अफगानी महिला खिलाड़ियों को तालिबान का फरमान- 'ना शक्ल दिखेगी, ना जिस्म. मंजूर हो तो मैदान मुबारक'

‘लंगूर के हाथ में अंगूर’ हो और वो भी खूब मगरूर हो तो भला आप ये कैसे भरोसा कर सकते हैं

Update: 2021-09-10 06:58 GMT

अभिषेक कुमार नीलमणि। 'लंगूर के हाथ में अंगूर' हो और वो भी खूब मगरूर हो तो भला आप ये कैसे भरोसा कर सकते हैं कि वो मिल बांटकर खाएगा. ज्यादा सोचिए मत. मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं, इसकी बानगी हेडलाइंस से आपको होनी चाहिए. भला आप ही बताओ, ऐसा कौन सा खेल है भई जो बिना चेहरा दिखाए खेला जा सकता हो. जब चेहरा ही नहीं दिखाएंगे, तो खेलेंगे क्या खाक. बड़ी हैरानी होती है कि तालिबान को आखिरकार महिलाओं के चेहरे से इतनी परेशानी क्या है? आखिर क्यों उनकी ख्वाहिश है कि महिलाएं चांद तारों पर ना जाएं ? बारादरी बिरादर ऐसा क्यों चाहती है कि महिलाएं कहीं हमारा हिस्सा ना बन जाए? अखुंद, मुल्ला, हक्कानी को महिलाओं का डर क्यों सताता रहता है ?

जरा देखिए तालिबान के संस्कृति मंत्रालय का फरमान. सांस्कृतिक आयोग के उप प्रमुख अहमदुल्ला वासिक कहते हैं कि 'महिलाओं को क्रिकेट समेत उन तमाम खेलों में शामिल नहीं होना चाहिए जिसमें उन्हें ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े जहां उनका चेहरा और शरीर ढका नहीं होगा. इस्लाम महिलाओं को इस तरह देखने की इजाजत नहीं देता'
क्या तालिबान को इस्लाम और शरीयत का तकाजा है?
ये हैं इस्लाम के ठेकेदार. इन्हें ही इस्लाम की फिक्र है. कभी-कभी लगता है कि क्या इन्हें इस्लाम का 'इ' तक पता है ?आपको एक वाकया बताता हूं, ताकि इस्लाम क्या है, थोड़ा इल्म उसका भी हो ही जाए.जाबिर बिन अब्दुल्ला खुद एक बयान देते हैं कि (जाबिर बिन अब्दुल्ला कौन हैं, इस्लाम को समझने वाला हर कोई जानता है)
"मौसी तलाक़ के बाद इस्लामी कानून के मुताबिक इद्दत (एक वक्त जिसमें औरतें सिर्फ घर में ही रह सकती हैं) के दौरान अपने खजूर के पेड़ काटने और उसको बेचने की बात कही तो उन्हें सख्ती से मना कर दिया गया. लेकिन जब पैगंबर मुहम्मद ने कहा- खेत जाओ, अपने खजूर के पेड़ काटो और उन्हें बेचो. ताकि इस पैसे से बहुत मुमकिन हो कि तुम कोई भलाई का काम कर सको" ये थे पैगंबर मोहम्मद और ये है इस्लाम. मगर चंद तालिबान लड़ाके, जो पिछले ना जाने कई बरसों से पहाड़ों की खाक छान रहे थे, अब औरतों को हिजाब और बुर्के में कैद करके इस्लाम के कायदे कानून सीखा रहे हैं.आगे तालिबान सल्तनत के फैसलों का पूरा पर्चा निकाला जाए, उससे पहले एक और वाकया जान लेना जरूरी है.
इस्लाम नहीं कहता कि सिर से पैर की उंगलियों तक लंबा घूंघट करें औरतें
हज़रत अबू बकर की बेटी हज़रत अस्मा खेत से खजूर की गुठलियां लाया करती थीं. ऐसी चर्चा है कि एक रोज पैगंबर मोहम्मद ने उन्हें देख लिया. वो जिस सवारी से जा रहे थे, हज़रत अस्मा को उसी पर बिठाने के लिए पास बुलाया. मतलब साफ है कि उस जमाने में भी औरतें खुद खेती करती थीं और शुक्रवार को सहाबा (पैगंबर मोहम्मद के साथी) को चुकंदर और आटे से तैयार किया हुआ हलवा खिलाती थीं.
अब आप बताइये. क्या इस्लाम में पर्दा था? क्या इस्लाम में सिर से पैर की उंगलियों तक लंबा घूंघट का चलन था ? बिल्कुल नहीं. क्योंकि अगर ऐसा होता तो पैगंबर मोहम्मद ये कभी नहीं जान पाते कि खजूर की गुठलियां लेकर हज़रत अस्मा आ रही हैं. आपको एक बात बिल्कुल साफ साफ बता देना बेहतर होगा कि इस्लाम में हथेली और चेहरे का पर्दा तो है ही नहीं. मगर जिस चीज का पर्दा है, वो मर्द और औरतों दोनों के लिए हैं. और वो सिर्फ इतनी कि निगाह नीची रखें.
अब जो ज़ालिम होते हैं, जिनके हाथों में बंदूक होती है, जेबें गोलियों से भरी होती हैं, उन्हें ना किसी सिस्टम का खौफ होता है और ना ही किसी शरीयत पर भरोसा. वो तो बस हर कायदे कानून को कुचलना ही अपनी सबसे बड़ी अहमियत मानते हैं.
पैगंबर मोहम्मद और उनका इस्लाम तो वो है जिसमें कहते हैं कि मर्द नीचे गलियों में दुश्मन का सामना करेंगे और औरतें छतों से मोर्चा संभालेंगी.
तालिबान राज में औरतों की मुश्किलें तमाम
मगर इस्लाम को बदनाम करने की ठेकेदारी लेने वाले तालिबान सरकार ने दो फरमान जारी किया है-
पहला फरमान
औरतें अफगान कैबिनेट का हिस्सा नहीं हो सकती हैं, वो सिर्फ बच्चे पैदा करें
दूसरा फरमान
चेहरा और शरीर का अंग दिखाने वाले खेलों में लड़कियां या महिलाएं शामिल नहीं होंगी
इन दो फरमानों से आप समझ गए होंगे कि कितना बदल चुका है तालिबान ? आप इनसे या इन लड़ाकों की कौम से इससे ज्यादा उम्मीद करेंगे तो नाउम्मीदी ही हाथ लगेगी.
मगर इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं था. पैगंबर मोहम्मद ने औरतों को शादी करने की आजादी दी. पिता के फैसले के खिलाफ जाने की आजादी दी. अपने परिवार का भरण पोषण करने की जिम्मेदारी दी. आपको जानकर शायद ये भी हैरानी हो कि पैगंबर मोहम्मद ने औरतों को मस्जिद में नमाज अदा करने तक की छूट दे रखी थी. यकीन ना हो तो शरीयत, फल्सफा-ए-शरीयत, इस्लामी कवानीन और शरीयत से जुड़ी तमाम पोथियां निकालिए और पढ़ना शुरू कीजिए. जवाब खुद ब खुद मिल जाएगा.
'बे-अक्ली शरीयत का हिस्सा नहीं हो सकता'
इस्लामिक धर्मशास्त्र के बड़े स्कॉलर माने जाने वाले इब्न-ए-कय्यिम कहते हैं कि "शरीयत की बुनियाद लोगों के कल्याण पर है और इसका मतलब सिर्फ एक है, इंसाफ. अब अगर इंसाफ के बजाय जुल्म हो, रहमत के बजाय जहमत हो, फायदे के बजाय नुकसान हो और अक्ल के बजाय बे-अक्ली होने लगे तो वो शरीयत हो ही नहीं सकता"
काबुल की सड़कों पर अमेरिकी हथियारों से लैस लड़ाकों को ना तो शरीयत का 'श' पता है और ना इस्लाम का 'इ'. 20-25 साल के नौजवानों के हाथों में दुनिया के महाशक्तिशाली मुल्क अमेरिका के लूटे हुए हथियार हो तो भला वो कहां इतनी सब्र रख पाएंगे जब महिलाएं उनके सामने सीना तानकर उनकी गोलियां से निडर अपनी आवाज़ बुलंद करें. लिहाजा, इन जालिमों की उंगलियां ट्रिगर पर दब ही जाती हैं, और फिर अफगानिस्तान की सड़कों पर कोहराम मचा रहता है.
अफगानिस्तान के कोने कोने में औरतें प्रदर्शन कर रही हैं. अपना जायज हक मांग रही है. पूछ रही हैं कि. क्यों नहीं हमें सरकार में हिस्सेदारी दे रहे हो? पूछ रही हैं कि, हमें क्यों तुम पर्दे के अंदर रख रहे हो ? पूछ रही हैं कि, हमें क्यों नहीं पढ़ने लिखने और खेलने दे रहे हो ? और साथ ही ये भी पूछ रही हैं, फिर कैसे मान लें कि जो तालिबान आया है वो 20 साल पहले वाला नहीं है?
जाते जाते सिर्फ इतना जान लीजिए, जो तालिबान आया है उसकी कथनी और करनी में बहुत बड़ा फर्क जल्द ही दिखेगा. क्योंकि ये तालिबान इस्लाम और शरीयत का अर्थ अपनी सहूलियत के हिसाब से निकालता आया था, निकालता आया है, निकालता ही रहेगा.


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