आज़ादी के अमृत काल में प्रशासन ने ठान लिया है कि अब वह गाँव की ओर चलेगा। कल ही नेता जी ने शहर में हुए संवाददाता सम्मेलन में इस आशय की घोषणा की थी। अब तक प्रशासन गाँव की सुध लेना भूल गया था। अगर नेता जी का बस चलता तो प्रशासन को चलने नहीं दौडऩे का आदेश देते। पर शहर की सडक़ों पर ट्रैफिक इतना अधिक है कि उन पर दौडऩा संभव नहीं। अगर किसी तरह ट्रैफिक साधने का बंदोबस्त कर भी लिया जाए तो सडक़ों के गड्ढे इतने गहरे हैं कि एक बार उनमें गिरने के बाद जब आदमी साबुत बाहर नहीं निकल पाता तो विकास जो पहले से ही अंधा, बहरा और लूला-लँगड़ा है, बिना सहारे के बाहर कैसे आएगा। पर क्षमा करें। आजकल अपंग या प्रकृति से चुनौती प्राप्त लोगों के लिए सरकार दिव्यांग शब्द का इस्तेमाल कर रही है। अत: हम विकास को ससम्मान सम्बोधित कर सकते हैं कि विकास अपंग नहीं ‘दिव्यांग’ है। पर हमारे नेता जी दूर की सोचते हैं। उन्होंने विकास को गड्ढे से बाहर लाने का ठेका अपने साले को दे दिया है। दरअसल नेता जी भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के खिलाफ नहीं जाना चाहते। हमारे समाज में जोरू के भाई को ख़ुदा से ऊपर माना गया है। लगता है आपने वह कहावत नहीं सुनी कि सारी ख़ुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ। लेकिन वह अपने भाइयों का भी उतना ही ध्यान रखते हैं। सडक़ें बनाने का ठेका उन्होंने अपने भाइयों को दे रखा है।
पर आप उन पर यह दोषारोपण नहीं कर सकते कि वह सबको एक नजऱ से नहीं देखते। पत्रकारों पर भी उनकी बराबर की नजऱ रहती है। साहिब! अब हुकूमत से किसे सम्मान नहीं चाहिए। पत्रकार न तो दूसरी दुनिया से आए हैं और न ही वे फकीर हैं। ज़रूरतें उनकी भी हैं। फिर अगर पत्रकार सरकारी अँधेरे को रोशनी लिख दें तो शिकायत कैसी। जहां तक वोटर्स का सवाल है तो फरेब किस रिश्ते में नहीं चलता। कुछ सियासत नेता जी करते हैं और कुछ लोग पाखंडी हैं। कुछ लोगों का सीधापन है और कुछ नेताओं की अय्यारी है। अब ताली एक हाथ से तो बजती नहीं। जिन लोगों के काम नहीं होते, वे इलेक्शन के दौरान पाला बदल लेते हैं। जिन्हें नेताओं से कोई काम नहीं होता, वे चुनावों के वक्त बिना कुछ लिए वोट नहीं देते। ऐसे में नेता जी का सियासी होना तो बनता ही है। फिर अगर समाज सेवा ही करनी होती तो नेता जी बाबा आमटे हो जाते या कैलाश सत्यार्थी। शरद जोशी जी ने अपने व्यंग्य ‘जिसके हम मामा हैं’ में लिखा है, ‘समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं-क्यों साहब, वह कहीं आपको नजऱ आया? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं।
वही, जिसके हम मामा हैं। पांच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं।’ पर हमारे नेता जी कहीं नजऱ नहीं आते। अब राजनीति को असंभव की कला सिर्फ इसलिए तो कहते नहीं कि आप समस्याओं के घाट पर तौलिया लपेटे हर किसी से पूछते रहें कि नेता जी कहीं नजऱ आए। आपके पूछने के बावजूद जिस आदमी को बेवकूफ बनाने की कला आती हो, वही असली नेता और राजनीतिज्ञ है। फिर अगर नेता जी कहीं नजऱ आ भी गए तो गूँगों-बहरों की बस्ती में सवाल पूछने की हिम्मत किसमें हैं। साल 2024 तक पाँच ट्रिलियन को छूने वाली इकॉनमी कहीं नोटबंदी तो नहीं हो गई? शहरों में 2022 तक सभी को मिलने वाले पक्के घरों का क्या हुआ? घाटी में कश्मीरी पंडित बस गए? अगर नाले की गैस से पकौड़े तले जा सकते हैं तो पेट की गैस से क्यों नहीं? बाकी तमाम समस्याओं के लिए तो नेहरू और काँग्रेस जि़म्मेवार हैं, पर क्या भाजपाइयों के वायदों और झूठ के लिए भी वही उत्तरदाई हैं? शुक्र है कि शरद जोशी जी के पास तौलिया भी था और हिम्मत भी थी पूछने की। पर हम हैं कि नंगे होने के बावजूद पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे।
पीए सिद्धार्थ
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal