'रेवड़ी' और सर्वोच्च न्यायालय
भारत में चुनावों के समय जिस तरह राजनैतिक दल मतदाताओं को ‘खैरात’ या मुफ्त सौगात बांटने के वादे कर उन्हें ललचाने की कोशिशें करते हैं, उस पर लगाम लगाने की सख्त जरूरत इसलिए हैं
आदित्य चोपड़ा: भारत में चुनावों के समय जिस तरह राजनैतिक दल मतदाताओं को 'खैरात' या मुफ्त सौगात बांटने के वादे कर उन्हें ललचाने की कोशिशें करते हैं, उस पर लगाम लगाने की सख्त जरूरत इसलिए हैं कि यह परिपाठी पूरे लोकतन्त्र को ही 'रिश्वत तन्त्र' में बदलने की क्षमता रखती है। यदि और क्रूर व खड़ी भाषा में कहा जाये तो यह मतदाताओं को मतदान से पहले परोक्ष रूप से खरीदने का प्रयास भी है। बोलचाल की भाषा में इसे 'रेवड़ी' बांटना भी कहा जाता है। इस शब्द का प्रयोग हाल ही में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड राजमार्ग का उद्घाटन करते हुए किया था और लोगों को विकास का सही अर्थ समझाया था। सबसे पहले हमें यह समझने की जरूरत है कि केवल एक दिन 'भंडारा या लंगर' खोल कर गरीब आदमी की भूख की समस्या को स्थायी रूप से सुलझाया नहीं जा सकता है। अगले दिन अपनी भूख मिटाने के लिए उसे फिर से मेहनत-मजदूरी का ही सहारा लेना पड़ेगा और अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए जद्दोजहद करनी पड़ेगी। इसी प्रकार चुनावों से पहले मुफ्त साइकिल या स्कूटी या लैपटाप पाने के लालच में यदि वह वादा करने वाली पार्टी को वोट डाल कर उसकी सरकार बनवा भी देता है तब भी इनके रखरखाव के लिए उसे अपनी जेब से ही धन खर्च करना होगा। मगर यदि कोई पार्टी यह वादा करती है कि अपनी सरकार बनने पर वह खाली पड़े सरकारी नौकरियों के पद भरेगी और गरीब आदमी की मजदूरी की दर में बढ़ौत्तरी करने के उपाय करेगी तथा खाद्य वस्तुओं के मूल्यों को नियन्त्रित करते हुए उन्हें एक सीमा में बांधेगी तथा उद्योग-धंधे शुरू करने वालों को विशेष रियायतें देगी तो इन वादों को लालच देने की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि इन वादों का असर स्थायी होगा और गरीब जनता की आमदनी बढ़ाने वाला होगा व रोजगार देने वाला होगा तथा सकल विकास का होगा। मगर हमने कुछ महीने पहले ही देखा था कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में मुफ्त सौगात बांटने के वादों की प्रतियोगिता विभिन्न राजनैतिक दलों में किस तरह चली थी। एक दल स्कूटी देने का वादा कर रहा था तो दूसरा लेपटाप देने की और तीसरा बेकारी व महिलाओं को पेंशन देने की। ऐसे कदमों से हम केवल जनता को अकर्मण्य व अनुत्पादक बनाने का पाप करते हैं और उसे उसके हाल ही पर छोड़ने का षड्यन्त्र रचते हैं। लोकतन्त्र में लोगों की सरकार होती है और वही देश की सम्पत्ति की असली मालिक होती है। उसकी सम्पत्ति से चोरी करने का किसी भी राजनैतिक दल को अधिकार नहीं दिया जा सकता। अतः सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि चुनाव पूर्व वादों में अन्तर किस प्रकार किया जाये। मगर राजनैतिक दल लोगों को मुफ्त रेवड़ी बांट कर अगले पांच साल तक उसी जनता के प्रति अपनी जवाबदेही से मुक्त होना चाहते हैं जो वास्तव में किसी भी दल की बनने वाली सरकार की मालिक होती है। मुफ्त रेवड़ी बांट कर लोकतन्त्र में सत्ता में आये लोग नौकर से मालिक बनना चाहते हैं जबकि वास्तव में वे जनता के नौकर ही होते हैं। इस फर्क को हमें गहराई से समझना होगा और पांच साल तक राज करने वाली सरकार से लगातार हिसाब लेते रहना होगा। यह विषय इतना सरल भी नहीं है क्योंकि स्वयं सर्वोच्च न्यायालय की भी समझ में नहीं आ रहा है कि इस बीमारी का इलाज कैसे किया जाये। देश की सबसे बड़ी अदालत में इस बाबत दो याचिकाएं लम्बित हैं। एक याचिका 2019 की है जो आन्ध्र प्रदेश के उन चुनावों में जनसेना पार्टी के प्रत्याशी श्री पेंटापति पुल्ला राव ने दायर की थी और दूसरी पिछले महीनों में ही में दायर की गई याचिका वकील अश्विनी उपाध्याय की है जो भाजपा के सदस्य हैं। इन दोनों ही याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार व चुनाव आयोग को नोटिस जारी किये थे। चुनाव आयोग ने तो हाथ खड़े कर दिये और कहा कि उसके पास कोई एेसा अधिकार नहीं है जिससे वह राजनैतिक दलों या उनकी बनने वाली सरकारों को एेसा करने से रोक सके क्योंकि यह नीति का मामला है जबकि केन्द्र ने नोटिस के जवाब में कोई शपथ पत्र दाखिल नहीं किया। मगर यह भी कम रोचक नहीं है कि कल जब श्री उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई हो रही थी तो मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण व न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी व न्यायमूर्ति श्री हिमा कोहली की पीठ में वरिष्ठ वकील श्री कपिल सिब्बल किसी अन्य मुकदमे के सिलसिले में उपस्थित थे। पीठ ने उनसे ही पूछ लिया कि आपकी राय में इस विषय में क्या होना चाहिए तो उन्होंने मामले को बहुत गंभीर बताते हुए कहा कि इसे वित्त आयोग ही निर्णायक भूमिका निभा सकता है क्योंकि राज्यों को वित्तीय आवंटन वही करता है। यहां यह समझना जरूरी है कि वित्त आयोग क्या कर सकता है। आयोग विभिन्न राज्यों की आर्थिक स्थिति देख कर उन्हें धन का आवंटन करता है। यदि किसी राज्य का बजट मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के वादों को पूरा करने में ही दब जाता है तो आयोग अवरोध लगा सकता है। दिक्कत यह है कि रेवड़ियां बांटने में राज्य सरकारें इतना खर्च कर देती हैं कि उनके पास सर्वांगीण विकास कार्यों के लिए धन ही नहीं बचता और वे फिर कर्ज उठाती हैं। मगर यह कर्ज वे बिना केन्द्र सरकार और रिजर्व बैंक की अनुमति के नहीं उठा सकती। वित्त आयोग यहीं उन्हें 'आइना' दिखा सकता है। श्री सिब्बल के सुझाव पर सर्वोच्च न्यायालय में केन्द्र सरकार के महाअधिवक्ता को निर्देश दिया कि वह आयोग से सलाह-मशविरा करके उसके पास आयें और शपथ पत्र दाखिल करें। केन्द्र के महाअधिवक्ता ने भी दलील दी थी कि सभी वादों को एक ही पैमाने पर नहीं कसा जा सकता है अतः केन्द्र को इस बारे में सोचना पड़ेगा। ऊपर मैंने स्पष्ट कर दिया है कि वादों में अन्तर को कैसे पहचानेंगे। दूसरा उपाय यह भी है कि चुनावों के जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 में संसद संशोधन करे और चुनाव आयोग को अधिकृत करे कि वह नीतिगत व भौतिक लालच देने के वादों के बीच अन्तर करते हुए राजनैतिक दलों पर लगाम लगाये। मगर यह संशोधन भी कम पेचीदा नहीं होगा क्योंकि चुनाव आयोग को राजनैतिक दलों की 'नीति' व 'नीयत' में अन्तर करना होगा। मगर जरूरी तो यह है कि इस बीमारी का पक्का इलाज हो। संपादकीय :अमृत महोत्सव : जारी रहेगा यज्ञ-10मेरा असली जन्मदिन है बुज़ुगों के चेहरों पर मुस्कानराजस्थान के अशोक गहलौतअमृत महोत्सव :अर्थव्यवस्था की छलांग-9अमृत महोत्सव : रक्षा आत्मनिर्भरता-8श्रावण मास में 'हर-हर महादेव'''इब्ने मरियम हुआ करे कोई मेरे 'दर्द' की 'दवा' करे कोई।