सियासत के स्मार्ट मुर्दे

Update: 2023-06-04 18:48 GMT
 
सिटी स्मार्ट हो रही थी, लोग उससे भी ज्यादा यह सोच-सोच कर स्मार्ट होने लगे थे कि वे भारत की तस्वीर बदल देंगे, समाज-संस्कृति बदल देंगे और जहां तक नजर जाती है, विकास का अर्थ बदल देंगे। देश में इतना विकास संभव भी है कि हम थोड़ा-बहुत अतिक्रमण करके सरकारी सडक़ के ठीक छोर पर ऊंची से ऊंची इमारत खड़ी कर दें। आजादी के बाद इस शहर ने जबसे अपने विकास को स्मार्ट कहना शुरू किया है, इसकी आंखों में सबसे पुराना श्मशानघाट अटक गया है। यह पुराना, लेकिन सबसे प्रमुख श्मशानघाट था, इसलिए सोचा गया कि क्यों न इसे भी स्मार्ट बनाया जाए।
वैसे इसी श्मशानघाट की मरम्मत और सौंदर्यीकरण के नाम पर कई छोटे ठेकेदार पहले से ही बड़े बन गए थे, फिर भी अब इसे बड़े वाला स्मार्ट बनाना था ताकि पूरे राज्य को पता चल जाए कि विधायक ने अपने विधानसभा क्षेत्र के लिए क्या कुछ नहीं किया है। प्रशासन हमेशा से मतदाताओं की मांग और आपूर्ति का हिसाब लगा कर ही काम करता आया था, इसलिए गौर करने लगा कि हर दिन कितने मुर्दों के हिसाब से ऐसा डिजाइन बनाए जो दूर से ही स्मार्ट लगे। कम से कम विधायक को तो श्मशानघाट बनाकर संतुष्टि मिले। श्मशानघाट की योजना का जिक्र हुआ, तो स्मार्ट सिटी परियोजना ने इसके लिए दिल खोल कर पैसा दिया। आखिर श्मशानघाट बनते-बनते इतना बड़ा बन गया कि भविष्य में कहीं मुर्दों की कमी न हो जाए, यह चिंता भी होने लगी। वहां बाकायदा कोशिश की गई कि एक कोना वीआईपी बनाकर आरक्षित रखा जाए, ताकि जो लोग वीआईपी बनकर जीते रहे, उनकी वापसी उसी तरह करवा दी जाए। लोगबाग दूर से देखकर तसल्ली कर लेते कि उनका शहर कितना विकास कर रहा है, जहां मुर्दा बनकर भी जलने को स्मार्ट श्मशानघाट मिलेगा। खैर सब कुछ सही हो गया और ठेकेदार को बढ़ी हुई पेमेंट भी मिल गई, लेकिन अब इसके उद्घाटन का इंतजार था, सो सत्ता पक्ष चाहता था कि प्रदेश के मुख्यमंत्री ही इसका उद्घाटन करें। विपक्ष इसके लिए राजी नहीं था, क्योंकि उसी की पिछली सरकार में इसकी योजना बनी और बजट से डिजाइन तक उसे याद दिला रहा था कि कहीं तो काम हुआ है। जनता चाहती थी कि किसी मुर्दे से ही श्मशानघाट का उद्घाटन करवा दिया जाए ताकि शव दहन हो सके। वैसे भी लोगों के मरने की न तो कमी थी और न ही मरने की वजह कम थी। आखिर मामला प्रोटोकाल तक पहुंच गया।
सत्ता के हिसाब से श्मशानघाट के उद्घाटन का हक उसे मिल जाता है, क्योंकि सारी संस्थाएं व लोकतंत्र का हिसाब किताब उसी के अधिकार क्षेत्र में आता है। विपक्ष की नाराजगी डिजाइन में किए गए बदलाव पर भी थी, लेकिन सत्ता पक्ष विश्वस्त था कि अगर वह जीने वालों को अपने डिजाइन पर नचा सकता है, तो मरने वालों को तो कहीं भी ले जा सकता है। सत्ता के पक्ष में मीडिया भी उतर आया। मीडिया लोगों को समझा रहा था कि विपक्ष की वजह से उन्हें स्मार्ट श्मशानघाट नहीं मिल रहा था, बल्कि अब सरकार की वजह से मरने वाले का मान बढ़ेगा। ‘यह सरकार अगर घाटे के बस रूट चलाकर सवारियां बढ़ा सकती है, तो कल इसी श्मशानघाट के लिए मुर्दे भी बढ़ा देगी।’ मीडिया को आशा थी कि बस पास की तरह श्मशान पास भी मौजूदा सरकार पत्रकारों को जरूर देगी ताकि कल कोई यह न कहे कि मीडिया वाला बिना मान्यता के ही मर गया। इधर श्मशानघाट का उद्घाटन नहीं हो रहा था और उधर मुर्दों को भी भटकना पड़ रहा था। आखिर फैसला हुआ कि छह महीने श्मशानघाट पर विपक्ष की तख्ती लगेगी और छह महीने सत्ता पक्ष की, लेकिन इससे अब आम जनता के मुर्दे यहां नहीं आ रहे। यह श्मशानघाट अब राजनीतिक मुर्दे ही जला रहा है। जब सत्ता की तख्ती लगती है, उसी से संबद्ध पार्टी के मुर्दे आते हैं और छह महीने की बारी में विपक्ष के ही मुर्दे जलते हैं। स्मार्ट सिटी में इस तरह राजनीति ने मुर्दे भी स्मार्ट कर दिए, लेकिन स्मार्ट श्मशानघाट में जल वही रहे जो पार्टियों के समर्थक हैं।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal

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