राज्यों को मिले किसानों की जिम्मेदारी
देश के ग्रामीण परिवारों के पास उपलब्ध भूमि और पशुधन के अलावा किसान परिवारों की स्थिति का आकलन करने वाला एसएएस
यामिनी अय्यर। देश के ग्रामीण परिवारों के पास उपलब्ध भूमि और पशुधन के अलावा किसान परिवारों की स्थिति का आकलन करने वाला एसएएस, 2019 (इसे हाल में जारी किया गया है) भारत में खेती-किसानी के विविध व क्षेत्रोन्मुख चरित्र को प्रमुखता से उजागर करता है। यह बताता है कि कृषि आय और कृषि व गैर-कृषि गतिविधियों के अंतर्संबंध राज्य-दर-राज्य अलग-अलग हैं। लिहाजा, 'किसानों की आमदनी दोगुनी करने' या बाजार में प्रतिस्पद्र्धा के जरिये पैदावार बढ़ाने के रास्ते राज्यों की हकीकत समझने के बाद तय किए जाने चाहिए। यही वह मूल वजह है कि आखिर क्यों कृषि राज्य का विषय है और नए कृषि कानूनों में बुनियादी रूप से क्या गलत है।
आंकड़ों के मुताबिक, साल 2018-19 (जून-जुलाई) में एक कृषि परिवार की औसत मासिक आमदनी 10,829 रुपये (पेंशन और प्रेषित-धन सहित) थी। इसमें कृषि आय (फसल उत्पादन और मवेशी पालन) की हिस्सेदारी परिवार की औसत आय में 50 फीसदी से भी कम थी। मगर इस अखिल भारतीय आंकड़े में जिसकी जानकारी नहीं मिलती है और जिसकी ओर 'सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च' इशारा करता है, वह है राज्यवार विविधता। मसलन, केरल (22 फीसदी), पश्चिम बंगाल (28 फीसदी) और ओडिशा (35 फीसदी) जैसे राज्यों में कुल आय में कृषि की हिस्सेदारी एक तिहाई है, जबकि पंजाब (61 फीसदी) और मध्य प्रदेश (66 फीसदी) में यह 60 फीसदी से अधिक है। आय के स्रोतों पर करीब से नजर डालने पर उलझन और बढ़ जाती है। बिहार में औसत मासिक कृषि आय 4,478 रुपये थी, जबकि झारखंड में 1,929 रुपये। हालांकि, मजदूरी से औसत कमाई लगभग समान थी। बिहार में कुल आय में कृषि का हिस्सा 57 फीसदी है, जबकि झारखंड में यह बमुश्किल 37 प्रतिशत। झारखंड में औसतन कृषि परिवार की कुल आमदनी बिहार की तुलना में बहुत कम है। यहां एक चौंकाने वाला आंकड़ा भी है। दरअसल, केरल में कृषि से होने वाली औसतन मासिक आमदनी 4,688 रुपये है, जो बिहार से बहुत ज्यादा नहीं है। कर्नाटक के किसान महाराष्ट्र के किसानों की तुलना में करीब 26 प्रतिशत अधिक कमाते हैं।
इतना ही नहीं, जोत के आकार पर कृषि आय निर्भर करती है। देश भर की बात करें, तो जमीन का आकार जब एक हेक्टेयर से अधिक हो जाता है, तब कुल आमदनी में कृषि आय की हिस्सेदारी 50 फीसदी की सीमा तक पहुंच पाती है। मगर इसमें भी राज्यवार भिन्नताएं हैं। मसलन, केरल में लगभग 87 फीसदी किसान परिवारों के पास .01 से एक हेक्टेयर के बीच जमीन थी, और वहां कुल मासिक आय में कृषि का योगदान सिर्फ 19 प्रतिशत है। दिलचस्प बात यह है कि केरल में बड़ी जोत (दो-चार हेक्टेयर) वाले परिवार भी अपनी आय का केवल 36 फीसदी हिस्सा खेती से कमा पाते हैं। तमिलनाडु में यह आंकड़ा 47 प्रतिशत, बिहार में 78 प्रतिशत और मध्य प्रदेश में 80 फीसदी है। बिहार में 80 प्रतिशत परिवारों के पास .01 से एक हेक्टेयर के बीच भूमि है। यहां की कुल आय में कृषि कर्म का योगदान 45 फीसदी है। मध्य प्रदेश में बहुत कम 52 फीसदी परिवारों के पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है और उनकी आमदनी में खेती की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत है। मगर वहां औसतन कृषक परिवार खेती से अपनी कुल आय का 66 प्रतिशत हिस्सा कमाता है।
वैसे, कृषि उत्पाद बाजार समितियों (एपीएमसी) और बाजारों के उलझे सवालों पर एसएएस डाटा एक सच्चाई की पुष्टि करता है, जिसकी तरफ पिछले सर्वेक्षण और जमीनी अध्ययन, दोनों ने इशारा किया है। पूरे देश में, एकाधिकार होने की बातों से कहीं दूर, बाजार समिति की मंडियां बिक्री के लिहाज से महत्वहीन हैं और सच्चाई यही है कि ज्यादातर किसान अपनी कृषि उपज को राज्यों की मंडियों के बाहर स्थानीय बाजार में बेचते हैं। हालांकि, इसमें भी क्षेत्रवार और फसल के हिसाब से अलग-अलग परिस्थितियां हैं, जिससे राज्यों में खरीद की सरकारी प्रणाली भी अछूती नहीं है।
जाहिर है, इन आंकड़ों पर महज सरसरी निगाह डालने से समझ आ जाता है कि नीतिगत मोर्चे पर कितनी जटिल परिस्थिति है। कृषि उत्पादकता, बाजार तक पहुंच, गैर-कृषि जुड़ाव, अन्य रोजगार के अवसर और सामाजिक सुरक्षा, सभी पर संजीदगी से काम करने की जरूरत है। मगर कृषि और गैर-कृषि, दोनों कार्यों से होने वाली ग्रामीण आय को बढ़ाने के लिए किस नीति को कितनी प्राथमिकता मिलनी चाहिए और इसकी रणनीति क्या होनी चाहिए, यह राज्यों के हिसाब से अलग-अलग तय करना श्रेयस्कर होगा।
संसद ने जब कृषि कानूनों को पारित किया था, तभी हमने कहा था कि इन कानूनों में गड़बड़ी है, क्योंकि इनमें सुधार का ऐसा नजरिया अपनाया गया है, जो एक अत्यंत विविध और भिन्नता समेटे क्षेत्र में केंद्रीकृत नीति की वकालत करता है। राज्यों में कृषि कार्यों, बाजारों और राज्य संस्थानों के आपसी संबंध इतने अलग-अलग होते हैं कि बिहार में औसत कृषि आय केरल जैसी ही काफी ज्यादा है, लेकिन इसके कारण बिल्कुल अलग हैं।
इस दिशा में काम करने के लिए हमें राष्ट्रीय बहसों में दो महत्वपूर्ण बदलाव करने पड़ेंगे। सबसे पहले यह मानना होगा कि राज्यों को हम नजरंदाज नहीं कर सकते। हमें राज्यों की विफलता की चर्चा करने के बजाय राज्य सरकारों की जवाबदेही तय करनी होगी। और दूसरा बदलाव यह करना होगा कि हमें राज्य सरकार के स्तर पर राज्य की क्षमता बढ़ाने के प्रयास तेज करने पड़ेंगे। इसका अर्थ है, नियोजन क्षमता का निर्माण, एक साझा तंत्र द्वारा राज्यों को आपस में जोड़ना (यह भूमिका नीति आयोग बहुत ही प्रभावी ढंग से निभा सकता है) और स्थानीय निकायों में निवेश। क्षेत्रीय विशिष्टता के आधार पर कृषि और गैर-कृषि कार्यों में संबंध बनाने और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बेहतर बनाने के लिए बेहतर समन्वय और विकेंद्रीकरण, दोनों की दरकार है। लिहाजा, हम कितने भी केंद्रीय कानून बना लें, लेकिन इन महत्वपूर्ण मसलों का वे कतई समाधान नहीं कर सकते। अब हमें नीतिगत बहसों का रुख बदला होगा और पूछना होगा कि बड़े सुधारों में निवेश करने और कृषि की महत्वपूर्ण चुनौतियों से पार पाने के लिए राज्यों की क्या-क्या आवश्यकताएं होंगी?
साथ में मेखला कृष्णमूर्ति
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)