पूरे प्रदेश का नियोजन

Update: 2023-06-20 18:49 GMT
By: divyahimachal  
हिमाचल मंत्रिमंडल के फैसलों की भूमिका में यूं तो कई महफिलें या सौगातें आती रहती हैं, लेकिन जब तासीर में संकल्प की नई परिभाषा लिखी जा रही हो, तो किश्तियां तूफानों से लडऩे का माद्दा पैदा कर लेती हैं। बेशक राजनीतिक धरा पर सरकार के अपने असंतुलन व अपरिपक्वता को चिन्हित करती वजह मौजूद हों, लेकिन काम की परिपाटी बदल कर मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू समय से लड़ते हुए भविष्य को नई धार जरूर दे रहे हैं। अब तक के निर्णयों में कई कठिन मोर्चे खुले हैं, लेकिन वक्त की आवाज को यूं ही सुनने का इरादा बुलंद होता है। ताजा-तरीन उदाहरण फोरलेन मार्गों के साथ सौ मीटर तक निर्माण की अस्त-व्यस्तता को पूर्णविराम लगाते हुए सरकार टीसीपी कानून को अमलीजामा पहना रही है। पाठकों को याद होगा कि हम इन्हीं कालमों में अक्सर ग्राम एवं नगर योजना कानून को पूरे राज्य के परिप्रेक्ष्य में सशक्त करने की मांग करते रहे हैं और सुक्खू सरकार एक-एक करके इस दिशा में बढ़ रही है। हिमाचल में आधी शती गु•ाार चुका टीसीपी कानून अगर वक्त की आवाज सुनता या सरकारें इसकी अहमियत को बर्बाद न करतीं, तो हिमाचल आज पूरी तरह व्यवस्थित होता। परवाणू से शिमला, भुंतर से मनाली, पठानकोट से बैजनाथ, कांगड़ा से बिलासपुर या नाहन से पांवटा साहिब तक के रास्तों के किनारे निर्माण की अफरातफरी ने कई घाटियां और कई पहाड़ लील कर हिमाचल की दृश्यावलियों को ढांप दिया है। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि राजनीति और नेताओं में इतना सामथ्र्य नहीं रहा कि टीसीपी की भावना में हिमाचल का निर्माण करते। अब आवश्यक केवल फोरलेन के किनारों पर निर्माण को विकास योजना के तहत लाना नहीं, बल्कि हर छोटी-बड़ी सडक़, नदी-नालों तथा सार्वजनिक भूमि को भी अंधाधुंध निर्माण से बचाने की दिशा में प्रयास करना होगा।
कहने को एक बार शिमला विकास प्राधिकरण का गठन करके राजधानी को अपने भविष्य को व्यवस्थित करना सिखाने की कोशिश हुई, लेकिन न प्राधिकरण बचा और न ही शिमला का अस्तित्व खुद को संवार पाया। दरअसल पूरे हिमाचल को टीसीपी कानून के तहत लाकर हर शहर से हर गांव तक को अपने भविष्य के अनुरूप विकास योजनाओं के तहत चलना होगा। इसके तहत जीवन की बदलती शैली, पर्यावरणीय दबाव, भूमि पर बढ़ते निर्माण, रोजगार के नए विकल्पों की तलाश तथा जनभागीदारी में विकास के मॉडल विकसित करने होंगे। जब तक जनता की सहभागिता से विकास नहीं होगा, ऐसे फैसलों की दृष्टि दूरगामी नहीं होगी। आज भी लोगों के कारण तमाम ‘साडा’ क्षेत्र आधे-अधूरे संकल्प के नीचे मर रहे हैं। गरली-परागपुर यूं तो हिमाचल के पहले धरोहर गांव बने, लेकिन ‘साडा’ के तहत आने के बावजूद उपलब्धि नगण्य है। बीड़-बिलिंग धीरे-धीरे ओवर क्राउडिंग के शिकार हो रहे हैं। धार्मिक कस्बों की योजनाएं सियासत की चाटुकारिता में गुम हो गईं। कांगड़ा नगर परिषद अगर गृह कर के दर बढ़ाती है, तो साधन संपन्न समाज विरोध में जुट जाता है। कहने को शिमला का साथ निभाने चार नए नगर निगम खड़े हो गए, लेकिन क्या शामिल हुए नए क्षेत्रों को भागीदार बना पाए। ऐसे में निर्माण की आंधियों के बीच सांस लेने की जगह और वजह बचानी होगी। इस दिशा में फोरलेन के सौ मीटर दायरे में व्यवस्थित विकास का सोच अहम है, लेकिन इसे हर सडक़, हर गांव, हर पर्यटक व धार्मिक स्थल तक ले जाना होगा।
शहरों में या सरकारी इमारतों के तहत जिस तरह नवनिर्माण हो रहा है, उसे भी व्यवस्थित करने की जरूरत है। स्वास्थ्य, पुलिस विभाग के अलावा सरकार की सारी संपत्तियां अगर किसी सार्वजनिक एस्टेट प्राधिकरण के तहत कर दी जाएं, तो भवनों की क्षमता का सदुपयोग, रखरखाव तथा भूमि बैंक की स्थापना भविष्य को रेखांकित कर पाएगी। प्रदेश में अब तक के अव्यवस्थित निर्माण को देखते हुए कम से कम छह विकास प्राधिकरणों के तहत शहर से गांव तक का समन्वित विकास संभव है। उदाहरण के लिए धर्मशाला-गगल-कांगड़ा, नादौन-हमीरपुर-भोटा, मंडी-नेरचौक-सुंदरनगर, परवाणू-सोलन-शिमला, भुंतर-कुल्लू-मनाली, धर्मशाला-चामुंडा-पालमपुर जैसे विकास प्राधिकरण स्थापित किए जाएं, तो शहरी आबादी के साथ-साथ इसके दायरों के गांव भी टीसीपी की परिभाषा में उन्नत होंगे। अव्यवस्थित आवासीय तथा व्यापारिक निर्माण की दुरुस्ती के लिए कम से कम छह सेटेलाइट टाउन, निवेश व कर्मचारी नगर स्थापित करने होंगे, इसके साथ-साथ स्वरोजगार का ढांचा उपलब्ध कराने के लिए उद्योग परिसर, आधुनिक बाजार तथा पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत विभिन्न परियोजनाएं शुरू करनी चाहिएं।
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