जाहिर है हिमाचल की खनन नीति या तो माफिया चलाता रहा या इसके नाम पर पर्यावरण संरक्षण की कीलें चुभती रहीं। यह एक बड़ा प्रश्न है और हिमाचल की तरक्की को वृत्ताकार के बाहर लाकर सीधे चलने का रास्ता अख्तियार करने जैसा है। पर्यावरण के नाम पर कलगी धारण करने की हजारों वजह हों, लेकिन नागरिक सहूलियतों की चादर फटनी नहीं चाहिए। सवाल हिमाचल के विकास मॉडल से पूछे जाएंगे कि क्यों कहीं तो वन संरक्षण कानून की पपड़ी हट जाती है और क्यों उन्हीं मानदंडों की हिफाजत कोई क्षेत्र विशेष या परियोजना विशेष हार जाती है। आखिर खनन और बरसात का रिश्ता भी तो समझा जाए। पहाड़ी खड्डों की प्रवृत्ति में उफनती रेत-बजरी को हासिल करने की वैज्ञानिक परिपाटी क्यों नहीं बनी। क्यों पहाड़ खोद कर रेत किए जाएं या क्यों नहीं खड्डों व नदी-नालों की गहराई सुनिश्चित करके इनसे बाढ़ से मुक्ति और पूरी प्रक्रिया के तहत रेत-बजरी हासिल की जाए। बेशक क्रशर तथा जेसीबी जैसी मशीनें एक संदर्भ में कातिल ठहराई जा सकती हैं, लेकिन इनके सामने जीने के विकल्प भी तो तैयार करने पड़ेंगे।
धवाला और बिंदल के सवाल अपने भीतर जीने की जिरह अपने लिए भी देख रहे हैं। दोनों का अतीत, पृष्ठभूमि और प्रदर्शन की बुनियाद पर भाजपा की सत्ताओं की दृष्टि को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। धवाला का अतीत, धूमल सरकार का शिल्पकार रहा है, तो बिंदल की पृष्ठभूमि में एक ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व है जो तत्कालीन भाजपा सरकार की निर्णायक मशीनरी रहा। यह भी एक असमंजस है कि ये दोनों नेता खुद को जब असहाय पाते हैं, तो इनके राजनीतिक समीकरण बोलते हैं। सोलन से नाहन पहुंचे बिंदल से जनापेक्षाओं का एक महासागर केवल सिरमौर की राजनीति को नहीं छू रहा, बल्कि इस चरित्र की बेडि़यां वर्तमान सरकार से भी पूछ रही हैं। धवाला अपनी छवि के उन्मुक्त राही रहे हैं और यह सर्वविदित है। उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे भले ही ठेठ देहाती, लेकिन उनके कथन का देशीपन जनता के दिल के करीब रहता है। बहरहाल प्रश्न पूछते इन दो नेताओं ने अपनी सरकार की काबिलीयत को परीक्षा में तो बैठा ही दिया। धवाला द्वारा यह कहा जाना कि प्रदेश में अफसरशाही हावी हो रही है, यह एक सच्ची जुबान का कड़वापन हो सकता है या जनता के एहसास का नजदीकीपन। यह प्रश्न कतई गौण नहीं हो सकता, बल्कि ऐसे मसलों की पड़ताल गैर राजनीतिक संवेदना को भी प्रबल कर सकती है। विधानसभा में कोविड काल के प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है और इसलिए ढहते रोजगार, राज्य के बढ़ते उधार और लगातार घाटे के उद्गार को जो सदन में उठाएगा, वह सत्ता का विरोधी नहीं, बल्कि जनता का समर्थक माना जाएगा।