ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय
बीर का यह दोहा अनायास मन में गूंज रहा है। सचमुच, हमारी संस्कृति में पहले ही यह कहा गया है कि बोलने में संयम बहुत महत्वपूर्ण है
विजय त्रिवेदी,
कबीर का यह दोहा अनायास मन में गूंज रहा है। सचमुच, हमारी संस्कृति में पहले ही यह कहा गया है कि बोलने में संयम बहुत महत्वपूर्ण है। क्या बोल रहे हैं, कैसे बोल रहे हैं, किसको बोल रहे हैं। वक्त भी महत्वपूर्ण होता है, आपकी किसी से दोस्ती है, माहौल अच्छा है, तो आप कुछ गलत भी बोल जाते हैं, स्वीकार्य हो जाता है। पर जब परस्पर खाई बन रही हो, दूरी बन रही हो, नाराजगी बढ़ रही हो, तब छोटी-छोटी टिप्पणियां भी गंभीर हो जाती हैं। गलत बोला हुआ, गहरे घाव करने लगता है।
यह बात जाहिर है कि पिछले कुछ समय से तनाव व दूरियां बढ़ रही हैं। सामाजिक और सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा है। नतीजतन, लोग गलत बोलते चले जा रहे हैं और माहौल बिगड़ता जा रहा है। अब नाराजगी हिन्दुस्तान से बाहर तक पहुंच गई है। समाज में लगातार ऐसा हो रहा है और शासन-प्रशासन इसे नजरंदाज कर रहा है, तो लोगों की नाराजगी बढ़ रही है। प्रवक्ता ने पहली बार ऐसा नहीं बोला था, जब प्रवक्ताओं ने ऐसा बोलना शुरू किया, तभी उनको रोकना चाहिए था। यह गैर-वाजिब व्यवहार है, जो लगातार चल रहा है।
यह महत्वपूर्ण बात है कि सरसंघचालक ने चार दिन पहले ही इशारा किया था कि वह ज्ञानवापी मुद्दे को बढ़ाना नहीं चाहते, उस पर कोई आंदोलन नहीं करेंगे। लगभग यही बात 2019 में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था, तब प्रधानमंत्री ने भी कही थी। तब इतिहास को छोड़कर आगे बढ़ने की बात भी हुई थी। संघ ने भी कहा था कि मंदिर आंदोलन उसने चलाया जरूर था, लेकिन लोग अब इतिहास और गलतियों को भूल जाएं। इसके बाद भी लगातार तनाव बढ़ा है, जो पूरे देश को मथ रहा है। ज्ञानवापी ही नहीं, मथुरा, कुतुब मीनार, ताजमहल को लेकर भी अनेक बातें हो रही हैं। इन सबसे सामाजिक विभाजन बढ़ रहा है। मामला केवल बयानबाजी का नहीं है।
पिछले दिनों लाउडस्पीकर हटाने की बात तब हुई, जब रमजान का महीना चल रहा था। हालांकि, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जब लाउडस्पीकर हटाने के आदेश दिए, तब उन्होंने सबसे पहले अपने मठ से हटवाए। हम आमतौर पर यही कहते हैं कि नेतागण खुद वह नहीं करते, जिसकी नसीहत दूसरों को देते हैं। दुर्भाग्य से इसके बावजूद सामाजिक तनाव बढ़ा, क्योंकि रमजान के वक्त में लाउडस्पीकर हटाए गए।
कश्मीर में लक्षित हत्या हो या बाकी देश में किसी को निशाना बनाए जाए की घटना, दोनों के प्रभाव-दुष्प्रभाव होते हैं। आखिर नूपुर शर्मा या नवीन कुमार जिंदल तक बात क्यों आई? प्रवक्ताओं की हिम्मत क्यों बढ़ी, यह भी देखना पड़ेगा। हिम्मत इसलिए भी बढ़ी, क्योंकि गांधी, गोडसे, धर्म को लेकर कुछ नेता अलग तरह की बयानबाजी करते रहे हैं। ऐसे पचास नाम हैं, जो हर दिन नफरत भरे भाषण देते रहते हैं। पार्टी कोई हो, बड़े लोग अगर नफरत भरे भाषण देंगे और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी, तो प्रवक्ताओं तक क्या संदेश पहुंचता है? यहां गलतबयानी का विरोध न करना भी एक तरह से उसका समर्थन करना ही है। बहुत सारे लोगों को यह लगने लगा है कि वे नफरत भरे भाषण देकर पार्टी में अपनी ताकत और लोगों में अपनी लोकप्रियता बढ़ा सकते हैं। नूपुर शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्ष रही हैं, तो पढ़ी-लिखी हैं, लेकिन वास्तव में ऐसे लोग पार्टी में जल्दी से जल्दी जगह बनाने की होड़ में लगे हैं। कुछ विवादित बोलकर जल्दी से जल्दी ताकत अर्जित करने में कई लोग लगे हैं। सांसद नवनीत राणा भी यही कर रही हैं। आखिर किसी मुख्यमंत्री के घर के बाहर हनुमान चालीसा पढ़ने की कैसी जिद थी? यह तेजी से सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की होड़ है। कई धर्म संरक्षक संगठन बनने लगे हैं। सबको अपने हिसाब से जल्दी से जल्दी अपनी जगह बनानी है। मजहबी मामलों में बड़े राजनेताओं को आखिर क्यों बोलना चाहिए? यह कहां तक उचित है कि अजान के जवाब में हनुमान चालीसा का इस्तेमाल किया जाए?
जहर से जहर काटने की कहावत है, लेकिन यहां तो इस कोशिश में जहर बढ़ता जा रहा है। सामाजिक तनाव को खत्म करने की जिम्मेदारी सबकी है, लेकिन शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी सबसे अधिक होती है। जब आप नफरत फैलाने की कोशिश को नहीं रोकते हैं, तब उससे दूसरों को भी बढ़ावा मिलता है। ओवैसी और उनके भाई को भी बढ़ावा मिलता है। कई टीवी चैनल तो आग में घी डालने के काम में काफी आगे बढ़ गए हैं। इन चैनलों ने मिलकर सैकड़ों ओवैसी और सैकड़ों नूपुर शर्मा खड़े कर दिए हैं।
यह सही है कि भारत में किसी बड़ी पार्टी का कोई बड़ा नेता असंवेदनशील बातें नहीं कह रहा, पर बड़े नेताओं के सामने अपने अंक बढ़ाने के लिए कथित नेता-प्रवक्ता बहुत कुछ गलत करते चले जा रहे हैं। ध्यान रहे, बंटवारे के समय भी ऐसा माहौल नहीं था। साल 1992 में भी ऐसा माहौल नहीं बना था। ऐसे माहौल का कुल नतीजा यह है कि हम दंगों तक पहुंच जाते हैं। कानपुर में यही तो हुआ।
अब इसमें कोई दोराय नहीं कि विपक्षी पार्टियां बहुत कमजोर हो गई हैं, उनकी आवाज ही नहीं है। उनको खड़ा होना चाहिए, लेकिन वे नहीं होती हैं। जब ये पार्टी प्रवक्ता बुरा बोल रहे थे, तब ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन जब कतर, ओमान, मालदीव, ईरान, इंडोनिशया जैसे देशों से प्रतिक्रिया आई, तब सरकार और पार्टी हरकत में आई। विदेश मंत्रालय की भूमिका भी बहुत अच्छी नहीं रही। उसने चीजों को देर से समझा है। उप-राष्ट्रपति की कतर यात्रा के दौरान वहां राजदूत को बुलाया जाए, यह बड़ी गंभीर घटना है।
बढ़ती सांप्रदायिकता को चुपचाप नहीं देखना चाहिए। सरकारों को हरकत में आना चाहिए और लोगों को लगना चाहिए कि शासन-प्रशासन निष्पक्षता के साथ सही काम कर रहे हैं। जो लोग टीवी या अन्य मंचों से नफरत फैला रहे हैं, क्या उनके खिलाफ कार्रवाई हो रही है? कोई कुछ भी बोल जाएगा और हम कुछ भी नहीं करेंगे? जब विदेश में नाराजगी होगी, तभी कार्रवाई करेंगे? कहा जाता है कि तलवार से पैदा घाव भर जाते हैं, लेकिन जुबान से पैदा घाव नहीं भरते हैं। जुबान को संभालकर ही इस्तेमाल करना चाहिए।
सोर्स- Hindustan Opinion Column