बावजूद इसके राजनीति अपनी सीमारेखा में सुशासन की घुसपैठ मंजूर नहीं करती और अकसर फैसले कुंद कर दिए जाते हैं। हाल ही में पालमपुर की जनता ने बाजार को वाहन रहित घोषित कराने की मुहिम पर अपनी मुहर लगाने का फिर से प्रयत्न किया, जो प्रशासनिक आधार पर कमोबेश हर शहर की जरूरत हो सकती है, लेकिन राजनीति इसे सीधे-सीधे कबूल नहीं करती। इसी तरह सचिवालय की हर फाइल सुशासन की फाइल नहीं होती, बल्कि हर फाइल पर राजनीति की धूल सवार रहती है। सरकार अपने लिए प्रशासन के चेहरे पसंद करती है और इसी के हिसाब से राजनीति और प्रशासन में अंतर स्पष्ट हो रहा है, लेकिन हम यह कदापि नहीं कह सकते कि राजनेता इतने सक्षम हैं कि नौकरशाही का आकलन कर सकें या सुशासन का डिलीवरी सिस्टम अपने मुताबिक कर पाएंगे। यह राजनीतिक अस्तित्व का संघर्ष हो सकता है और इसीलिए हर सरकार अपने पैमानों में नौकरशाही को भरती या फेंटती है। इसी दृष्टि से यहां मुकाबला अनिल खाची बनाम राम सुभग सिंह हो गया और सरकार का स्पष्ट विश्वास भी सामने आ गया। दुर्भाग्यवश पिछले कई सालों से हिमाचल का अपने सुशासन संबंधी विचार सामने नहीं आ रहे हैं। एक समय था जब वाईएस परमार, वीरभद्र सिंह या शांता कुमार जैसे मुख्यमंत्रियों की कलम अपने हस्ताक्षरों से सुशासन के निर्देश देती थी और नौकरशाही को नानुकर के बजाय पारदर्शिता से जवाबदेही देनी पड़ती थी। यह वह दौर था जब जनता के सामने सिर्फ लोकप्रिय होने के बजाय प्रदेश को आगे बढ़ाने के जोखिम भरे कार्य होते थे।
नीतियां व नियम ही नहीं, बजटीय गुणवत्ता में वित्तीय अनुशासन की ईमानदार कोशिशें होती थीं। अब नौकरशाही केवल नौकर है और सियासत का हुक्म बजाने की एक नई परिपाटी। इसलिए स्थानांतरणों की फाइलों में मंत्री खुद को बुलंद होने का सबूत मानते हैं। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ओंकार शर्मा का एक विभाग का सचिव होना अगर मंत्री को पसंद नहीं या एक फैसला सुशासन को भी कबूल नहीं, तो राज्य के हर गिरगिट को रंग बदलना पड़ता है। एक राज्य में नौकरशाही का सशक्त पहलू उसकी तासीर नहीं, उसकी कार्यशैली हो सकती है, जो सत्ता के लक्ष्यों व लय का समावेश है। विडंबना यह है कि अब हिमाचल की सरकारें लोकप्रिय होने के लिए नौकरशाही व अफसरशाही को जनता के सामने अपने मंतव्यों के लिए पेश करती हैं। इसीलिए नौकरशाही भी चार दिन की चांदनी लूटने का प्रयास कर रही है। सत्ता के सारे आयाम या नौकरशाही के हमाम अगर खनकते हैं, तो विपक्ष बेशक अपनी भूमिका देख सकता है, लेकिन यह दौर केवल आज शुरू हुआ, ऐसा भी नहीं है। विडंबना यह है कि नौकरशाही में 'धरती पुत्र' का प्रश्न खड़ा करके कांग्रेस ने इस बदलाव की आंखों में संकीर्णता का सुरमा जरूर डाल दिया। मानसून सत्र के दौरान इस फेरबदल पर एतराज हो सकता है, लेकिन नए मुख्य सचिव को गैर हिमाचली करार देना सही नहीं। हिमाचल से कई अधिकारी अतीत में विभिन्न राज्यों के डीजीपी, मुख्य सचिव या अन्य अहम पदों पर रहे हैं या आज भी वरिष्ठता के आधार पर राज्य के कई लोग बाहर छाए हैं, तो क्या उन्हें भी इस तर्क पर अग्रिम भूमिका नहीं निभानी चाहिए, विपक्ष को बताना होगा।