एडवोकेट्स चाहे किसी भी श्रेणी के क्यों न हों, सरकारी या प्राइवेट, वरिष्ठ या कनिष्ठ या फिर किसी भी जाति, पंथ व लिंग के, इन सबका एक ही संवैधानिक कार्य होता है, अपने ग्राहकों (क्लाइंट्स) को हर प्रकार की कानूनी राय व सहायता प्रदान करना। अपने प्रतिनिधियों व ग्राहकों तक तटस्थ व तृतीय पक्ष के रूप में हर प्रकार की कानूनी जानकारी देना उनकी जिम्मेदारी रहती है। यह लोगों में आराम की भावना व सामाजिक शांति को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके अतिरिक्त वे अपने ग्राहकों को उनकी स्वतंत्रता व कानूनी प्रक्रिया के बारे में शिक्षित भी करते रहते हैं। जनहित में वकील समाज की बेहतरी के लिए नागरिक अभियानों की वकालत भी करते रहते हैं ताकि कानूनी सहायता की आवश्यकता वाले लोगों को समर्थन दिया जा सके। जो व्यक्ति इनका खर्चा नहीं उठा सकते, उन लोगो की नि:शुल्क सेवा भी करते हैं। भारतीय न्यायिक प्रक्रिया दुनिया की सबसे पुरानी प्रणालियों में से एक है, मगर कई कारणों की वजह से चाहे जजों की कमी हो, चाहे काम के प्रति उदासीनता या फिर पारदर्शिता की कमी हो, इन सबके फलस्वरुप आज लगभग 5 करोड़ मामले विभिन्न न्यायालयों में लम्बित हैं। आज न्याय देश के बहुसंख्यक नागरिकों से बाहर होता जा रहा है, क्योंकि अधिकतर लोग न्याय प्रणाली की पेचीदगियों व वकीलों के भारी खर्च के कारण वांछित न्याय नहीं पा पाते। भारत में इस समय लगभग 13 लाख वकील हैं तथा प्रतिवर्ष लगभग 70000 नए वकील विभिन्न बार काउंसिलों के सदस्य बनते हैं।
अन्य व्यवसायों की तरह वकीलों को भी एक आचार संहिता के अंतर्गत ही अपना कार्य करना पड़ता है। भारतीय एडवोकेट्स एक्ट 1961 के अंतर्गत सभी एडवोकेट्स को अपना आचरण बनाए रखना होता है तथा गैर अनुशासनहीनता के लिए इन्हें अपनी सदस्यता भी गंवानी पड़ सकती है। इन सभी नियंत्रणों के बावजूद यह लोग भी दूध के धुले नहीं हो सकते तथा न्यायिक प्रणाली को कहीं न कहीं दूषित करते ही रहते हैं। सरकारी वकील जो विभिन्न आपराधिक व दीवानी मामलों में अभियोजन पक्ष का काम करते हैं, का स्तर भी दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। केवल कोई परीक्षा पास करना व किसी सरकारी नौकरी पर तैनात हो जाना, उन्हें किसी प्रकार का लाइसैंस प्रदान नहीं करता कि वे किसी कोर्ट-कचहरी में केवल प्रतिनिधि का ही काम करते हुए मूकदर्शक बने रहें। कई बार देखा गया है कि वो फाइल पढक़र भी नहीं जाते हैं तथा इन्हें न्यायालयों की फटकार भी सहन करनी पड़ती है। यह भी देखा गया है कि न्यायालयों में विभिन्न आपराधिक मामलों में अप्रत्यक्ष रूप से अपराधियों की इस कदर सहायता करते हैं कि वे या तो मूकदर्शक बनकर कोई जिरह नहीं करते या फिर उल्टे पुलिस अन्वेषण अधिकारियों से ही बिना वजह के सवाल पूछने शुरू कर देते हैं तथा केस फेल हो जाने पर सारा दोष पुलिस अधिकारियों पर ही मढ़ देते हैं। ऐसा करना उनकी मर्यादा व आचार संहिता पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह पैदा कर देता है। ऐसा ही कुछ किस्सा हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में कार्यरत अधिवक्ताओं का भी है जिन्हें मासिक वेतन के अतिरिक्त हर पेशी के लिए एक निश्चित मानदेय भी मिलता है। इनमें से भी कुछ साहिबान केसों का पूर्ण अध्ययन नहीं करते तथा केस में दूसरी तारीख डालने के लिए प्रार्थना करते देखे जा सकते हैं।
यह सिलसिला लगातार चलता रहता है तथा पीडि़तों को न्याय के लिए लम्बा इन्तजार करना पड़ता है। सरकार ने उच्च न्यायालय के बोझ को कम करने के लिए प्रशासनिक ट्रिब्यूनलों का गठन किया है, मगर शायद ही कोई ऐसा केस होगा जिसमें ट्रिब्यूनल के फैसले की अपील उच्च न्यायालय में न होती हो। इन ट्रिब्यूनलों में सेवानिवृत्त जजों या प्रशासनिक अधिकारों की नियुक्ति की होती है और न जाने सरकार को उनके वेतन-भत्ते उठाने के लिए कितने करोड़ों रुपयों का भुगतान करना पड़ता है। सरकार ने शायद इस संबंध में कभी भी नहीं सोचा होगा कि पीडि़तों को वकीलों का बिना वजह का इतना बड़ा खर्चा उठाने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है। आपराधिक मामलों के अतिरिक्त न जाने कितने मुकद्दमे दीवानी प्रकृति के होते हैं और इनमें से बहुत से मुकद्दमे राजस्व न्यायालयों जैसा कि तहसीलदार, कोलैक्टर व कमिश्नर इत्यादि के कार्यालयों से संबंधित होते हैं, मगर इन न्यायालयों से संबंधित अधिकतर मुकदमे न्यायिक कोर्टों (ज्यूडिशल कोर्ट) से जुड़े होते हैं। उदाहरण के तौर पर किसी जमीन-जायदाद के बंटवारे इत्यादि से संबंधित मुकदमों में वादी सीधे ज्यूडिशियल कोर्ट में जाकर कार्यकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध स्थगन आदेश हासिल कर लेता है तथा वकील लोग ऐसे आदेश को आसानी से प्राप्त कर लेते हैं, मगर ऐसे आदेश स्पष्ट नहीं होते तथा वादी-प्रतिवादी का झगड़ा यथावत ही बना रहता है। वकील लोग ऐसे आदेश हासिल करते समय जज साहिबान को सम्बन्धित लड़ाई के कारण को स्पष्ट रूप से लिखने में तकलीफ नहीं उठाते क्योंकि उन्हें भी पता होता है कि प्रतिवादी जब अमुक फैसले का अर्थ अपने स्वार्थ के आधार पर निकाल लेगा, तब झगड़ा ज्यों का त्यों ही बना रहेगा तथा मजबूरी में वादी फिर से अपने वकील के पास गुहार लगाने के लिए मजबूर हो जाएगा। सरकार को चाहिए कि ऐसे छोटे मामलों की सुनवाई कार्यकारी मैजिस्ट्रेट को ही दे देनी चाहिए क्योंकि वे ऐसे मामलों पर पहले से ही विचार कर रहे होते हैं।
यह भी देखा गया है कि कुछ वकीलों की पुलिस, राजस्व अधिकारियों व जज सहिबानों के साथ सांठगांठ भी बनी होती है तथा ये लोग फरियादी व अपराधी को विशेष नाम के वकील को अधिकृत करने के लिए सलाह देते रहते हैं तथा फरियाद को या तो न्याय मिलता ही नहीं या फिर देरी से मिलता है। वकील लोग पीडि़त या अपराधी से मनमानी फीस वसूलते रहते हैं तथा इस सम्बन्ध में सरकार की तरफ से किसी प्रकार की सीमा तय नहीं की गई है। वकीलों की यह फीस निम्न कोर्ट से उच्च कोर्टों तक अलग-अलग दरों पर होती है तथा मरता क्या न करता वाली उक्ति फरियादियों पर पूर्ण रूप से सही उतरती है। उच्च न्यायालयों में वकील लोग लाखों रुपयों की फीस चार्ज करते हंै, भले ही फरियादी को वांछित न्याय मिले या न मिले। वकीलों का कत्र्तव्य है कि जाति-पाति, क्षेत्रवाद व लिंग भेद आदि से ऊपर उठकर एक समावेशी पेशे की मिसाल प्रस्तुत करें।
राजेंद्र मोहन शर्मा
रिटायर्ड डीआईजी
By: divyahimachal