by Lagatar News
DR. Santosh Manav
झारखंड में स्थानीय कौन है ? कौन होगा ? 1932 के खतिहानधारी ही स्थानीय होंगे या और कुछ होगा ? यह सब दूर की बात है, जो तय बात है, वह यह है कि हेमंत सोरेन ने 2024 या उसके पहले के तमाम चुनाव का एजेंडा सेट कर दिया है. अब इसी कथा -कहानी {नरेटिव} के इर्द-गिर्द झारखंड की राजनीति घूमेगी. एक और महत्वपूर्ण बात यह साबित हुई कि हेमंत झारखंड के हितरक्षक हों या नहीं हों, सत्ता की राजनीति के बेजोड़ खिलाड़ी हैं. उनसे सत्ता छीनना आसान नहीं होगा. और तीसरी बात यह कि हेमंत सोरेन के इस मूव से कांग्रेस का बेड़ा गर्क हो गया है. वह न घर की रही न घाट की.
सब मुद्दे पीछे छूट गए
अब दशकों तक 'खतिहान का जिन्न' झारखंड का पीछा नहीं छोड़ेगा. सत्ता हो या विरोधी पक्ष सभी के तीर इसी पर छुटेंगे. विकास, रोजगार, नक्सल, भुखमरी, अपराध जैसे तमाम मुद्दे पीछे छूट गए. अब तो आप खतिहान समर्थक हैं या विरोधी. हेमंत को अब जवाब देना नहीं है, लेना है. बीजेपी के तमाम आरोप, खदान, जमीन लूट, ढाई सौ करोड़ की संपति जमा करने के आरोप धरे रह जाएंगे. इतना ही नहीं भाई बसंत और पत्नी कल्पना सोरेन को भी बरी मानिए. हेमंत कल तक बचाव की मुद्रा में थे. अब प्रहार की मुद्रा में होंगे. क्रिकेट की भाषा में कहें तो कहना पड़ेगा कि कल तक सुनील गावस्कर थे, अब धोनी जैसा खेलेंगे. यह भी मान लीजिए कि आधार वोट में भी कुछ न कुछ इजाफा कर लिया. घाटा यह हो सकता है कि हेमंत में समग्र झारखंड का नेता बनने की संभावना थी, वह समाप्त नहीं तो घट जरूर गई.
बीजेपी बेचारी हो गई
हेमंत ने बीजेपी जैसी शक्तिमान पार्टी को बेचारा बना दिया. न निगलते बने न उगलते. यही कारण है कि घोषणा के 24 घंटे बीत जाने के बाद भी बीजेपी की ओर से आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई थी. ले-देकर रघुवर दास बोले, वह भी 'माने की- माने की' वाली प्रतिक्रिया थी. आधिकारिक प्रतिक्रिया 30 घंटे बाद आई. और अपने बाबूलाल क्या बोलेंगे? 2002 में आग तो उन्हीं ने लगाई थी. बीजेपी से राज्यसभा गए, महाराष्ट्र के मूल निवासी एक नेता ने कभी इन पंक्तियों के लेखक से कहा था : सरयू राय को निपटाने के चक्कर में बाबूलाल ने जो खेल खेला है, झारखंड को दशकों तक भुगतना पड़ेगा. काश ! वाजपेयीजी की बात मानकर आडवाणीजी कड़ियाजी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए राजी हो गए होते, तो आज झारखंड आगे बढ़ गया होता. खैर, अब तो सीबीआई हो या ईडी हेमंत का बहुत बिगड़ने वाला नहीं है. महाबली पार्टी को सांप सूंघ गया है. सारे संसाधन किसी काम के नहीं रहे.
कांग्रेस यानी तेरा क्या होगा कालिया
सबसे बड़ा घाटा कांग्रेस का हो गया. कल तक हेमंत को सत्ता के लिए कांग्रेस की जरूरत थी, अब चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस को हेमंत की जरूरत होगी. विश्वास नहीं है, तो बन्ना गुप्ता या पूर्णिमा सिंह से अकेले में पूछ कर देखिए. वैसे भी 22 साल में कांग्रेस कभी सत्ता के नजदीक नहीं पहुंची. अब तो झारखंड की सत्ता कांग्रेस को भूल जाना चाहिए. झारखंड की राजनीति के दो ही कोण होंगे- जे एम एम और बीजेपी. कुल मिलाकर हेमंत को भी पता है कि 32 के खतिहान पर स्थानीय नीति नहीं बननी है. मामला 2002 की तरह कोर्ट में फंसेगा और नवमी अनुसूची में यह जाना नहीं है. पर राजनीति [राज करने वाली नीति] में हेमंत ने फिलहाल बाजी मार ली और हाथ मलते रह गए हैं अपने बाबूलाल !
क्या है नवमी अनुसूची
संविधान का जब निर्माण हुआ, उस समय संविधान में कुल 22 भाग और 8 अनुसूचियां थीं. उसके बाद संविधान में संवैधानिक संशोधनों के द्वारा अनुसूचियों की संख्या 8 से बढ़कर 12 हो गई है. सबसे पहले संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा 1951 में 9वीं अनुसूची को भारत के संविधान में लाया गया था. 9वीं अनुसूची में केंद्र और राज्य कानूनों की एक ऐसी सूची है, जिन्हें न्यायालय के समक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती. वर्तमान में संविधान की 9वीं अनुसूची में कुल 284 कानून शामिल हैं, जिन्हें न्यायिक समीक्षा संरक्षण प्राप्त है अर्थात इन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है.
नवमी अनुसूची में भी पेंच है
2007 में उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में व्यवस्था दी थी कि संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल कानूनों की भी न्यायिक समीक्षा हो सकती है. नौ न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला दिया था कि संविधान के भाग तीन में प्रदत्त मौलिक अधिकार संविधान के मूल ढांचे का अहम हिस्सा हैं . इनका किसी भी तरीके से उल्लंघन किए जाने पर न्यायालय इसकी समीक्षा कर सकता है. फैसले में कहा गया था कि 24 अप्रैल 1973 के बाद संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किए गए किसी भी कानून की न्यायिक समीक्षा हो सकती है. संविधान पीठ में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई के सभरवाल, न्यायमूर्ति अशोक भान, न्यायमूर्ति अरिजित पसायत, न्यायमूर्ति बी. पी. सिंह, न्यायमूर्ति एस. एच कपाडिया, न्यायमूर्ति सी. के ठक्कर, न्यायमूर्ति पी. के बालासुब्रमण्यम, न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर तथा न्यायमूर्ति डी. के जैन शामिल थे. फैसले में कहा गया था कि संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की व्याख्या न्यायपालिका को करनी है और उनकी वैधानिकता की जांच संसद के बजाय न्यायालय ही करेगा.