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देश के राजनेताओं में कीचड़ उछालो का गंदा खेल जारी है

Update: 2022-05-19 19:12 GMT

देश के राजनेताओं में कीचड़ उछालो का गंदा खेल जारी है और राजनीति मूल्यहीन हो गई है। एक कहता है तू माल खा गया, दूसरा कहता है कि तू मुझसे ज्यादा खा गया। बस लड़ाई खाने की चल रही है। सारे देश को खा जायें तो भी इनका पेट नहीं भरे। चरित्रहीनता, ढ़कोसला और हाथी के दांतों जैसा हाल हो गया है राजनेताओं का। इसकी जांच कराओ, उसकी मत कराओ, ये इनके रोज के खेल में सम्मिलित हैं। निर्दोष, बली के बकरे बन रहे हैं और दोषी गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। कोई कहता है मुख्यमंत्री बनाओ, कोई कहता है मंत्री बनाओ और कोई तीसरा कहता है मेरा मंत्रालय बदलो। असंतुष्ट कहते हैं हमें भी ठिकाने लगाओ वरना हम सरकार गिरा देंगे। कोई कहता है हम बाहर से समर्थन देंगे, लेकिन सरकार नहीं चलने देंगे। लफड़ा एक नहीं अनेकानेक हैं, जो देश की छवि को मटियामेट कर रहे हैं। प्रधानमंत्री को एक ही चिंता खाए जा रही है कि कहीं उनकी कुर्सी न चली जाए, इसलिए वे चुपचाप बंसी बजा रहे हैं। उन्हें हंसने के अलावा कुछ नहीं आता। विपक्षी इस बात पर तमतमाए हुए हैं कि वे सत्ता में क्यों नहीं हैं। कोई दंगा करा रहा है तो कोई मंदिर बनाने की रट पर ठहर गया है। कोई अयोध्या की ओर कूच कर गया है तो कोई भोपाल और जयपुर में बैठकर मंत्रिमंडल विस्तार का झांसा दे रहा है। इस पर तुर्रा यह कि यह तो हमारी राजनीति है, इसमें सब जायज है। वे बिहार में क्या जीते कि बिहार को नया बनाने का दिलकश नारा उछाल रहे हैं। उनसे पूछे कि आपके होते हुए बिहार नया कैसे बनेगा। बिहार के भाग्य में तो बस बिहार बना होना लिखा है। दलितोत्थान की बातें बढ़-चढ़ कर की जा रही हैं और दलितों को दो वक्त खाने को रोटी नसीब नहीं है।

किसी को महंगा होते सोने की चिंता है और वह भर लेना चाहता है अपनी तिजोरी। किसी को अनाज और सब्जी के बढ़ते दामों की फिक्र नहीं है। गरीब की सब्जी प्याज भी अंधाधुंध तेजी पर है, लेकिन प्याज की परवाह किसे है। वे खा रहे हैं पीजा और बर्गर। कारों में घूम रहे हैं और पेट्रोल के दाम महंगे कराने पर तुले हैं। घर के हर मेंबर के पास हैं महंगे से महंगे सैलफोन। विदेशों से चोरी-चोरी महंगी कारें मंगवा रहे हैं तथा सरकार के राजस्व को चूना लगा रहे हैं। एक औरत पर्याप्त नहीं है, इसको छोड़ो, उसको लाओ। औरत जैसे बदलने वाला वस्त्र हो गई है। रहा-सहा चौपट कर दिया सिनेमा और आज के भगवान बनते फिल्मी कलाकारों ने। कलाकार नाम है, लेकिन उनकी कला के दाम पूछोगे तो पता चलेगा कि वे कलाकार नहीं, कला के सौदागर हैं तथा कथित कला को देखें तो सिर शर्म से झुक जाता है। हर भारतीय परिवार फिल्मी जीवन शैली अपनाने को बेताब है। खाने को दाना नहीं, लेकिन स्टाइल के क्या कहने। हीरोज आदमी के आदर्श बन गए हैं। हर आदमी करोड़पति बनने का सपना संजोए रातों-रात अपना अतीतकाल भुला देना चाहता है। क्रिकेटरों का हाल भी इनसे कम नहीं है। खेल पर ध्यान कम है और विज्ञापनों से होने वाली आय पर ज्यादा। हर आदमी पैसा बनाकर अपना धन राजनीति में इन्वेस्ट करने को आतुर है। व्यावसायिकता ही अंधी होड़, जिसका दौर थमने वाला किसी तरफ से दिखाई नहीं दे रहा और बेहाई का नंगा नाच चल रहा है।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक


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