअंदाज करने वाले राजनैतिक समूह आखिर कौन हैं. इनकी पहचान कोई करेगा या नहीं
1996 में संसद से पंचायती राज विस्तार अधिनियम यानी पेसा एक्ट बन गया. 2000 में जब राज्य बना तो उम्मीद की गयी कि सबसे पहले इसी एक्ट को इसकी पूरी भावना के साथ अमल में लाया जाएगा. लेकिन 22 साल के राज्य सफर में इस एक्ट की नियमावली भी नहीं बनायी जा सकी. इसी से समझा जा सकता है कि आदिवासी हित की बात करना एक पहलू भर है. लेकिन वास्तव में आदिवासियों को राजनैतिक तौर पर सशक्त बनाना और गांव स्तर पर उनके स्वशासन को स्वीकार करना दूसरी बात है.संविधान सभा की बहसों को तो किसी पार्टी में न जानने की इच्छाशक्ति है और न ही एक नए राज्य को आदिवासी हितों के अनुकूल विकास का एक नया प्रयोग स्थल बनाने का संकल्प.
राज्य बनने के बाद से जिस तरह आदिवासी भूमि की लूट हो रही है इसकी अनेक दास्तान खबरों की सुर्खिया बन ही दम तोड़ देती है. इस लूट में बड़े नेता हों या फिर अधिकारी या फिर उद्योग घराने सभी शामिल हैं. इसी तरह आदिवासी भाषा में शिक्षा देने का सपना जमीन पर उतरता ही नहीं. न तो पोषण के कार्यक्रम कुपोषण के मार्मिक आंकड़ों को बदल पाए हैं और न ही आदिवासी मजदूरों के पलायन की हकीकत को.
दरअसल आदिवासी राज्यों के विकास के लिए आज की राजनीति के पास कोई वैकल्पिक कार्यक्रम और नीति है ही नहीं. वाल्टर कंडुलना जैसे आदिवासी विचारक मानते हैं कि बीमारी की पहचान करने के बजाय आदिवासी क्षेत्रों में उसे बढ़ाया ही जा रहा है. इन दिनों कुछ नेता आदिवासियों को अमीर बनाने के लिए सीएमटी,एसपीटी एक्ट को कमजोर करने की बात जोर शोर से उठा रहे हैं. सवाल है कि जिस तरह सरकारी संपत्तियों को बेचे जाने के बाद भी देश की आर्थिक हालत नहीं बदली है, उसी तरह आदिवासियों की बची—खुची संपत्ति से उन्हें बेदखल कर उन्हें अमीर नहीं बनाया जा सकता.
यह मामूली तथ्य भी आज की राजनीतिज्ञ स्वीकार करने को तैयार नहीं है. ऐसे में आदिवासी हितों की बात कर भले ही एक तबके को भ्रमित किया जा सकता है लेकिन इससे आदिवासियों के हालात नहीं बदलेंगे. मुख्य तथ्य तो यह है कि नीतियों को कारपारेट हितों के अनुकूल तैयार किया जाता है न कि आदिवासी हित के नजरिए से. कल्याकारी राज्य के अवशेष को बचाए रखने के लिए जरूर कुछ मरहम देने जैसे कार्यक्रम बना दिए जाते हैं. लेकिन इससे आदिवासी समूहों की जिंदगियां नहीं बदलेंगी.किसी समूह का सशक्तीकरण का लक्ष्य खोखले राजनैतिक जुमलों से हासिल नहीं किया जा सकता है. मिशन राजनैतिक वोट बैंक बनाने की प्रवृति तो नहीं ही है.
सोर्स- Lagatar News