विश्व मंच पर जगह तलाशते तालिबान
अफगानिस्तान में सत्ता पर तालिबानी कब्जे का एक वर्ष पूरा हो गया। पिछले साल अगस्त में ही तालिबान ने वहां की लोकतांत्रिक सरकार को बेदखल कर सत्ता हथिया ली थी
पंकज सरन,
अफगानिस्तान में सत्ता पर तालिबानी कब्जे का एक वर्ष पूरा हो गया। पिछले साल अगस्त में ही तालिबान ने वहां की लोकतांत्रिक सरकार को बेदखल कर सत्ता हथिया ली थी। लेकिन उस समय तालिबान जिन मुश्किलों से जूझ रहे थे, आज भी वे चुनौतियां कमोबेश कायम हैं, बल्कि कई मामलों में तो उनकी परेशानी बढ़ गई है। फिलहाल तालिबान सरकार चार बड़ी चुनौतियों का मुकाबला कर रही है।
पहली, समावेशी सरकार का गठन। अमेरिका के साथ किए गए दोहा समझौते में तालिबान नेतृत्व ने आश्वस्त किया था कि वे ऐसी सरकार बनाएंगे, जिसमें सभी समुदायों व वर्गों का प्रतिनिधित्व होगा। मगर अब तक शासन में मूल रूप से पश्तून और तालिब का ही दबदबा है। हजारा, ताजिक, उज्बैक जैसे समुदायों को अब भी उचित प्रतिनिधित्व हासिल नहीं हो सका है। इतना ही नहीं, वहां अल्पसंख्यकों की हालत काफी दयनीय है। विशेषकर सिख व हिंदू समुदाय के लोगों को वहां से पलायन करना पड़ा है। मानवाधिकार एक बड़ा मसला तो है ही। महिलाओं को भी समान भागीदारी नहीं मिल सकी है। जाहिर है, तालिबान के लिए राजनीतिक स्थिरता हासिल करना काफी जरूरी है।
दूसरी चुनौती है, आतंकवाद और कट्टरवाद पर नियंत्रण। तालिबान सरकार इस मोर्चे पर भी जूझती नजर आ रही है। अल-कायदा प्रमुख अल जवाहिरी को अमेरिका ने जिस तरह से मार गिराया है, उससे तो यही संकेत मिलता है कि अफगानिस्तान में अल-कायदा व आईएस जैसे आतंकी गुटों की गतिविधियों पर अब भी तालिबान नियंत्रण नहीं पा सका है। उसे खुद को साबित करना होगा।
तीसरी चुनौती आर्थिक और वित्तीय मुश्किलों से पार पाना है। तालिबान ने जब सत्ता संभाली थी, तब अफगानिस्तान आर्थिक कठिनाइयों में डूब-उतर रहा था। एक साल में उसकी आर्थिक हैसियत और बिगड़ गई है। सूखा और बेरोजगारी जैसी मुश्किलों के साथ-साथ खस्ता बैंकिंग व्यवस्था और घटता विदेशी मुद्रा भंडार भी उसे हलकान किए हुए है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी उसकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा, क्योंकि शासन व्यवस्था को लेकर अब भी तालिबान विश्वास नहीं जीत सके हैं। मुल्क के अंदर ही नहीं, उसके बाहर भी अफगानियों का पलायन काफी तेजी से हो रहा है।
चौथी चुनौती है, अंतरराष्ट्रीय मान्यता हासिल करना। बेशक दुनिया भर के देश अब भी अफगानिस्तान को उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं और अपने-अपने हितों के अनुरूप द्विपक्षीय रिश्ते को आगे बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन तीन देशों के अलावा अन्य किसी देश ने तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। संयुक्त राष्ट्र तक ने उसके लिए सीट आवंटित नहीं की है।
हालांकि, इस एक वर्ष में पड़ोसी मुल्कों के साथ काबुल के रिश्ते कुछ आगे बढे़ हैं। मध्य एशिया में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में तालिबान के नुमाइंदे ने भी, जो कथित तौर पर अफगानिस्तान के विदेश मंत्री हैं, शिरकत की थी। कुछ अन्य तरीकों से भी रिश्ते आगे बढ़ रहे हैं, पर पश्चिमी देशों ने ही नहीं, पड़ोसी मुल्कों, यहां तक कि भारत ने भी शर्तों के साथ ही तालिबान के साथ अपने रिश्ते बनाए हैं। यही वजह है कि अब भी तालिबान के कई नेता वैश्विक आतंकी सूची में शामिल हैं, जबकि वे मंत्री पद संभाल रहे हैं।
भारत और अफगानिस्तान की दोस्ती के लिहाज से पिछला एक साल काफी दिलचस्प रहा है। यह दिखता है कि तालिबान भी पूर्व की सरकारों की तरह भारत के साथ संबंध आगे बढ़ाने को इच्छुक हैं। हालांकि, जब वहां सत्ता परिवर्तन हुआ था, तब हमने अपना दूतावास बंद कर दिया था और अपने लोगों की सुरक्षित वापसी को लेकर प्रयास तेज कर दिए थे। मगर अब धीरे-धीरे वहां हमारी गतिविधियां तेज हुई हैं। भारत हमेशा मानवीय मदद में आगे रहा है। इसी नीति के कारण विश्व खाद्य कार्यक्रम के तहत हमने वहां गेहूं भेजने का वादा किया है। अफगानिस्तान के लोगों को हम पूरा सहयोग दे रहे हैं। हमारा मानना है कि स्थानीय समाज, आतंकवाद, कट्टरपंथ आदि को लेकर तालिबान ने जो प्रतिबद्धता जताई थी, उसे वे पूरी करें। इस दिशा में अभी काफी काम बाकी है। जैश-ए-मोहम्मद व लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी गुटों के खिलाफ भी हम तालिबान सरकार से ठोस वादा चाहते हैं। अगर वह अपना वादा पूरा कर सकी, तो यकीनन हमारे रिश्ते उसके साथ मजबूत होंगे। फिलहाल तो हमारी तरफ से 'पीपुल-टु-पीपुल कॉन्टेक्ट' (लोगों के बीच संपर्क) पर ही जोर दिया जा रहा है। हमने वहां के बुनियादी ढांचे के विकास में पूर्ववत मदद का आश्वासन दिया है। अच्छी बात है, तालिबान सरकार इस दिशा में सक्रियता दिखा रही है।
अफगानिस्तान में नई सरकार की आमद ने दक्षिण एशिया की राजनीति को प्रभावित किया है। दरअसल, जब अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन हुआ था, तब आनन-फानन में पाकिस्तान की आईएसआई (खुफिया एजेंसी) प्रमुख काबुल पहुंचे थे। शुरू में इस्लामाबाद मान रहा था कि सत्ता परिवर्तन उसकी जीत है। मगर हकीकत अब सामने आ रही है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के रिश्ते में कुछ पेचीदगियां भी हैं। मसलन, पश्तून आबादी डूरंड रेखा (अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा रेखा) के दोनों तरफ बसती है और तालिबान ने इस रेखा को अब तक मान्यता नहीं दी है। पश्तून पर दोनों में टकराव बढ़ने लगा है। ठीक इसी तरह, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को लेकर भी दोनों देशों में गहरे मतभेद हैं। तालिबान यह समझ चुके हैं कि पाकिस्तान उसे जरूरी वित्तीय व सामरिक मदद नहीं दे सकता। चूंकि पाकिस्तान से उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हो रहीं, इसलिए पाकिस्तान के लिए मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं।
तालिबान ने जिस तरह से सत्ता हड़पी थी, उसके लिए जरूरी है कि वह एक समावेशी सरकार बनाए। जब तक स्थानीय लोग उसे अपना नुमाइंदा नहीं मानेंगे, तब तक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस सरकार की हैसियत कमजोर ही रहेगी। इसके लिए तालिबान को चुनाव के माध्यम से लोगों का विश्वास हासिल करना होगा। बेशक दोहा समझौते के बाद अनधिकृत रूप से तमाम देशों ने तालिबान सरकार की वैधता स्वीकार कर ली है, लेकिन बात आगे बढ़ने के बावजूद विश्व के ज्यादातर मुल्कों के साथ तालिबान के रिश्ते बहुत सामान्य नहीं हो सके हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Hindustan Opinion Column