Sri Lanka Crisis : श्रीलंका का संकट बताता है कि लोकतंत्र में अनुभवी नहीं ईमानदार नेतृत्व की जरूरत है

श्रीलंका का संकट

Update: 2022-05-11 08:02 GMT
बिपुल पांडे | 
श्रीलंका (Sri Lanka) अपने इतिहास में 10 मई, 2022 की तारीख को शायद ही कभी भूल पाएगा. ये वो तारीख है, जिस दिन पूरी दुनिया ने श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे (Mahinda Rajapaksa) को अपने घबराए हुए परिवार के साथ सेना के एक हेलिकॉप्टर में सवार होते देखा. अपने पीछे पूरे देश को अराजकता में छोड़कर भागते देखा. सेना के हेलिकॉप्टर पर सवार होकर महिंदा राजपक्षे को अपने पूरे परिवार के साथ जान बचाने के लिए भागना पड़ा और ट्रिंकोमली नेवल बेस पर शरण लेनी पड़ी. क्योंकि श्रीलंका में गुस्से की आग इस हद तक धधकने लगी है कि प्रदर्शनकारियों ने हंबनटोटा में राजपक्षे परिवार के पैतृक घर मेदामुलाना वालवा को तो फूंक ही दिया, कुरुनेगला में महिंदा राजपक्षे के घर में भी आग लगा दी.
श्रीलंका का ये संकट (Sri Lanka Crisis) पूरी दुनिया के लिए सबक है. खासतौर पर लोकतांत्रिक देशों के लिए, जहां सरकारों को कुर्सी का मोह कुछ भी करने के लिए तैयार कर देता है. जनता की नाराजगी ना झेलनी पड़े, इसलिए सरकारें पहले कड़े फैसले लेने से कतराती हैं. खुद की झोली भरती रहे और जनता भी खुश रहे, इसलिए जनता को मुफ्तखोरी का स्वाद चटाती हैं. अपनी तय गति से परिस्थितियां बिगड़ती रहती हैं. एक स्तर तक पहुंचकर, अर्थव्यवस्था जवाब दे जाती है. महंगाई का विस्फोट होता है, घरेलू सामान बाजार से गायब होने लगते हैं. घबराहट में सरकारें कर्ज के लिए हाथ-पैर मारना शुरू करती है.
आखिर घात लगाए बैठे चीन जैसे देश मदद के नाम पर आगे आते हैं. और फिर कर्जजाल में डूबकर एक देश की अर्थव्यवस्था टूट जाती है. इसके बाद श्रीलंका जैसा जन विद्रोह होता है. आक्रोश का विस्फोट होता है. ये संकट बताता है कि किसी भी देश को अनुभवी नहीं बल्कि ईमानदार सरकार की जरूरत होती है. अन्यथा दशकों तक राजनीति करने वाले और अनुभवी राजपक्षे परिवार को भी देश चलाने में असफल ना होना पड़ता. सब कुछ छोड़कर पीछे नहीं भागना पड़ता. देश को अनिश्चितता के गर्त में धकेलकर जान बचाने की जुगत नहीं करनी पड़ती.
भारत के नीचे मोती सा दिखने वाला देश अंधे कुएं में कैसे गिरा?
प्रोफेसर वी सिवालोगाथासन ने ताजा हालात को लेकर अपनी एनालिसिस में लिखा है कि सरकार का कमजोर प्रशासन, भ्रष्टाचार और आर्थिक अनियमितता, इन तीनों ने मिलकर पूरे श्रीलंका को ले डूबा. जिसका नतीजा है कि आज की जीवित पीढ़ी एक ऐसा जन विद्रोह देख रही है, जो उसने आज से पहले कभी नहीं देखा. द्वीप की पूरी 2.2 करोड़ की जनता संग्राम छेड़ चुकी है और अब श्रीलंका के आगे का भविष्य इसी स्वत: स्फूर्त विद्रोह पर टिका है. लेकिन प्रश्न ये है कि दुनिया के नक्शे पर भारत के नीचे मोती की तरह नजर आने वाले इस देश की जनता के पास मौजूदा संकट का हल क्या है? क्या ये जन विद्रोह देश को बचा पाएगा?
आर्थिक जानकार बता रहे हैं कि श्रीलंका के पास मई, 2022 तक 50 मिलियन डॉलर का फॉरेन रिजर्व बचा है, जिससे एक हफ्ते के लिए भी जरूरी वस्तुओं का आयात नहीं किया जा सकता. जबकि श्रीलंका की सरकार को 2022 में 4 बिलियन डॉलर का विदेशी कर्ज चुकाना है. कुछ समय के लिए मान भी लिया जाए कि श्रीलंका इस हालात में विदेशी कर्ज नहीं लौटा सकता है. पर जब बचा-खुचा फॉरेन रिजर्व भी खत्म हो जाएगा तो श्रीलंका क्या करेगा? देश के लोग दाना-पानी कहां से लाएंगे? क्या विपक्ष के पास कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए और जनता का पेट भरने के लिए एक और कर्ज लेने के सिवा कोई विकल्प बचा है?
दो दशक से हर सरकार और हर पार्टी ने अपने देश को धोखा क्यों दिया?
श्रीलंका में जन विस्फोट भले ही अब हुआ हो, लेकिन इसका आधार पिछले दो दशक से तैयार हो रहा था. आर्थिक जानकार बताते हैं कि 2000 और 2008 की मंदी में लगे झटके के बाद श्रीलंका सरकार को संभल जाना चाहिए था. लेकिन वैसा नहीं हुआ. 2011-14 के बीच इस द्वीप देश में लंबे समय के लिए तेल का घोर संकट पैदा हुआ. बावजूद इसके राजनीतिक पार्टियों ने भविष्य के लिए विचार-विमर्श नहीं किया. ये सिर्फ श्रीलंका के ही लिए सच नहीं है. अमेरिका जैसे देश को छोड़ दिया जाए तो ऐसा लगता है हर लोकतांत्रिक में दूरदर्शिता और भविष्य की योजना की कमी नजर आती है.
ऐसा ही श्रीलंका में भी चलता रहा. साल 2015 से श्रीलंका का आर्थिक संकट विकट होना शुरू हो गया था, जो तब की सरकार को भी भलीभांति पता था. तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने एक इकॉनमिक पॉलिसी भी बनाई थी. लेकिन भिन्न-भिन्न मत वाली पार्टियों की गठबंधन सरकार ने इस प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ने दिया. श्रीलंका की पॉलिसी कहती है कि शायद इसके बाद विक्रमसिंघे ने भी देश के हालात को सुधारने का इरादा छोड़ दिया और कुर्सी बचाने के लिए जनता को भटकाना शुरू कर दिया. सरकार ने संविधान में सुधार की कोशिश शुरू की, जनता से टैक्स कम वसूलने से लेकर मुफ्त बांटने की चुनावी नीतियां बनानी शुरू कर दी. यानी सरकार ने देश को विस्फोटक हालात में पहुंचाने की प्रक्रिया को पूरी गति दे दी. जिसका असर कुछ ही सालों में दिखने लगा.
अगर सरकारें अपने देश को एक परिवार की तरह चलातीं तो शायद आज श्रीलंका में भी कुछ अलग परिस्थितियां होतीं. श्रीलंका में भी ऐसा कुछ भी नहीं होता, जो सत्ता के लालच में होने लगा. पूर्वजों के नियम-संयम कहते हैं- तेते पांव पसारिए, जेते लंबी सौर. इस मुहावरे का अर्थ है कि जितनी चादर हो उतना ही पैर पसारना चाहिए. लेकिन श्रीलंका की सरकार ने एक तरफ तो अपनी चादर छोटी कर ली और दूसरी ओर पैर भी पूरे पसार लिए. सरकारी खजाना खाली होने लगा तो सरकार ने इसका शॉर्टकट चुना. साल 2021 में सरकारी बैंक ने IMF की तमाम चेतावनियों को दरकिनार करते हुए सरकारी खर्चे को कवर करने के लिए नोटों की रिकॉर्ड छपाई शुरू कर दी.
सरकार को पता था कि इसके परिणाम क्या होंगे. तो दूसरी ओर सरकार ने जनता को खुश करने के लिए टैक्स में कटौती कर दी. यहां तक कि श्रीलंका के पूर्व वित्त मंत्री मंगला समरवीरा ने भी इस फैसले का विरोध किया था. उनका तर्क था कि श्रीलंका सरकार के पास पहले से ही अधिकतर देशों के मुकाबले टैक्स रेवेन्यू कम है. जबकि कर्ज का भार बहुत ही ज्यादा है. उन्होंने श्रीलंका का भविष्य देखते हुए कहा था कि अगर इन प्रस्तावों को इस तरह लागू किया गया तो न केवल पूरा देश दिवालिया हो जाएगा, बल्कि पूरा देश एक और वेनेजुएला या दूसरा ग्रीस बन जाएगा. श्रीलंका का वो भविष्य अब दुनिया के सामने है. ये द्वीप देश धधक रहा है.
श्रीलंका की 2.2 करोड़ जनता सड़कों पर है, पूरे देश में कर्फ्यू है
सोमवार को श्रीलंका के प्रधानंमत्री महिंदा राजपक्षे के इस्तीफे के बाद से हिंसा की लपटें और भी तेज हो गईं. प्रदर्शनकारियों ने कोलंबो के टेंपल ट्रीज के पास पीएम आवास को घेर लिया, उपद्रव किया और आगजनी की. प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री आवास में भी घुसने की कोशिश की. जिससे पुलिस को आंसू गैस के गोले दागने पड़े. श्रीलंका में गुस्सा इस कदर फैला है कि प्रदर्शनकारियों ने पूर्व मंत्री जॉनसन फर्नांडो को कार समेत कोलंबो की बीरा झील में फेंक दिया.
हालात कुछ यूं हैं कि सरकार के पास आयात के लिए फंड नहीं है. लोगों के पास खाने के लिए खाना नहीं है. दूध, अनाज, ब्रेड, रसोई गैस, डीजल-पेट्रोल तक की किल्लत है. इसी वजह से शहर-शहर में कोहराम मचा है. लोगों का गुस्सा सातवें आसमान पर है. राष्ट्रपति कार्यालय ने बुधवार तक कर्फ्यू का ऐलान कर दिया है. श्रीलंका में आपातकाल पहले ही लगाया जा चुका है. राजधानी कोलंबो में हिंसा पर काबू करने के लिए सेना तैनात करनी पड़ी है और अब किसी को भी सड़क पर देखते ही गोली मार देने का आदेश जारी कर दिया गया है. इस अराजकता के बीच सवाल ये खड़ा हो रहा है कि श्रीलंका को बचाने का विकल्प क्या है. क्या ये देश अपने कर्ज जाल से उबर पाएगा?
श्रीलंका इस समय बुरी तरह से कर्ज जाल में उलझा है. उस पर 15 परसेंट चीन का कर्ज है, 47 परसेंट अंतर्राष्ट्रीय बाजार से कर्ज लिया है. श्रीलंका ने एशियन डेवलेपमेंट बैंक से 13 परसेंट, वर्ल्ड बैंक से 10 परसेंट, जापान से 10 परसेंट और भारत से 2 परसेंट कर्ज लिया है. इस कर्ज जाल ने द्वीप देश को ऐसा उलझा दिया है कि उसका कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा. यानी जनता के पास कहीं जाने का रास्ता नहीं बचा है और देश के हुक्मरान भाग रहे हैं. विडंबना ये भी है कि इस मतलबी दुनिया को ऐसे देशों के संकट से कोई लेना-देना नहीं है. रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिका अब तक अरबों डॉलर झोंक चुका है. हथियारों का गोदाम खाली कर चुका है. नाटो देशों की सदस्यता लेने के लिए यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की अपनी धरती को छलनी करवा चुके हैं.
तथाकथित असुरक्षा का हवाला देकर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अपने पड़ोस को मरघट में बदल चुके हैं. ये उसी नाटो संगठन की लड़ाई है, जिसका अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देश, श्रीलंका, नेपाल तक विस्तार चाहता है. इस वक्त श्रीलंका के लिए एकमात्र उम्मीद का किरण भारत ही है और श्रीलंका की अराजकता से खतरा भी भारत को ही है. क्योंकि कर्जजाल में उलझाकर, इस द्वीप देश के लिए चीन, एक और लोन पैकेज की चादर बिछाकर बैठा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

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